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बिहार में भाजपा के ‘ऑपरेशन सिंदूर अभियान’ के बीच देखी जा रही ‘फुले’ फिल्म

इस बार का बिहार विधानसभा चुनाव राष्ट्रवाद बनाम सामाजिक न्याय के बीच होगा। इसलिए यह फ़िल्म राजनीतिक महकमे में भी देखी जा रही है। सामाजिक न्याय की पार्टियां और सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्ष कर रही पार्टियों के कार्यकर्त्ता और नेता भी सामूहिक तौर पर इस फिल्म को देख रहे हैं। पढ़ें, कुमार दिव्यम की रिपोर्ट

महान समाज सुधारक तथा सत्यशोधक समाज के संस्थापक जोतीराव फुले तथा सावित्रीबाई फुले के जीवन संघर्षों पर बनी फ़िल्म ‘फुले’ चर्चा में है। बिहार में भी यह फ़िल्म देखी जा रही है। और वह भी इस साल होनेवाले विधानसभा चुनाव की गहमागहमी के बीच भाजपा द्वारा ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के नाम पर सियासत के बीच। पटना के सिनेपोलिश में यह फिल्म दिखाई जा रही है। हालांकि यह फिल्म केवल राजधानी पटना में ही नहीं, अपितु छोटे शहरों तथा ग्रामीण इलाकों के सिनेमा घरों तक भी पहुंच बनाने में सफल हो गई है। मसलन, हाजीपुर, छपरा, भागलपुर, जैसे कई अन्य शहरों के सिनेमाघरों में यह फिल्म देखी जा रही है। लोग इसे पसंद भी कर रहे हैं। लोग इसे समाजिक न्याय के योद्धा जोतीराव फुले व सावित्रीबाई फुले के जीवन-संघर्ष से परिचित होने तथा ब्राह्मण संगठनों के द्वारा इस फ़िल्म के विरोध के प्रतिरोध में भी देख रहे हैं। जैसे समाज यह संदेश देना चाहता है कि वह अपने नायकों के साथ खड़ा है।

इस साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में वैचारिक तौर पर सामाजिक न्याय तथा राष्ट्रवाद के बीच का मुकाबला है। भाजपा जहां एक ओर ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के रथ पर सवार है। वही राजद के नेतृत्व में इंडिया महागठबंधन के पास जातिगत जनगणना और सामाजिक न्याय का एजेंडा है। स्वाभाविक है इस बार का बिहार विधानसभा चुनाव राष्ट्रवाद बनाम सामाजिक न्याय के बीच होगा। इसलिए यह फ़िल्म राजनीतिक महकमे में भी देखी जा रही है। सामाजिक न्याय की पार्टियां और सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्ष कर रही पार्टियों के कार्यकर्त्ता और नेता भी सामूहिक तौर पर इस फिल्म को देख रहे हैं। इस क्रम में राहुल गांधी ने भी पिछले दिनों बिहार यात्रा के दौरान पटना में यह फिल्म बुद्धिजीवियों तथा पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ देखी।

‘फुले’ फिल्म में ब्राह्मण हिंदुओं को एक हो कर अंग्रेजों से लड़ने की बात कहते हैं तो सावित्रीबाई कहती हैं कि “हमें वर्ण-व्यवस्था से पहले आजाद करो फिर करो अंग्रेजों से आजादी की बात। किस बात की एकता और धर्म है जहां हमें अछूत समझा जाता है।” यह दृश्य आज भी प्रासंगिक लगता है। आज आरएसएस और भाजपा जातिगत जनगणना और सामाजिक न्याय के एजेंडे की जगह राष्ट्रवाद और हिंदू एकता की बात करती है, जबकि जाति उन्मूलन की बहसों पर चुप्पी साध लेती है।

‘फुले’ फिल्म का एक पोस्टर

असल में ‘फुले’ फिल्म में फुले दंपत्ति के सामाजिक परिवर्तन की संघर्ष गाथा है। वे स्त्री शिक्षा तथा जातिगत भेदभाव व उत्पीड़न से समाज को मुक्ति दिलाने के लिए लड़ते हुए दिखाए गए हैं। स्त्रियों तथा शूद्रों के लिए स्कूल खोलने और उन्हें शिक्षित करने पर ब्राह्मण विरोध करते हैं। वे जोतीराव फुले पर हमला करते हैं और उन्हें जान से मारने की कोशिश भी करते हैं। फिल्म में बखूबी दिखाया गया है कि कैसे पितृसत्ता की जड़ें ब्राह्मणवाद में धंसी हुई हैं और पितृसत्ता से मुक्ति ब्राह्मणवाद से मुक्ति के बिना संभव नहीं है। फिल्म के कई दृश्य सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई के लिए प्रेरित करते हैं। जोतीराव फुले ने तमाम बाधाओं तथा अवरोधों के बावजूद सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ी, यह आज के दौर में संघर्ष को आगे बढ़ाने तथा लड़ने के लिए प्रेरणा देता है।

