जाति-आधारित उत्पीड़न फिर बढ़ने लगे हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उड़ीसा और दूसरे राज्यों में भी ऐसी घटनाएं घटित हो रही हैं। दलित-पिछड़ों के ऊपर ऊंची जातियों के द्वारा पेशाब कर देना या छिड़क देना, उनके सिर का मुंडन करना, उन्हें घुटनों के बल चलवाना, मुंह में घास-फूस ठूंस देना आदि अमानवीय घटनाएं लगातार घटित हो रही हैं। मुसलमानों के साथ तो हिंसक घटनाएं लंबे समय से घटित हो रही हैं। जाति और जन्म के आधार पर होने वाली अपमानजनक घटनाओं के वीडियो सोशल मीडिया पर तेज़ी से घूमने लगते हैं। इन घटनाओं को ज्यादातर लोग नापसंद करते हैं। इनकी निंदा भी की जाती है। इन पर कानूनी कार्रवाई भी होती है। इन सब के बावजूद ऐसी घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं। इनके पीछे के कारणों पर विचार किया जाना चाहिए।
उत्तर प्रदेश के इटावा में एक यादव और जाटव के द्वारा भागवतकथा कहने के प्रकरण में अत्यंत शर्मनाक घटना घटी है। उन्हें ख़ूब बेइज्जत किया गया है। बेइज्जत करनेवाले ब्राह्मण जाति के हैं। उनका तर्क है कि ब्राह्मण के बीच ये लोग भला कैसे भागवतकथा कह सकते हैं। इस तर्क का समर्थन कई धार्मिक प्रतिनिधि भी कर रहे हैं। यादवों की तरफ से कई तरह के तर्क आ रहे हैं। उनका कहना है कि भागवतकथा कहने-सुनने का अधिकार सबके पास है। संविधान भी सबको बराबर की धार्मिक स्वतंत्रता देता है। लालू प्रसाद के शासनकाल में एक समय था कि पटना के महावीर मंदिर का पुजारी एक दलित व्यक्ति को बनाया गया था। उस दौर की राजनीतिक-सामाजिक मांग इसके पक्ष में थी। मंदिर के प्रशासन ने इन सब को भांपा और ऐसा निर्णय लिया। यह घटना आज से लगभग 30-32 साल पहले की है।
मगर आज दलित तो छोड़ दीजिए, पिछड़ी जातियों में सबसे आगे बढ़ी हुई यादव जाति के व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से अपमानित-ताड़ित-प्रताड़ित करके यह संदेश दिया जाता है कि हिंदू समाज की जाति-आधारित अनुक्रम का पालन करो! इसमें व्यतिक्रम पैदा करोगे तो इसी तरह का हश्र किया जाएगा! मेरा ख्याल है कि सोशल मीडिया पर कुछ दिनों तक इस घटना की चर्चा होती रहेगी और फिर सब कुछ सामान्य हो जाएगा। इधर के वर्षों में इस तरह की जितनी वारदातें हुई हैं, उनके बाद की परिणति इसी तरह की ख़ामोशी रही है। तो क्या आज हम पीछे की तरफ जा रहे हैं? धार्मिक व्यवहार की समानता की जगह असमानता की तरफ बढ़ रहे हैं? कुछ लोग कहते हैं कि यह सब हिंदू धर्म की स्थायी बुराई है। यह धर्म जाति के आधार पर भेदभाव सिखाता है।
मुझे लगता है कि आज के समय में संगठन के रूप में धार्मिक शक्तियां मज़बूत नहीं रह गई हैं। संगठनात्मक शक्ति के रूप में हिंदू, मुस्लिम, ईसाई जैसे बड़े धर्मों का हाल लगभग एक जैसा है। अब धर्म के नाम पर कोई बड़ी एकता दिखाई नहीं पड़ती है। कोई धार्मिक व्यक्तित्व इतना शक्तिशाली नहीं रह गया है कि वह सत्ताओं को सीधे आदेश दे सके! पिछले दिनों राम मंदिर के उद्घाटन के मामले में हिंदू धर्म के कुछ शंकराचार्यों की तीखी असहमतियां सामने आई थीं, मगर उनसे कार्यक्रम में कोई बदलाव नहीं आया। वैश्विक पटल पर देखें तो हम पाते हैं कि मुसलमानों की पहचान वाले कई देशों को कुचल दिया गया, मगर मुसलमानों की कोई धार्मिक एकता खुलकर सामने नहीं आ पाई। फिलिस्तीन और ईरान का संकट सबसे ताज़ा है, जहां मुस्लिम पहचान वाले देशों ने इनके पक्ष में कोई एकता नहीं दिखाई, बल्कि इनके विरोधी अमेरिका-इजरायल का साथ देते रहे!
