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‘हाय! प्रगतिशीलता’

“संभवतः किसी वरिष्ठ साथी ने वीटो किया कि यदि प्रेमकुमार मणि जैसे भ्रष्ट जातिवादी लोग उसमें शामिल होंगे तो मेरा आना संदिग्ध होगा। मैं भ्रष्ट और जातिवादी हूं, यह आरोप उस संगठन के लोगों ने मुझ पर लगाए हैं, जिनसे मैं लंबे समय से जुड़ा रहा हूं।” पढ़ें, प्रेमकुमार मणि का यह पोस्ट

[दो दिनों पहले बिहार के वरिष्ठ समालोचक व बहुजन चिंतक प्रेमकुमार मणि ने एक पोस्ट अपने फेसबुक वॉल पर साझा किया। इस पोस्ट के मुताबिक, प्रगतिशील लेखक संघ एक सदस्य ने उनके ऊपर भ्रष्ट और जातिवादी होने का आरोप लगाया है। हालांकि यह पहली मर्तबा नहीं है जब दलित-बहुजन लेखकों और विचारकों पर इस तरह के आरोप लगाए गए हैं। फणीश्वरनाथ रेणु से लेकर राजेंद्र यादव तक एक बड़ी सूची है। प्रेमकुमार मणि का यह पोस्ट यहां इसलिए प्रकाशित कर रहे हैं ताकि यह भी सनद रहे।]

लेखकों के संगठन बीते ज़माने की चीज हो गई है। अब तो लिट् फेस्ट का जमाना है। बावजूद इसके पुराने वामपंथी लेखक संगठन किसी न किसी रूप में अपने अस्तित्व को खींच रहे हैं, जैसे वामपंथी पार्टियां कर रही हैं।

1970 के दशक में जब गांव से पटना आया तब साथ में थोड़ा-सा लेखकीय मिजाज भी था। उन दिनों पटना साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों से खचित था। अनेक महार्घ लेखक यहां थे। दिनकर जी का निधन हमलोगों की याद में हुआ, लेकिन उनसे कभी मिला नहीं। लेकिन रेणु, नागार्जुन, कन्हैया जी, मुक्त जी आदि कई ऐसे बड़े लेखक थे, जिनसे मिलना और जुड़ना हुआ। आलोक धन्वा युवा थे, लेकिन प्रसिद्ध हो गए थे। अपनी आदतों में बुजुर्ग भी। डॉ. नंदकिशोर नवल काफी सक्रिय थे। कुछ वर्ष पूर्व युवा लेखक सम्मेलन करा कर वह भी चर्चित हो गए थे। अरुण कमल, बसंत कुमार, सुलभ और ऐसे दर्जनों  युवा लेखक उठ रहे थे। अनेक बंगला और उर्दू के लेखक थे। सुहैल अजीमाबादी साहब, पूर्णेन्दु मुखोपाध्याय, विश्वजीत सेन आदि हिंदी में नहीं लिखते थे, लेकिन उनके बिना पटना की सांस्कृतिक दुनिया नहीं बनती थी। सतीश आनंद के मंचित नाटकों से हमने आधुनिक नाटक और नौटंकी का भेद जाना था। रामकृष्ण पांडे बहुत चुप्पे और गहरे सांस्कृतिक सरोकार के थे। हम सब उनके हरित सभा में बैठते। दुनिया भर की बातें करते।

उन्हीं दिनों कन्हैया जी और खगेंद्र ठाकुर जी के प्रयास से बिहार प्रगतिशील लेखक संघ सक्रिय हुआ। हमलोग उससे जुड़ गए। राय अमर जी का चेहरा याद आता है। वह पंजाब से थे। शायद भगत सिंह के सहयोगी रहे थे। 1930 के दशक में बिहार में हिंदी साहित्य प्रचारिणी सभा (हिसप्रस) का विस्तार देखने की जिम्मेदारी उन पर थी।  बाद में कम्युनिस्ट आंदोलन से वह जुड़ गए। बड़े कोमल, सहृदय, सांपों के विशेषज्ञ। उनसे जुड़े जाने कितने संस्मरण हैं। प्रगतिशील लेखक संघ का सदस्य वही बनाते थे। सदस्यता शुल्क तीन रुपए थे । मैं सदस्य बन गया। तब देश में इमरजेंसी थी। पटना में सीपीआई  ने एंटी फासिस्ट कांफ्रेंस करवाया था। मैं नहीं गया था। लेकिन उसी साल के आखिर में (1976) जब छपरा जिले के मढ़ौरा में प्रगतिशील लेखक संघ का प्रांतीय सम्मेलन हुआ तो शामिल हुआ। सिपाही सिंह श्रीमंत, नंदकिशोर नवल और मैंने उसमें विमर्श के लिए परचा पढ़ा। अजीब वातावरण था। नागार्जुन, नामवर सिंह से लेकर मेरे जैसे नौसिखुए सब पुआल पर पड़े बिस्तरों पर जमीन पर सोते। चिल्ला जाड़ा पड़ रहा था। चावल, दाल और सब्जी का पत्तल पर परोसा हुआ भोजन। विमर्श में  दुनिया जहान की चिंता। आज उन सब को याद कर रोमांच होता है।