पटना विश्वविद्यालय के छात्र सौरव कुमार ने फिल्म देखने के बाद बताया कि हालांकि फिल्म के किरदारों ने उत्कृष्ट अभिनय किया है, लेकिन अनेक पात्रों के संवादों में विचारों की गहराई की कमी नजर आती है। फुले द्वारा जाति व्यवस्था की आलोचना करने पर ब्राह्मणों की ओर से क्रूर प्रतिक्रियाओं को सरसरी अंदाज में दिखाया गया है। यहां तक कि सत्यशोधक समाज को भी बहुत हल्के ढंग से दिखाया गया। उसे और विस्तृत दिखाया जा सकता था। उसके वैचारिक बुनियाद को दिखाना जरूरी था। सौरव कहते हैं कि जोतीराव फुले पर हिंदी पट्टी में इतना कम काम हुआ है और बहुजन नायकों पर इतनी कम फिल्में बनी हैं कि यह फ़िल्म भी प्रभावी लगती है।

वहीं अपने दोस्तों के साथ फिल्म देखने आए पटना विश्वविद्यालय के सामाजिक कार्य के छात्र आशीष साह कहते हैं कि ‘फुले’ फिल्म देखने का प्लान हम दोस्तों ने बनाया जिसमें सभी लोग बहुजन समाज से ही हैं। फुले को हमलोग किताबों में पढ़ते रहे हैं और उनके संघर्षों से प्रेरित होते रहे हैं। वे हमारे आदर्श हैं, उनके संघर्ष हमें आज भी प्रेरित करते हैं। फिल्म अच्छी लगी। ऐसी और फिल्में बननी चाहिए। वे कहते हैं कि जब तक जाति-पाति से भारत को मुक्ति नहीं मिलेगी तब तक हमारा देश एक मजबूत राष्ट्र नहीं बन सकता है।

यही फिल्म देखने आई शोध छात्रा मनीषा यादव बताती हैं कि उन्हें कई बातें जानने का मौका मिला जो, पहले नहीं जानती थी। फुले दंपत्ति के बारे में हमने पढ़ा था। लेकिन जातिगत भेदभाव का इस तरह उन्हें सामना करना पड़ा। फिल्म बताती है कि उस दौर में जब जातिगत भेदभाव की जड़ें और गहरी थीं तब फुले दंपत्ति ने संघर्ष किया, जिसके कारण आज हम लड़कियां पढ़ पा रही हैं। इसमें इस दंपत्ति का बड़ा योगदान है। फिल्म में सावित्रीबाई फुले अपने पति के सहयोग से पढ़ती जरूर हैं, लेकिन जब वह योग्य होती हैं तो आगे चल कर सत्यशोधक समाज को भी संभालती हैं और स्कूल भी संभालती हैं। यह फिल्म बताती है कि हम स्त्रियों को समान अवसर नहीं मिलते हैं। यदि मिलें तो हम किसी भी कार्य को करने के लिए पुरुषों के बराबर सक्षम हैं।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में एमए कर रहीं पटना की स्नेहा सिंह फिल्म की तारीफ करते हुए कहती हैं कि वाकई फिल्म अच्छी है। ऐसी फिल्में और बननी चाहिए। जोतीराव फुले और सावित्रीबाई इस देश के प्रथम शिक्षक व शिक्षिका हैं। शिक्षक दिवस इनके जन्मदिन पर मनाया जाए तो ज्यादा अच्छा रहेगा। इनलोगों ने सच्चे अर्थों में परिवर्तन के लिए संघर्ष किया है।

सामाजिक न्याय की राजनीति की धरती बिहार ने ब्राह्मणवाद और सामंतवाद के खिलाफ तीखा संघर्ष किया है। भले फुले बिहार में बतौर नायक लोकप्रिय नहीं हैं, लेकिन जो संघर्ष वो महाराष्ट्र में कर रहे थे, वही संघर्ष यहां भी चला है। बिहार के ब्राह्मणवाद और सामंतवाद के खिलाफ चले संघर्षों को उनके संघर्षों की अगली कड़ी के रूप में ही जोड़कर देखना चाहिए। जातिगत उत्पीड़न तथा जातिगत भेदभाव के खिलाफ लड़ते हुए बिहार के दलित-पिछड़ों ने दर्जनों नरसंहार झेले हैं। आज जब दलित-पिछड़ी जातियां सत्ता के केंद्र में हैं और सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष कर रही हैं तब यह फिल्म परिवर्तन के लिए काम कर रहे लोगों को बल दे रही है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सामाजिक न्याय की चेतना की प्रसार यह फिल्म कर रही है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कुमार दिव्यम

लेखक पटना विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में स्नातकोत्तर छात्र व स्वतंत्र लेखक हैं

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