गत 19 सितंबर, 2025 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस विनोद दिवाकर की एकल पीठ ने जातीय पहचान आधारित भेदभाव पर चिंता ज़ाहिर करते हुए जो फ़ैसला दिया, उसकी गूंज दशकों दशक तक सूबे की सियासत और पुलिस महकमें में गूंजती रहेगी। इस दौरान जस्टिस दिवाकर ने महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं। मसलन, “जाति का महिमामंडन वस्तुतः ‘राष्ट्रविरोधी’ है”, “वंश पर नहीं, संविधान पर आस्था ही सच्ची देशभक्ति है”, “वंश पर गर्व संविधान में निहित समानता और बंधुत्व के मूल्यों का विकल्प नहीं हो सकता”, “राष्ट्र की गरिमा जाति से ऊपर है”, “2047 तक विकसित राष्ट्र के दृष्टिकोण को प्राप्त करने के लिए जाति का विनाश हमारे राष्ट्रीय एजेंडे का केंद्रीय हिस्सा होना चाहिए”। इसके अलावा यह कि “आधार, फिंगरप्रिंट और मोबाइल नंबर के युग में यह बहाना (पहचान में भ्रम से बचने के लिए जाति का इस्तेमाल) अब पुराना हो चुका है”। उन्होंने यह भी कहा कि “सोशल मीडिया अत्यधिक मर्दाना जातिगत पहचान का प्रतिध्वनि कक्ष बन चुका है”। वे यहीं नहीं रूके। उन्होंने कहा कि “इंस्टाग्राम रील्स और यूट्यूब शॉर्ट्स अक्सर जातिगत आक्रामकता और ग्रामीण मर्दानगी का रोमानीकरण करते हैं।”
इसके साथ ही जस्टिस दिवाकर ने उत्तर प्रदेश सरकार को एफआईआर, ज़ब्ती मेमो, गिरफ़्तारी और सरेंडर दस्तावेज़ों तथा थानों के बोर्ड से जाति कॉलम हटाने के निर्देश दिए। साथ ही निजी और सार्वजनिक वाहनों से जाति संबंधी नारे मिटाने के लिए वाहन नियमों में संशोधन के आदेश दिए। इसके अलावा उन्होंने आईटी एक्ट-2021 के तहत सोशल मीडिया पर जाति आधारित सामग्रियों पर कार्रवाई करने को कहा। साथ ही फ़ैसले की प्रतियां केंद्रीय गृह मंत्रालय, सड़क परिवहन मंत्रालय, आईटी मंत्रालय, और प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया को भेजने का आदेश दिया।
एक ख़बर के लिहाज़ से चीज़ें बस इतनी ही हैं, बेअसर और सपाट। लेकिन 28 पृष्ठों में 60 बिंदुओं और उपबिंदुओं में ज़ारी फ़ैसले की लिखित कॉपी हर्फ़-दर-हर्फ़ एक संवेदना का एक जीता-जागता प्रारूप है। जैसा कि ख़ुद जस्टिस दिवाकर ने भी कहा कि फ़ैसले में उनकी इन टिप्पणियों का एकमात्र उद्देश्य संवैधानिक नैतिकता को बढ़ावा देना और सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के मन में करुणा और न्याय की भावना जगाना है।
मामला क्या था?
