मतदान संसदीय लोकतंत्र की रीढ़ है और शासन-व्यवस्था तीन सीढ़ियों पर टिकी है। मसलन, संसद, विधान सभा और स्थानीय निकाय। इनके लिए प्रतिनिधियों का चुनाव मतों के आधार पर किया जाता है। संविधान यह कहता है कि चुनाव मैदान में सभी उम्मीदवारों को एक बराबर की स्थिति में खड़े होकर चुनावी प्रतिस्पर्द्धा में उतरना होता है। उम्मीदवारों के बीच बराबरी की स्थिति में मतदान के लिए नियम बनाए गए हैं। चुनाव के लिए आचार संहिता भी इनमें शामिल है। चुनाव आयोग को संवैधानिक अधिकार दिए गए हैं और उसे एक स्वतंत्र संस्था के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरा करने के लिए स्थापित किया गया है। चुनाव आयोग को ही संसद और विधान सभा के लिए साफ-सुथरा और स्वतंत्र मतदान की व्यवस्था करनी है। चुनाव प्रक्रिया की उसे निगरानी भी करनी है। इसके लिए सरकारी मशीनरी चुनाव पूरा होने तक उसके हवाले कर दी जाती है। लेकिन आयोग के लिए यह सब करना तभी संभव है जब उसमें निष्पक्ष बने रहने की ताकत हो और संविधान के प्रति प्रतिबद्धता हो।
यह अनुभव किया गया है कि राजनीतिक पार्टियां व उम्मीदवार के बीच यह होड़ होती है कि वह बराबर की स्थिति के बजाय अपने प्रतिद्वंदियों से चुनाव-प्रचार में भारी दिखें। यह काम वे संसाधनों का ज्यादा-से-ज्यादा इस्तेमाल कर करते हैं। संसाधन का स्रोत पैसा होता है और दबंगई भी होती है। चुनाव साफ-सुथरा यानी बोगस वोटिंग नहीं हो, मत पत्रों की गिनती में उलटफेर नहीं हो, मतदान ज्यादा से ज्यादा हो और समय की बचत हो, इसके लिए वोटर कार्ड बना। इस पर हर मतदाता की तस्वीर लगी रहती है। ईवीएम मशीन की बड़े पैमाने पर खरीद की गई और उसका रखरखाव करने में लोगों की मेहनत का पैसा खर्च किया जाता है।
इस तरह नई-नई तकनीक चुनाव प्रक्रिया में शामिल हुई है। टेलीविजन, रेडियो और दूसरे तरह की तकनीकें प्रचार करने के लिए चुनाव की प्रक्रिया में शामिल की गई हैं। 1951-52 में जब पहला चुनाव हुआ तब विधानसभा और लोकसभा के लिए एक साथ चुनाव हुए। तब कोई विकसित तकनीक नहीं थे। मतदान के लिए एक जगह से दूसरी जगह सामान ले जाने के लिए गाड़ियों और सड़कों का भी अभाव था। लेकिन तकनीकी विकास ने जल्दी-से-जल्दी मतदान केंद्रों तक साजो-समान और अधिकारियों व कर्मचारियों को सुदूर इलाके में तत्काल ही पहुंचना संभव बना दिया है। यानी चुनाव कई दिनों तक नहीं हो और कई चरणों में नहीं हो, इसके लिए संसाधन विकसित कर लिए गए हैं। लेकिन फिर भी जब कभी केवल छोटे-से-छोटे राज्य में विधानसभा के लिए चुनाव कराए जाते हैं तो वे कई चरणों में कराए जाते हैं। आखिर चरणों में चुनाव कराने के पीछे क्या राजनीति होती है? क्या चुनाव आयोग सत्ताधारी पार्टियों की सुविधा के अनुसार और हितों को ध्यान में रखकर मतदान के कार्यक्रम तय करने लगा है?
