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संघ-भाजपा की तरह बिरसा की पाखंड पूजा न करें हेमंत सोरेन

यह कैसी विडंबना है कि जो बात इंडिया गठबंधन के मुख्यमंत्री के रूप में आज हेमंत सोरेन कह रहे हैं, वही बात, यानि झारखंड के विशेष भूमि कानूनों में संशोधन की मांग, सत्ता में आते ही सन् 2000 में भाजपा के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने कही थी। उनका कहना था कि यदि आदिवासियों को जमीन बेचने का अधिकार मिल जाये तो वह धन्ना सेठ बन जाएगा। पढ़ें, विनोद कुमार का यह आलेख

गत 9 जून, 2025 को धरती आबा बिरसा मुंडा के शहादत दिवस पर झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सहित सत्ता पक्ष और विपक्ष के तमाम नेताओं ने उन्हें याद किया और श्रद्धांजलि दी। राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह सहित तमाम बड़े नेताओं ने भी सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर बिरसा मुंडा को याद किया। खास यह कि इन सभी नेताओं ने उन्हें भगवान के रूप में याद किया जबकि आदिवासी समाज में व्यक्ति पूजा की परंपरा नहीं रही है। वे उन्हें अपना पुरखा मानते हैं। बिरसा को भगवान के रूप में याद करने का यह अभियान मुख्य रूप से गैर आदिवासी समाज और राजनेताओं की तरफ से हुआ है और लक्ष्य आदिवासी वोटरों को लुभाना रहा है।

विडंबना यह कि बिरसा के व्यक्तित्व को जान-बूझ कर बदलने का प्रयास लगातार किया जाता रहा है। बिरसा की शहादत महज 25 वर्ष की उम्र में हो चुकी थी, लेकिन झारखंड सहित देश भर में उनकी एक कद्दावर और प्रौढ़ रूप की मूर्तियां लगायी गई हैं। हाल के वर्षों में संघ की प्रेरणा से भाजपा के शासनकाल में जो मूर्ति लगायी गई है, उसमें कोशिश यह रही है कि उन्हें आर्यपुत्र राम की तरह या कहिए कि आर्य पुरुष की तरह दिखाया जाए। हालांकि बिरसा का एक चित्र उनकी गिरफ्तारी के वक्त का उपलब्ध है। दो सिपाहियों के बीच बिरसा का एक बिल्कुल प्रमाणिक चित्र। सामान्य कद-काठी और कौतुक भरी मीठी मुस्कान और चेहरे पर भय का कोई निशान नहीं। शायद आरएसएस के लोगों को यकीन नहीं होता कि कोमल भाव-भंगिमा वाले युवक ने अपने समय के सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति से लोहा लिया था। साजिश यह भी हो सकती है कि बिरसा की असली छवि लोग भूल जाएं।

छवि बदलने की संघी साजिश : बिरसा मुंडा की प्रमाणिक तस्वीर और बगल में रांची स्थित पुराने जेल, जहां बिरसा को कैद में रखा गया था, को अब संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है, में स्थापित उनकी प्रतिमा

उनके व्यक्तित्व को बदलने की इस कोशिश के साथ-साथ एक कोशिश यह भी हो रही है कि उनके संघर्ष के मुद्दों को लोग भूल जाएं। बस उन्हें भगवान बना कर पूजें। बिरसा को मुख्यधारा के बुद्धिजीवी, एक्टिविस्ट व राजनीतिज्ञ धीरे-धीरे स्वीकार करने लगे हैं। उनके प्रति श्रद्धासुमन भी अर्पित करते हैं। लेकिन उनकी समझ यही है कि आज की जटिल सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों के लिए बिरसा संघर्ष के अग्रदूत नहीं बन सकते। हिंदी के समालोचक रविभूषण जी ने बरसों पहले मेरे उपन्यास ‘रेड जोन’ के लोकार्पण समारोह में यह आशंका व्यक्त की थी। पता नहीं अब भी उनकी धारणा बदली है या नहीं। लेकिन गहराई से देखें तो बिरसा आज भी अंधकार के खिलाफ एक जलती मशाल के समान से लगेंगे। दरअसल, वह उपन्यास निम्न बिरसा गीत और पंक्तियों पर समाप्त होता है–

“चालकद् हातु रे जानोम लेनम् बिरसा

डुम्बारी बुरु रे लड़ाई केनम बिरसा

लड़ाई केनम् अबुआ दिसुम नतिंगते

गोय जनम जेल रे …”

भावार्थ यह कि ये शब्द मानव के लिए अबुझ हैं, लेकिन बिरसा शब्द की आवृति से वे झंकृत हो उठे। हां! बिरसा ही तो इस मुक्ति संग्राम के प्रकाश स्तंभ हो सकते हैं। उनके सिवा और कौन?