जिस मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस दिवाकर ने उपरोक्त फैसला दिया, वह आईपीसी की धारा 420, 467, 468, 471 और एक्साइज एक्ट की धारा 60/63 के तहत, शराब तस्करी का एक मामला था, जिसे इटावा जिले के जसवंत नगर थाने में 2023 में दर्ज़ किया गया। घटना 29 अप्रैल, 2023 की रात घटित हुई। पुलिस टीम ने एक काली स्कार्पियो गाड़ी रोकी उसमें प्रवीण छेत्री समेत तीन लोग पकड़े गये। वाहन की तलाशी में 106 बोतल व्हिस्की बरामद हुई, जिस पर ‘केवल हरियाणा में बिक्री के लिए’ लिखा हुआ था। इस गाड़ी की नंबर प्लेट फर्ज़ी निकली। बरामदग़ी मेमो में आरोपियों की जाति माली, पहाड़ी राजपूत और ठाकुर के रूप में दर्ज़ की गयी। इन आरोपियों से मिली जानकारी के आधार पर एक और कार को रोका गया, जिसमें 254 बोतल व्हिस्की बरामद की गयी। दूसरी गाड़ी के मालिक की पहचान पंजाबी पाराशर, और ब्राह्मण जाति के रूप में की गयी। पुलिस रिपोर्ट के मुताबिक जब वाहन चालक और उसमें बैठे अन्य लोगों से शराब रखने और परिवहन का लाइसेंस दिखाने को कहा गया, तो वे ऐसा नहीं कर पाए और सभी ने एक स्वर में कहा कि वे शराब बेचकर अपना गुज़ारा करते हैं और प्रवीण क्षेत्री (आवेदक) उनके गिरोह का सरगना है। आरोपियों ने पुलिस को बताया कि वे हरियाणा से शराब लाते हैं और बिहार में ऊंची क़ीमत पर बेचकर मुनाफ़ा कमाते हैं, और आवाजाही के दौरान वे वाहन के नंबर प्लेट बदलते रहते हैं।
हाई कोर्ट को समर्पित हलफनामे में यूपी पुलिस ने किया था जातियों का जिक्र
मामले की सुनवाई के दौरान, हाई कोर्ट ने पाया कि जांच अधिकारी ने आरोपियों के नाम के साथ उनकी जातियों को भी दर्ज किया है। इसे देखते हुए 3 मार्च, 2025 को हाई कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक को एक व्यक्तिगत हलफ़नामा दाख़िल करने का निर्देश दिया गया, जिसमें जातिवादी समाज में एफआईआर में या पुलिस जांच के दौरान किसी संदिग्ध या व्यक्तियों के समूह की जाति लिखने की आवश्यकता और प्रासंगिकता को उचित ठहराया जाए, जहां सामाजिक विभाजन क़ानून प्रवर्तन प्रथाओं और जनता की धारणा को प्रभावित करता रहता है।
तत्कालीन पुलिस महानिदेशक ने अपने हलफनामे में अपने बचाव में कुछ दलीलें दीं। उन्होंने हाई कोर्ट को बताया कि सामान्यतः पुलिस एफआईआर या रिकवरी मेमो में आरोपी की जाति नहीं पूछती/बताती है। लेकिन ऐसा इसलिए है क्योंकि एक ही गांव या क्षेत्र में एक ही नाम के कई लोग हो सकते हैं। इसलिए, असली आरोपी की पहचान करना पुलिस के लिए बहुत महत्वपूर्ण कार्य हो जाता है। ऐसी स्थिति में भविष्य में किसी भी भ्रम से बचने के लिए, पुलिस अक्सर जाति लिखती है। रिकवरी मेमो तैयार करते समय, पुलिस अधिकारियों को क़ानून का पालन करना होता है, ख़ासकर एक्साइज और एनडीपीएस एक्ट से संबंधित मामलों में। इस मामले में, मेमो मौके पर ही तैयार किये गए और आरोपियों ने उन पर हस्ताक्षर किये। रिकवरी मेमो की एक प्रति आरोपी को मौके पर ही दे दी गई। ऐसी स्थिति में, आरोपी की पहचान के संबंध में किसी भी भ्रम से बचने के लिए, जांच अधिकारी ने आरोपी के बयान के अनुसार जाति लिखी होगी। पुलिस जाति, धर्म या निवास स्थान के आधार पर आरोपियों के साथ भेदभाव नहीं करती, क्योंकि जांच अधिकारी का एकमात्र उद्देश्य घटना के बारे में सच्चाई सामने लाना है ताकि असली अपराधी सलाखों के पीछे हों।