आज के समय में सबसे बड़ी चीज़ है राजनीतिक शक्ति! यह जिसके पास रह रही है उसके अनुसार सामाजिक व्यवहार भी दिखाई पड़ रहा है। 1990 से लेकर अब तक के भारत ने तीसरे मोर्चे की राजनीति को उठते-गिरते और हाशिए पर जाते हुए देखा है। तीसरे मोर्चे की राजनीति जिस वैचारिकी से निर्मित हुई थी उसने सामाजिक परिवेश को जबरदस्त तरीके से बदला था। जातिसूचक अपमानजनक टिप्पणी करने से लोग घबराने लगे थे। दबंग जातियों को समझ में आने लगा था कि दलितों-पिछड़ों को अपमानजनक तरीके से संबोधित करना अब संभव नहीं है। ऐसा करने पर वे मार भी खा सकते हैं और पुलिस-प्रशासन के द्वारा न्यायिक प्रक्रिया में लाए भी जा सकते हैं। एक ऐसा राजनीतिक माहौल बना, जिसमें दलितों-पिछड़ों ने आत्मविश्वास प्राप्त किया। तब यह संभव नहीं था कि सार्वजनिक रूप से जाति के आधार पर उनका कोई अपमान कर सके!

इसी क्रम में अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम की चर्चा करना प्रासंगिक होगा। इस अधिनियम ने दलित जातियों के बीच आत्मविश्वास बढ़ाया। उन्हें एहसास हुआ कि वे पहले की तुलना में ज्यादा सुरक्षित हैं। कई जगहों पर यह भी सुना गया कि ग़ैर दलितों को इस अधिनियम का दुरुपयोग करके फंसाया गया और व्यक्तिगत दुश्मनी का बदला लिया गया। इस अधिनियम के प्रभाव से कहीं-कहीं यह देखा गया कि मुक़दमे से बचने के लिए ऊंची जाति के व्यक्ति ने दलित के पैर पकड़कर माफ़ी मांगी।
राजनीतिक ताक़त बढ़ने पर कमज़ोर कही जानेवाली जातियों ने भी अत्याचार किए हैं। दलितों को सताने में पिछड़ी जातियों की भूमिका भी कम नहीं रही है। नागार्जुन की कविता ‘हरिजन गाथा’ में बेलछी नरसंहार को आधार बनाया गया है। तेरह दलितों को कुर्मी जाति के लोगों ने आग में जिंदा झोंककर हत्या कर दी थी। यह पिछड़ों के द्वारा किया गया ज़ुल्म था। अगड़ी जातियों के द्वारा किए गए जातिवादी ज़ुल्म की तो गिनती भी नहीं की जा सकती है।
अनुभव यही कहता है कि राजनीतिक ताक़त की कमी होने पर आपके खिलाफ़ उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ेंगी। ज्यादातर लोग कहते हैं कि जाति-आधारित राजनीतिक ताक़त की बात करना अपने घटिया सोच को प्रदर्शित करना है। मगर सच यही है कि अपमानजनक घटनाओं के पीछे केवल और केवल आपकी राजनीतिक ताक़त की कमजोरी काम कर रही होती है। बहुत ज़रूरी है कि कोई भी जाति राजनीतिक रूप से कमज़ोर न हो! प्रत्येक जाति को चाहिए कि वह अपनी जाति या अपनी जैसी जातियों के साथ मिलकर राजनीतिक शक्ति बने! इसके अभाव में देखा गया है कि कमज़ोर जातियां उत्पीड़न का शिकार होती हैं। तीसरे मोर्चे की राजनीति के पहले और आज के दौर में लगभग एक जैसी मानसिकता हावी हो गई है। इस मानसिकता को शाश्वत नहीं मानना चाहिए बल्कि राजनीतिक सत्ता के अनुसार समझना चाहिए। इस मानसिकता को बदलते हुए हम सब लोग देखते रहे हैं।