प्रेमकुमार मणि की तस्वीर व उनके द्वारा साझा किए गए सार्वजनिक पोस्ट में संलग्न स्क्रीनशाॅट

जाने कितने सभा सम्मेलनों  में शामिल हुआ। 1982 में जयपुर और 1986 में लखनऊ का यादगार सम्मेलन था। यूं जाने कितनी जगहों पर जाना हुआ। 1988 में मध्य प्रदेश के गुना में आयोजित सम्मेलन भी यादगार था। छोटे छोटे दर्जनों सम्मेलनों में पूरे हिंदी इलाके में जाना हुआ। तब भीष्म साहनी, कैफ़ी आज़मी, गुलाम रब्बानी ताबां, अली सरदार जाफरी आदि बड़े लेखक प्रलेस के सम्मेलनों में जाते थे।

1992-94 में पटना प्रगतिशील लेखक संघ का मैं संयोजक रहा और इस बीच तक़रीबन बीस से अधिक  जानदार संगोष्ठियों का आयोजन यहां हुआ।

याद नहीं कब से, लेकिन एक लंबे समय से इस संगठन से मैं अलग हूं। जानबूझ कर नहीं। यूं ही। अन्य सक्रियताओं में व्यस्त रहने के कारण। नए लोग जुड़ने चाहिए। जुड़े भी हैं। कभी किसी कार्यक्रम में यदि बुलाया है तो गया भी हूं।

पिछले वर्ष प्रेमचंद जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में गया। आने पर पता चला, वह असली नहीं, जारज प्रलेस है। हद हो गयी प्रलेस में भी असली और जारज! कुछ लोगों ने यह भी कहा कि नहीं जाना चाहिए था। लेकिन मैं तो जा चुका था। भ्रष्ट हो चुका था।

पिछले जुलाई महीने की बात है। कुछ रोज पूर्व व्हाट्सप पर एक कार्ड आया कि कथाकार अमरकांत जी की शतवार्षिकी मनाई जा रही है। दूसरे सत्र में मेरा भी नाम था। 27 जुलाई को कार्यक्रम था। दो रोज पहले संतोष दीक्षित जी ने फोन पर पूछा जाइएगा न? मैंने हां कहा। यह भी पूछा कि मेरा नाम कैसे दे दिया। लेकिन अमरकांत जी पर आयोजन है जाना चाहिए। आयोजन के एक रोज पहले जयप्रकाश जी ने फोन किया। फिर वही सवाल। मेरा वही जवाब।

27 को चलने के पहले मुझे मालूम हुआ मेरे नाम पर आयोजकों में खींच-तान थी। मुझे अजीब लगा। ऐसे आयोजन में क्यों जाना। मैं नहीं गया।

संभवतः किसी वरिष्ठ साथी ने वीटो किया कि यदि प्रेमकुमार मणि जैसे भ्रष्ट जातिवादी लोग उसमें शामिल होंगे तो मेरा आना संदिग्ध होगा। मैं भ्रष्ट और जातिवादी हूं, यह आरोप उस  संगठन के लोगों ने मुझ पर लगाए हैं, जिनसे मैं लंबे समय से जुड़ा रहा हूं। निःसंदेह समाज और साहित्य में फैले जातिवादी रुझानों का मैं विरोधी रहा हूं। मेरी पहली ही किताब थी– ‘मनुस्मृति : एक प्रतिक्रिया’। मैंने हर तरह के जातिवाद यहां तक कि दलित पिछड़े वर्गों के जातिवाद पर भी चोट करता रहा हूं। सवर्ण आयोग के गठन का विरोध करने पर मुझे पार्टी और धारासभा (विधान परिषद) की मेम्बरी से बर्खास्त किया गया। मुझे केवल खेद प्रकट करने के लिए कहा गया था। मैंने नहीं किया। इसका मुझे थोड़ा गर्व है कि मैं अपने फैसले से डिगा नहीं। और प्रगतिशील लेखक संघ के लिए मैं जातिवादी और भ्रष्ट हूं।

मैं इस आरोप को सार्वजानिक कर रहा हूं।

फैसला आप देंगे।


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लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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