पुलिस आलाकमान के हलफ़नामे पर कोर्ट की प्रतिक्रिया
हाई कोर्ट ने पुलिस द्वारा जातीय पहचान के बचाव में दी गई तीन दलीलों की बिंदुवार व्याख्या की। उसने कहा कि पुलिस द्वारा आरोपी की पहचान जाति के आधार पर करने के दृष्टिकोण के संबंध में, यह क़ानूनी ग़लती है। 21वीं सदी के तीसरे दशक में भी, पुलिस पहचान के साधन के रूप में जाति पर निर्भर रहती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। यह तब और भी ग़लत है जब बॉडी कैमरा, मोबाइल कैमरा, फिंगरप्रिंट, आधार कार्ड, जैसे आधुनिक उपकरण और मोबाइल नंबर और माता-पिता की जानकारी (मां और पिता दोनों) उपलब्ध हैं। इसके अलावा, फॉर्म में पहले से ही आरोपी से संबंधित विस्तृत विवरण होते हैं। इनमें लिंग, जन्म की तारीख/वर्ष, कद, लंबाई (सेमी में), रंग, पहचान चिह्न, शारीरिक कमियां/विशेषताएं, दांत, बाल, आंखें, आदतें, पहनावा, भाषा/बोली, जले हुए निशान, लाइकेन, मस्से, घाव और टैटू (यदि कोई हो)। इसलिए, इस न्यायालय को पुलिस महानिदेशक की दलीलें सही नहीं लगतीं।
दूसरे मुद्दे (दलील) के संबंध में, पुलिस का दृष्टिकोण क़ानूनी रूप से सही नहीं है, क्योंकि लोक व्यवस्था (पुलिसिंग) राज्य का विषय है, और राज्य संविधान के जाति-मुक्त समाज के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, उसमें बदलाव करने का अधिकार रखता है। दुखद रूप से, राज्य ने संविधान की नैतिकता के अनुरूप कोई कदम नहीं उठाया है।
तीसरे मुद्दे पर समाज, सरकार और उसके अंगों के सामाजिक-मनोवैज्ञानिक व्यवहार पर जाति के प्रभाव की सावधानीपूर्वक जांच की आवश्यकता है। एक ऐसी जाति-व्यवस्था वाली समाज में, जहां गहरी सामाजिक विभाजन सार्वजनिक धारणा और क़ानून प्रवर्तन प्रथाओं को प्रभावित करते रहते हैं, पुलिस रिपोर्ट और सरकारी दस्तावेजों में जाति और धर्म को दर्ज़ करने की प्रथा की फिर से जांच करना आवश्यक और उचित हो जाता है।
जस्टिस दिवाकर ने संविधान सभा में बाबा साहेब के भाषण का उल्लेख किया
जस्टिस दिवाकर ने अपने फ़ैसले में संविधान सभा में 25 नवंबर, 1949 को डॉ. बी.आर. आंबेडकर के दिये गए प्रसिद्ध भाषण का उल्लेख करते हुए कहा कि उस भाषण पर फिर से विचार कर उभरते भारत, आत्मविश्वास से भरे भारत के उद्देश्य और आकांक्षाओं को पूरा किया जा सकता है; एक ऐसा राष्ट्र जो दूरदृष्टि से प्रेरित हो, नवाचार से सशक्त हो और अपने शाश्वत मूल्यों में निहित हो। डॉ. आंबेडकर ने कहा था–
“भारत में जाति-व्यवस्था है। जातियां राष्ट्र विरोधी हैं। सबसे पहले, वे सामाजिक जीवन में विभाजन पैदा करती हैं। वे इसलिए भी राष्ट्र विरोधी हैं क्योंकि वे जाति और जाति के बीच ईर्ष्या और शत्रुता पैदा करती हैं। लेकिन अगर हम वास्तव में एक राष्ट्र बनना चाहते हैं, तो हमें इन सभी कठिनाइयों पर काबू पाना होगा। भाईचारा तभी संभव है जब एक राष्ट्र हो। भाईचारे के बिना, समानता और स्वतंत्रता केवल दिखावा होगी।” डॉ. आंबेडकर ने आगे ज़ोर दिया कि “जाति ईंटों की दीवार या कांटेदार तार की तरह कोई भौतिक वस्तु नहीं है जो हिंदुओं को एक-दूसरे से मिलने से रोकती हो और जिसे इसलिए गिरा दिया जाना चाहिए। जाति एक धारणा है; यह मन की स्थिति है।”