भारत का समाज मूलतः जातियों से बना हुआ समाज है। तमाम परिवर्तनों ने इस व्यवस्था को प्रभावित तो किया है मगर मूल ढांचे को हिलाया नहीं जा सका है। यह सच है कि राजनीतिक रूप से कमज़ोर होते ही दलितों-पिछड़ों को सार्वजनिक रूप से अपमानित किए जाने की घटनाएं दिखाई पड़ने लगती हैं। यह मायावती, मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद के मामले में देखा जा सकता है। ऊंची जातियों के विरुद्ध उस हद तक दुर्व्यवहार कभी संभव नहीं हुआ है जिस हद तक दलितों-पिछड़ों के खिलाफ़ घटनाएं होती रही हैं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के एक दलित प्राध्यापक को ब्राह्मणों ने पीटते हुए सड़क पर एक-डेढ़ किलोमीटर की यात्रा कराई थी। कहा गया कि वह अध्यापक अभद्र है और उसने एक छात्रा के विरुद्ध अपमानजनक टिप्पणी की है। यहां एक सवाल पर विचार किया जाना चाहिए कि स्थिति यदि उल्टी होती तो क्या किसी ब्राह्मण अध्यापक को दलितों के द्वारा इसी तरह की परेड करवाई जा सकती थी? हम सब जानते हैं कि बिलकुल नहीं! ऐसा बिलकुल नहीं कहा जाना चाहिए कि ब्राह्मण जाति को अपमानित किया जाए। यहीं यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि किसी भी जाति के व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से जाति-आधारित अपमान किए जाने के खिलाफ़ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। इस तरह की घटनाओं के वीडियो अब आसानी से बना लिए जाते हैं और वायरल कर दिए जाते हैं। सोचा जा सकता है कि अपमानित व्यक्ति का सामाजिक-सार्वजनिक जीवन कितना घुटन-भरा बन जाएगा!
कुछ लोग सलाह देते हैं कि दलितों-पिछड़ों को चाहिए कि वे स्वयं को हिंदू न कहें और उन तमाम प्रक्रियाओं से स्वयं को मुक्त कर लें जो धार्मिक हैं। क्या यह संभव है? ऐसा होना निकट भविष्य में तो संभव नहीं लगता है। दलितों के बीच हिंदू धर्म की परंपरा भले कमज़ोर रही हो मगर पिछड़ों के बीच यह परंपरा बहुत मज़बूत रही है। दलित जातियों में अपने ढंग की धार्मिक गतिविधियां परंपरा से देखी गई हैं। इन सब का रूपांतरण आज लगभग एक ढंग की धार्मिक गतिविधियों में हो गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हिंदू धर्म के नियामक के रूप में ग़ैर-ब्राह्मणों का प्रवेश हुआ है। आज भी नियामक के रूप में ब्राह्मण हैं या लगभग उनके जैसे लोग! इसके बावजूद सामान्य व्यवहार में यह नहीं कहा जा सकता कि जाति के आधार पर किसी हिंदू को वंचित किया जा रहा है। गांव के मंदिरों में जाति-आधारित भेदभाव आज भी मिलता है, मगर बड़े मंदिरों में कोई प्रवेश-निषेध अब प्रायः नहीं मिलता है। मंदिरों के ट्रस्ट और कारपोरेटीकरण ने दर्शनार्थियों को लगभग उपभोक्ता की तरह समान व्यवहार का भागी बनाया