बिहार में विधानसभा के चुनाव कराने का वक्त आ गया है। इस वक्त देश में कहीं और चुनाव नहीं कराने हैं। ऐसे में बिहार का चुनाव कई चरणों में हो, इसके पक्ष में क्या तर्क दिए जा सकते हैं? जबकि विधानसभा की सीटें 243 रह गई हैं। झारखंड बनने से पहले बिहार में 324 सीटें थीं। ले-देकर चुनाव में कानून एवं व्यवस्था का प्रश्न खड़ा किया जाता है। इसके लिए पुलिस बल की जरूरत होती है। लेकिन बिहार के पास पर्याप्त पुलिस बल और सश्स्त्र बल है। देश में कहीं दूसरी जगह चुनाव नहीं हो रहे हैं तो केंद्र से अर्द्ध-सैनिक बल या सशस्त्र बलों की पूर्ति की जा सकती है।

पहली बात तो यह कि एक चरण से ज्यादा चरणों में बिहार के लिए मतदान कराने के पक्ष में कोई तर्क शेष नहीं रह जाता है। बिहार में चुनाव का अनुभव भी है कि जब कभी एक दिन में मतदान संपन्न हुआ है तब हिंसा की घटनाएं भी कम हुई हैं। जबकि कई चरणों में चुनाव के दौरान हिंसा की ज्यादा से ज्यादा घटनाएं हुई हैं। एक दिन के चुनाव में जो दबंगई और संसाधानों का दुरुपयोग कर साफ-सुथरे चुनाव को प्रभावित करने वाले समूह होते हैं, उनके सामने क्षेत्र विशेष में सिमट जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता है। मोबाइल बोगस वोटर और मोबाइल गिरोहों की सक्रियता को एक दिन के मतदान से सीमित कर दी जाती है। कई चरणों के मतदान में यह देखा गया है कि चुनाव प्रचार कई-कई दिनों तक चलता रहता है। किसी राज्य के एक हिस्से में मतदान होता है तो टेलीविजन और रेडियों के जरिए दूसरे हिस्से में होने वाले प्रचार से मतदान की कतार में लगे मतदाता प्रभावित होते रहते हैं। जब किसी क्षेत्र में मतदान हो रहा होता है तो सत्ताधारी दलों के नेता दूरदराज के किसी दूसरे क्षेत्र में किसी मंदिर या धार्मिक स्थल पर पहुंचकर टेलीविजन के जरिए मतदाताओं को प्रभावित करते हैं। यह स्पष्ट आकलन है कि कई चरणों के चुनाव में खर्चे बढ़ जाते हैं और राजनीतिक दलों के बीच दबंगई और पैसे का इस्तेमाल करने की होड़ बढ़ जाती है। आचार संहिता राज्य में लागू रहती है और कई दिनों तक के लिए लोगों के कामकाज प्रभावित हो जाते हैं।
एक और नई स्थिति बनी है। चुनावों के लिए रणनीति तैयार करने वाले पेशेवर लोग विभिन्न चरणों के लिए प्रचार की अलग-अलग रणनीति बनाते हैं। जैसे जिले के स्तर पर समाचार पत्रों के संस्करण छपते हैं। इसके जरिए एक ही राज्य में अलग-अलग हिस्सों के मतदाताओं को एक-दूसरे के हितों व अहितों में साझेदार बने रहने की भावना को खत्म किया जाता है। राज्य यानी प्रदेश गणतंत्र की व्यवस्था में एक संपूर्ण ईकाई है। इसमें विभिन्न दिशाओं में रहने वाले मतदाताओं के बीच राजनीतिक दलों और सरकार के लिए संवाद की स्थिति बनी रहती है। जब किसी एक या दो राज्य में चुनाव हो रहे हैं तो कई चरणों में मतदान की व्यवस्था के लिए चुनाव आयोग के पास संसाधनों को लेकर कोई तर्क नहीं हो सकता है। लेकिन यह देखा गया है कि स्वतंत्र और साफ-सुथरा चुनाव के लिए जब कभी भी नियम कानून या संहिता बनती है तो पार्टियां व उम्मीदवार उसका उल्लंघन करने का रास्ता खोजने लगते हैं। लेकिन ये वैसे उम्मीदवार या पार्टियां होती हैं जिनका लोकतंत्र की प्रक्रिया में भरोसा कम रहता है, जो कि समानता का मूल रूप से विरोधी होती हैं और असामनता की स्थिति को बनाए रखने की हर संभव कोशिश करती हैं। चुनाव में भी वह इसी तरह असमान स्थिति बनाकर अपने वर्चस्व को कायम रखना चाहती हैं। जबकि लोकतंत्र और संविधान बराबरी के उद्देश्य के लिए स्थापित हुआ है।
बिहार में एक चरण में चुनाव नहीं कराने का मकसद संविधान और लोकतंत्र की भावना से परे जाने के उद्देश्य के अलावा कुछ और नहीं हो सकता है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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