जातीय मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों का उल्लेख
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस संदर्भ में कई महत्वपूर्ण फ़ैसलों की सारगर्भित टिप्पणियों का उल्लेख किया है। इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान की मूल विशेषता है। यह एक समावेशी, एकीकृत और जाति-मुक्त समाज की कल्पना करता है। संविधान ने जाति-व्यवस्था को पूरी तरह खत्म कर दिया है और क़ानून के समक्ष समानता की गारंटी दी है। अनुच्छेद 15(2) और 16(2) में जाति का उल्लेख केवल इसे खत्म करने के लिए है। जाति के आधार पर प्रतिबंध पूर्ण है; आदेश यह है कि इस देश में जाति कभी फिर सिर नहीं उठा पाएगी। जाति के आधार पर दुकानों में प्रवेश भी प्रतिबंधित है। भारत की प्रगति जातिवाद से समानता की ओर, सामंतवाद से स्वतंत्रता की ओर हुई है। संविधान के निर्माताओं द्वारा खत्म कर दी गयी जाति-व्यवस्था, विभिन्न रूपों में अपना सिर उठाने की कोशिश कर रही है। जाति धर्मनिरपेक्षता और परिणामस्वरूप देश की अखंडता के लिए गंभीर ख़तरा है। जो लोग इतिहास से सबक नहीं सीखते, उन्हें फिर से दुख झेलना होगा। इसलिए, भारत के लोगों के लिए संविधान के नियमों और सिद्धांतों का पालन करना बहुत ज़रूरी है। संविधान ने इस देश को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाया है और सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, समान अवसर और समान स्थिति का अधिकार देने का वादा किया है।
अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह पुष्टि की है कि जाति-मुक्त समाज बनाना संविधान का मुख्य उद्देश्य है। इसके अलावा, राजस्थान राज्य बनाम गौतम (मोहनलाल का पुत्र) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब कोर्ट मामले की सुनवाई करता है तो आरोपी की कोई जाति या धर्म नहीं होता। कोर्ट ने ज़ोर देकर कहा कि ऐसी जानकारी फैसले के शीर्षक में नहीं होनी चाहिए और इस प्रथा को बंद कर देना चाहिए। कोर्ट ने यह भी कहा कि उसे समझ नहीं आया कि हाई कोर्ट और ट्रायल कोर्ट के फ़ैसलों के शीर्षक में आरोपी की जाति क्यों लिखी गई। किसी भी मामले में शामिल व्यक्ति की जाति या धर्म का ज़िक्र फैसले के शीर्षक में कभी नहीं होना चाहिए। कोर्ट हैरान था कि 14 मार्च 2023 के अपने पहले आदेश के बावजूद कि ऐसी प्रथा कभी नहीं अपनाई जानी चाहिए, यह अभी भी ज़ारी है।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति में जाति भी एक कारक रही है
जस्टिस विनोद दिवाकर ने अपने फ़ैसलें में जॉर्ज एच. गैडबोइस, जूनियर की पुस्तक “भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश, 1950-1989” की चर्चा करते हुए कहा कि इस किताब में 1952 से 1989 के मध्य तक सर्वोच्च न्यायालय में सेवा करने वाले पहले 93 न्यायाधीशों में से प्रत्येक के बारे में जीवनी संबंधी लेख हैं। इन जीवनी संबंधी लेखों की सामग्री केवल न्यायाधीशों से बातचीत करके ही एकत्र की गई थी। पुस्तक के दूसरे भाग का अध्याय II जाति के बारे में है। यह “भारतीय सामाजिक जीवन में सबसे महत्वपूर्ण अंतरकारक जाति, माता-पिता के व्यवसाय की तुलना में सामाजिक मूल और वर्ग का बेहतर सूचक है…” से शुरू होती है और पुस्तक इस कथन के साथ समाप्त होती है कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति में जाति भी एक कारक रही है। सभी मामलों में नहीं, लेकिन कुछ मामलों में, और विश्लेषण इस अवलोकन के साथ समाप्त हुआ कि… “सभी या लगभग सभी देशों में सर्वोच्च पद के न्यायाधीश अपने देश के सामाजिक स्वरूप के प्रतिनिधि नहीं होंगे।