है। दान-दक्षिणा, दर्शन-पूजन, आवागमन, सफाई, प्रसाद, पुजारी आदि के मामले में सुव्यवस्था बनाने का प्रयास दिखाई पड़ने लगा है। ऐसी स्थिति में आप कह नहीं सकते हैं कि किसी जाति के साथ कोई भेदभाव हो रहा है। हिंदू धर्म की प्रत्येक जाति आज कांवर यात्रा कर रही है। महाकुंभ में भी प्रत्येक जाति को प्रवेश मिला। आप किस बात के आधार पर दलितों-पिछड़ों से आह्वान कर सकते हैं कि वे हिंदू धर्म को छोड़ दें? आज कोई प्रत्यक्ष आधार दिखाई नहीं पड़ता है।
अपमानजनक घटनाओं का कारण इन जातियों की राजनीतिक कमज़ोरी है। इन जातियों के सच्चे प्रतिनिधि आज सत्ता में नहीं हैं। दलितों-पिछड़ों के प्रतिनिधित्व में वृद्धि हुई है। प्रत्येक पार्टी के भीतर इन्हें पहले से ज्यादा मौके मिले। राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे मनोनयन वाले पदों पर भी दलित-आदिवासी नियुक्त किए गए हैं। मगर इन सब में एक प्रवृत्ति समान रूप से मिलती है कि ये लोग प्रायः अपने समाज के किसी आंदोलन की उपज नहीं हैं। ये अपने-अपने सामाजिक समूह के प्रतिनिधि नहीं बल्कि टोकन हैं! गिनवाने के लिए कहा जा सकता है कि यादव जाति के सांसदों की संख्या सभी पार्टियों को मिलाकर इतनी है। मगर हम ज्यादातर सांसदों को जाति-आधारित उत्पीड़न के खिलाफ सक्रिय होते हुए नहीं देखते हैं। वे अपनी पार्टी के स्टैंड पर खड़े होते हैं। वे प्रायः पीड़ितों तक नहीं पहुंचते हैं! ऐसा न करने पर उनका कुछ बिगड़ता भी नहीं है।
मुसलमान आज पूरी दुनिया में सर्वाधिक प्रताड़ित स्थिति में हैं। बड़ी-बड़ी ताकतें उनके खिलाफ़ हैं। वे बड़ी संख्या में क्रूरतापूर्वक मारे जा रहे हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के समय यहूदी भी इसी तरह मारे गए थे। राजनीतिक शक्ति के अभाव में पूरी कौम को यह सब झेलना पड़ता है। भारत ही नहीं पूरी दुनिया में वर्चस्व की कामना रखने वाली सत्ताएं फल-फूल रही हैं। तमाम पुनरुत्थानवादी प्रवृत्तियां सर चढ़कर बोल रही हैं। शक्ति के विकेंद्रीकरण की ज़गह शक्ति के केंद्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ रही है। ऐसे दौर में जातिवादी पाखंडी व्यवहार का सामना वंचित समाज को करना ही पड़ेगा। चमकती हुई दिखनेवाली दुनिया में भी आदिम प्रवृत्तियां सांस लेती रहती हैं। मौका और उकसावा मिलते ही किसी के सिर पर पेशाब कर देने में उसे अपनी जीत का एहसास होता है। ध्यान रखिए कि इस आदिम प्रवृत्ति का पोषण केवल पुरुष नहीं करते, स्त्री भी करती है (जैसा कि इटावा मामले में एक ब्राह्मण स्त्री ने किया है) और अपने पेशाब को सबके सामने बेझिझक होकर ग़ैर-ब्राह्मण कथावाचक के सिर पर छिड़क देती है। और घोषणा की जाती है कि पाप कट गया!
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, संस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in