मैंने अपने उपन्यास के लोकार्पण के अवसर पर संक्षेप में बिरसा के दर्शन और संघर्ष के ऐतिहासिक महत्व पर अपनी बात रखी थी कि बिरसा कोई सामंत, राजा या जमींदार नहीं थे। वे कठिन परिस्थितियों में आदिवासी जनता के बीच से ही उभरे एक जननायक थे। उनका दिया कालजयी नारा – “अबुआ दिशोम, अबुआ राज” जनतंत्र की सबसे खूबसूरत परिभाषा है। “अपने देश में अपना राज” कितना सारगर्भित है, उसे इस तरह समझा जा सकता है कि आदिवासी समाज का अपना कोई देश या स्पष्ट भौगोलिक सीमा नहीं थी। इसका अर्थ यही है कि जिस प्राकृतिक परिवेश के बीच आदिवासी समाज बसा हुआ है, जिस भौगोलिक क्षेत्र में उसका अधिवास है, वही उसका देश है। और ‘अपना राज’ का अर्थ हुआ– आमजन का राज, जिसे स्वशासन व स्वायत्तता से ही साकार किया जा सकता है।

बिरसा आदिवासी जीवन के मूल आधार – जल, जंगल और जमीन – को प्रकृति प्रदत्त मानते थे। उनकी स्पष्ट समझ थी कि इसके लिए किसी को भी टैक्स देने के लिए आदिवासी बाध्य नहीं। इसलिए आदिवासी समाज को अपने इस अधिकार की रक्षा के लिए संघर्ष करना चाहिए। ‘उलगुलान’ की मूल भावना यही थी और आज भी आदिवासी समाज के अस्तित्व व अनूठी संस्कृति को बचाए रखने की अनिवार्य शर्त यही है।

और सतत चलने वाले उलगुलान का तरीका? खुला जन संघर्ष। हमेशा याद रखा जाना चाहिए कि बिरसा ने भाड़े के सिपाहियों की फौज नहीं बनाई, न माओवादियों की तरह ‘गुरिल्ला/लाल सेना’। वे छुप कर वार नहीं करते थे। जिस इलाके के लिए वे अपने समर्थकों के साथ कूच करते, उस इलाके के उत्पीड़कों, शोषकों, जमींदारों को पहले से सूचित कर दिया जाता था कि हम आ रहे हैं। आप अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर निकल जाएं।

बिरसा मुंडा की प्रतिमा को नमन करते झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन

अंग्रेजों ने उन्हें दो बार गिरफ्तार किया। पहली बार कुछ वर्ष जेल में रहने के बाद वे छूट कर आए और फिर संगी-सथियों को एकजुट करने में लग गए। दूसरी बार धोखे से संघर्ष के बीच ही गिरफ्तार कर लिये गए। उन्हें खूंटी से पैदल रांची के बिरसा जेल तक लाया गया। सिपाहियों के बीच गिरफ्तार चल रहे बिरसा के चेहरे पर खौफ की कोई लकीर नहीं, बल्कि एक कौतुक भरी मुस्कान थी।

त्रासदी यह है कि राजनीतिक फायदे के लिए बिरसा की जयंती और शहादत दिवस के मौके पर उन्हें श्रद्धासुमन तो सभी चढ़ाते हैं, लेकिन उनकी विचारों की धज्जियां उड़ाने में लगे हैं। उनके संघर्ष से बने भूमि कानूनों की धज्जियां उड़ाकर जल, जंगल और जमीन की लूट हो रही है। छत्तीसगढ़ में हसदेव के जंगल अडाणी के लिए काट दिये गए। झारखंड में संथाल परगना टीनेंसी एक्ट का उल्लंघन कर गोड्डा में हजारों हजार एकड़ जमीन उनके पावर प्लांट के लिए आवंटित कर दिया गया। जाहिर तौर पर केंद्र सरकार की कारपोरेट परस्त नीतियों से जल, जंगल और जमीन की लूट का मार्ग प्रशस्त हुआ ही है। अब हेमंत सोरेन भी इसी मार्ग पर अग्रसर हैं। हाल ही में नीति आयोग की बैठक में हेमंत सोरेन ने भी खुल कर यह बात कही कि झारखंड के विशेष भूमि कानूनों की वजह से विकास अवरुद्ध हो रहा है। यहां यह याद दिलाने की जरूरत नहीं कि संथाल विद्रोह जिसे ‘हूल’ के नाम से हम जानते हैं और बिरसा के ‘उलगुलान’ के दबाव से ही आदिवासी इलाकों के लिए विशेष भूमि कानून बनाए गए थे।

यह कैसी विडंबना है कि जो बात इंडिया गठबंधन के मुख्यमंत्री के रूप में आज हेमंत सोरेन कह रहे हैं, वही बात, यानि झारखंड के विशेष भूमि कानूनों में संशोधन की मांग, सत्ता में आते ही सन् 2000 में भाजपा के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने कही थी। उनका कहना था कि यदि आदिवासियों को जमीन बेचने का अधिकार मिल जाये तो वह धन्ना सेठ बन जाएगा।

इस लिहाज से देखें तो भाजपा-संघ की अर्थनीति और झामुमो की अर्थनीति में कोई खास फर्क नहीं रह गया है। इसलिए बिरसा के शहादत दिवस पर उनकी मूर्ति पर श्रद्धासुमन दोनों चढ़ाते हैं और उनके नीतियों की धज्जियां उड़ाने में दोनों बराबर के भागी हैं।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

विनोद कुमार

झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता विनोद कुमार का जुड़ाव ‘प्रभात खबर’ से रहा। बाद में वे रांची से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘देशज स्वर’ के संपादक रहे। पत्रकारिता के साथ उन्होंने कहानियों व उपन्यासों की रचना भी की है। ‘समर शेष है’ और ‘मिशन झारखंड’ उनके प्रकाशित उपन्यास हैं।

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