जस्टिस एस. मुरलीधर द्वारा संपादित ‘(इन) कंप्लीट जस्टिस? द सुप्रीम कोर्ट एट 75’ में शीर्षक से एक किताब प्रकाशित हुई थी। इस किताब में प्रोफेसर जी. मोहन गोपाल का एक निबंध ‘सर्वोच्च लेकिन जाति समर्थक : भारत के सुप्रीम कोर्ट की क़ानून-व्यवस्था कैसे भारत की जाति व्यवस्था को संरक्षित और सुरक्षित करती है’, शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। इस निबंध के पहले पैराग्राफ में वो डॉ. बी.आर. आंबेडकर के शब्दों का उल्लेख करते हैं, जिन्होंने चेतावनी दी थी : “कुछ लोग कहते हैं कि उन्हें केवल अस्पृश्यता समाप्त करने से संतुष्टि मिलनी चाहिए, जाति व्यवस्था को वैसे ही रहने दें। जाति व्यवस्था में निहित असमानताओं को समाप्त करने का प्रयास किये बिना केवल अस्पृश्यता को समाप्त करने का लक्ष्य काफ़ी निम्न लक्ष्य है।”
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों से उदाहरण देते हुए, प्रोफेसर गोपाल कोर्ट के जाति के प्रति दृष्टिकोण की आलोचना करते हुए लिखते हैं कि इसने वास्तव में जाति व्यवस्था को संरक्षित और सुरक्षित किया है। उनके निम्नलिखित चयनित पैराग्राफ़ का उल्लेख फ़ैसले में किया गया है– “जाति-मुक्त समाज के बारे में अपने बयानों के बावजूद, अपने अस्तित्व के 75 वर्षों में, सुप्रीम कोर्ट ने जाति व्यवस्था की रक्षा और संरक्षण किया है। यह दो तरीक़ों से एक बाधा रहा है। पहला, तीन मूल क़ानूनी अवधारणाओं (जाति, धर्म और हिंदू) कोअनुचित रूप से पुनः परिभाषित करके; और दूसरा, आरक्षण को कमज़ोर करके, जो डॉ. आंबेडकर की सोच के अनुसार, जाति को खत्म करने का संवैधानिक हथियार है।”
जाति व्यवस्था एक राजनीतिक शासन प्रणाली है
हाई कोर्ट ने अपने फ़ैसले में आगे लिखा– “चूंकि जाति व्यवस्था व्यक्तियों और सामाजिक समूहों के अधिकारों को देने, छीनने और नियंत्रित करने का एक तंत्र है, इसलिए यह एक धार्मिक या सामाजिक व्यवस्था के बजाय एक राजनीतिक शासन प्रणाली है। असल में, वर्ण-जाति व्यवस्था असमान नागरिकता की एक प्रणाली है। शासन प्रणाली को अधिकारों, दावों, विशेषाधिकारों, अक्षमताओं और दायित्वों को परिभाषित और नियंत्रित करके शक्ति के वितरण और लोगों के शासन के लिए संस्थाओं की स्थापना और संचालन के लिए एक ढांचा के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। ये वर्ण-जाति व्यवस्था के व्यावहारिक कार्य हैं। इसलिए, वर्ण-जाति व्यवस्था को भी उसके मूल स्वरूप में मान्यता दी जानी चाहिए : एक शासन प्रणाली।
उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता की प्रथा को समाप्त करता है, रोकता है और इसे अपराध बनाता है, और अनुच्छेद 25 धर्म की स्वतंत्रता को ‘व्यक्ति’ को देता है, न कि समूहों को। यह वर्ण व्यवस्था की एक मज़बूत अस्वीकृति है, जो व्यक्ति को समूह के सदस्य के रूप में ही पहचानती है और सभी दावे, विशेषाधिकार, दायित्व और क्षमताएं केवल समूहों को देती है। इसके अलावा, अनुच्छेद 25 धर्म के अधिकार को अन्य मौलिक अधिकारों के अधीन करता है।”
वाहनों, दुकानों और नारों में जातिगत गर्व का प्रदर्शन पर रोक
जातीय श्रेष्ठताबोध के अत्याधुनिक हथियारों की शिनाख़्त करते हुए न्यायमूर्ति विनोद दिवाकर कहते हैं– “जातिगत गर्व अक्सर पहचान से नहीं, बल्कि असुरक्षा से जुड़ा होता है; इतिहास से नहीं, बल्कि वर्चस्व से। यह शिक्षा प्रणाली, क़ानून प्रवर्तन और राजनीतिक वर्ग की इस बात की विफलता को दर्शाता है कि वे संविधान के मूल्यों को, जैसे भाईचारा, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता व अखंडता को, समाज में नहीं अपना पाये। जातिगत संगठन और समूह अपनी जातिगत पहचान को स्थापित करने, राजनीतिक माहौल को प्रभावित करने , संसाधनों पर अधिकार बनाए रखने से लेकर रीति-रिवाजों और यहां तक कि मंदिरों और श्मशान में प्रवेश की सुविधा पर नियंत्रण रखने के लिए एकजुट रहते हैं। ऐसे में, योग्यता के आधार पर उचित व्यवहार और मेहनत की इज्जत की उम्मीद करना भी मुश्किल है। सार्वजनिक और डिजिटल जगहों पर जातिगत पहचान के चिह्नों का पुनरुत्थान कोई सांस्कृतिक घटना नहीं है– यह सामाजिक शक्ति का एक छिपा हुआ प्रदर्शन है जो भारत के संवैधानिक मूल्यों के ख़िलाफ़ है। उत्तर भारत में– उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश व बिहार के कुछ हिस्सों में– लोग अक्सर अपनी कारों, मोटरसाइकिलों और कभी-कभी घरों पर जातिगत पहचान के चिह्न लगाते हैं। गाड़ियों पर जातिगत प्रतीक, नारे या चेतावनी वाले संदेश भी लिखे होते हैं।”
सोशल मीडिया जातीय प्रदर्शन का मंच
सोशल मीडिया के ज़रिए मनोरंजन के रूप में स्थापित होती मर्दाना जातिगत पहचान के ख़तरे को रेखांकित करते हुए जस्टिस दिवाकर ने कहा कि इंस्टाग्राम, यूट्यूब शॉर्ट्स और फेसबुक रील्स जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म के बढ़ने से जाति से जुड़े युवा लोगों को अपनी प्रतिभा दिखाने का एक मंच मिल गया है। ये रील्स अक्सर जातिगत टकराव और वर्चस्व, ग्रामीण मर्दानगी और पुरानी मान-सम्मान की सोच को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाती हैं। इस तरह के व्यवहार के सामाजिक-मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक और क़ानूनी पहलू बताते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्रों में जाति का ज़ोर संवैधानिक नैतिकता को कैसे कमज़ोर करता है और ऐतिहासिक श्रेष्ठतावाद और आधुनिक असुरक्षा में जड़ी पहचान संकट को कैसे दिखाता है। सोशल मीडिया अति-मर्दाना जातिगत पहचान, ऐतिहासिक मिथ्याकरण (जैसे, सामंती शासकों या जाति-आधारित राजनीतिक नेताओं की महिमा) का एक इको चैंबर बन गया है। यह जाति से जुड़ी जहरीली डिजिटल मर्दानगी को बढ़ावा देता है, जो आधुनिक तरीके से परंपरा को हथियार बनाती है। डिजिटल जातिगत अहंकार युवाओं के सोच-विचार पर और भी असर डाल रहा है, जिससे भाईचारे और एकता की संवैधानिक नैतिकता कमज़ोर हो रही है। राजनीतिक इच्छाशक्ति, नौकरशाही व्यवस्था और क़ानून प्रवर्तन एजेंसियां इस सामाजिक चलन से अंजान नहीं हैं। इसके कारण वे ही बेहतर जानते हैं; या तो उन्होंने इसे नए भारत का भविष्य मान लिया है, या उनकी सोच और सामाजिक मानसिकता जातिगत अहंकार से प्रभावित हो गई है। पुलिस और अन्य क़ानून प्रवर्तन एजेंसियां भी इन सामाजिक पूर्वाग्रहों से अछूती नहीं हैं। वे अक्सर जातिगत पूर्वाग्रहों को दर्शाती हैं, दोहराती हैं और कभी-कभी बढ़ा-चढ़ाकर दिखाती हैं। भारत में जातिगत सोच से प्रभावित क़ानून प्रवर्तन अधिकारियों के व्यवहार से निपटने के लिए यह ज़रूरी हो जाता है, जिसमें सामाजिक मनोविज्ञान और मौजूदा मामलों में दिखने वाले व्यवहार पैटर्न की जानकारी शामिल हो। यह शिक्षा और न्याय विभागों में भेदभाव और अलगाव से स्पष्ट है जो पूरे भारत में आम है, और शिक्षा, जीवन के अवसरों और न्याय वितरण प्रणाली में असमानता को बढ़ावा देता है। क़ानून प्रवर्तन अधिकारियों का व्यवहार – मौजूदा मामले के तथ्यों और अन्य मामलों से पता चलता है – मन में बनी जातिगत सोच को दर्शाता है, क्योंकि इस पर कोई क़ानूनी रोक नहीं थी।
समाज के विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग को प्राथमिकता देना राष्ट्रीय एकता को कमज़ोर करता है
बहरहाल, जस्टिस विनोद दिवाकर ने आगे कहा कि आरोपी को न्याय दिलाने के लिए जांच अधिकारी को आरोपी की जाति का उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं होती है, फिर भी जांच अधिकारी ने विवादित एफआईआर और तलाशी व ज़ब्ती मेमो में आरोपी की जाति का उल्लेख किया है, जो भारत में संवैधानिक लोकतंत्र के सामने सबसे गंभीर चुनौतियों में से एक को उजागर करता है। यह दर्शाता है कि जाति की समस्या केवल समाज या धर्म में नहीं है, बल्कि राज्य के मानसिक ढांचे में भी है। क़ानूनी और संस्थागत सुधारों के साथ-साथ क़ानून की रक्षा करने वालों के मन में नैतिक और मनोवैज्ञानिक क्रांति भी होनी चाहिए। तभी हम जाति व्यवस्था को खत्म करने की उम्मीद कर सकते हैं जो भारत की न्याय प्रणाली को प्रभावित करती है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 धर्म, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव से भारतीयों की रक्षा करता है। फिर भी, भारतीय संविधान लागू होने के लगभग 75 साल बाद भी, राज्य की महत्वपूर्ण और प्रभावशाली संस्थाएं अभी भी एक भ्रष्ट प्रणाली से प्रभावित हैं जो अक्सर कथित ‘स्वतंत्रता’ और ‘पारदर्शिता’ के नाम पर ग़ैर-नैतिक जाति, लिंग और धर्म के आधार पर भेदभाव करती हैं। समाज के विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग को प्राथमिकता देना हमारी राष्ट्रीय एकता को कमज़ोर करता है और योग्यता और मेहनत को प्रभावित करता है। किसी व्यक्ति की मेहनत, क्षमता और उपलब्धि को एक हानिकारक ढांचे से प्रभावित होकर कम नहीं आंकना चाहिए। किसी व्यक्ति की मेहनत और योग्यता को इसलिए कलंकित, अपमानित या अवसरों से वंचित नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि वह विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग से नहीं है। अहंकार के पीछे की मानसिकता एक मिथक है, और संवैधानिक संस्थाओं को इसे खत्म करना चाहिए।
(संपादन : नवल/अनिल)
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