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पिछड़ी जातियों के जैसे अनुसूचित जाति का भी होगा उपवर्गीकरण, सुप्रीम कोर्ट ने 6-1 के बहुमत के आधार पर सुनाया फैसला

पंजाब सरकार ने एक कानून बनाया था– पंजाब शेड्यूल्ड कास्ट एंड बैकवर्ड क्लासेज (रिजर्वेशन इन सर्विसेज) एक्ट, 2006। इसमें कहा गया था कि खुली नियुक्ति के मामले में अनुसूचित जाति के लिए दिए गए आरक्षण के कोटे में से 50 प्रतिशत आरक्षण वाल्मीकि और मजहबी सिक्खों को दिया जाएगा। पढ़ें, यह खबर

पिछड़ा वर्ग के उपवर्गीकरण के जैसे अब अनुसूचित जाति का भी उपवर्गीकरण किया जा सकेगा। इस संबंध में एक अहम फैसला सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय पीठ ने आज सुनाया। पीठ ने 6-1 के बहुमत से सुनाए अपने फैसले में कहा कि अनुसूचित जाति का उपवर्गीकरण संविधानसम्मत है और जो अधिक पिछड़े हैं उनके लिए आरक्षण कोटा तय हो। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद राज्य अब अनुसूचित जाति को दिए आरक्षण में वैसे ही बंटवारा कर सकते हैं, जैसे कि पिछड़े वर्ग के मामले में अति पिछड़ा के रूप में किया जाता है।

वेब पत्रिका ‘लाइव लॉ’ द्वारा प्रकाशित खबर के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ, जिसमें जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पंकज मित्तल, जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी और जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल रहे, ने यह अहम फैसला सुनाया। 

पीठ ने कहा कि इंपीरीकल डाटा (सर्वेक्षण के आधार पर आधिकारिक आंकड़े) के आधार राज्य उपवर्गीकरण कर सकती है ताकि पीछे रह गए लोगों को आरक्षण का लाभ मिल सके। इस प्रकार पीठ ने वर्ष 2004 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस ईवी चिनैय्या के फैसले को पलट दिया, जिसमें कहा गया था कि अनुसूचित जाति कोटे का उपवर्गीकरण नहीं किया जा सकता। हालांकि इस मामले में जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी ने पीठ के विपरीत फैसला दिया।

सुप्रीम कोर्ट, नई दिल्ली

दरअसल, सात जजों की पीठ दो सवालों पर विचार कर रही थी। पहला यह कि आरक्षित जातियों में उपवर्गीकरण को अनुमति दी जा सकती है या नहीं? दूसरा यह कि अनुसूचित जाति को एक समूह मानने संबंधी जस्टिस चिनैय्या के फैसले को उचित माना जा सकता है?

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने अपना फैसला तीन दिनों की सुनवाई के बाद इस वर्ष 8 फरवरी को सुरक्षित रख लिया था। तभी से यह अनुमान लगाया जा रहा था कि सुप्रीम कोर्ट एससी कोटे में सबकोटे को मंजूरी दे सकती है।

खैर, मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा कि अनुसूचित जाति को एक समूह नहीं माना जाना चाहिए। उपवर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के विचार का उल्लंघन नहीं करता है। साथ ही यह अनुच्छेद 341 (2) का उल्लंघन भी नहीं करता है, जिसके तहत जातियों को अनुसूचित जातियों का दर्जा दिया जाता है। इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो राज्य को किसी जाति के उपवर्गीकरण से रोके।

वहीं जस्टिस बीआर गवई ने अपने फैसले में कहा कि यह राज्य की जिम्मेदारी है कि जो अधिक पिछड़े हैं, उन्हें समुचित प्रतिनिधित्व दे। एससी और एसटी समुदायों में कुछ ही लोग हैं, जो आरक्षण का लाभ ले रहे हैं। जो जमीनी सच्चाई है, उससे इंकार नहीं किया जा सकता है। एससी और एसटी में कई वर्ग हैं जो सदियों से वंचना के शिकार हैं।

बताते चलें कि वर्ष 2004 में जस्टिस चिनैय्या ने अपने फैसले में कहा था कि अनुच्छेद 341 अनुसूचित जातियों को आरक्षण दिए जाने का आधार है। इसे गलत कहते हुए सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय पीठ ने कहा कि यह केवल आरक्षण देने के उद्देश्य से जातियों की पहचान करने के संबंध में है। 

इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट की सात पीठ की एक सदस्य जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी ने बहुमत के विपरीत अपने फैसले में कहा कि अनुसूचित जातियों की सूची राष्ट्रपति के द्वारा संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत अनुमोदित है और इसलिए इसमें राज्यों के द्वारा संशोधन नहीं किया जा सकता है। राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित सूची में से किसी जाति को बाहर करना या फिर उसमें शामिल करने के लिए संसद के द्वारा कानून बनाकर ही किया जा सकता है। उपवर्गीकरण राष्ट्रपति के द्वारा अनुमोदित सूची में बदलाव ला सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि अनुच्छेद 341 का उद्देश्य यह भी था कि एससी-एसटी सूची का राजनीतिक उद्देश्यों के लिए दुरुपयोग न हो।

उल्लेखनीय है कि यह मामला 2020 में पांच जजों की पीठ के द्वारा सात सदस्यीय पीठ को हस्तांतरित किया गया था। यह मामला था पंजाब सरकार बनाम देवेंदर सिंह। दरअसल पंजाब सरकार ने एक कानून बनाया था– पंजाब शेड्यूल्ड कास्ट एंड बैकवर्ड क्लासेज (रिजर्वेशन इन सर्विसेज) एक्ट, 2006। इसमें कहा गया था कि खुली नियुक्ति के मामले में अनुसूचित जाति के लिए दिए गए आरक्षण के कोटे में से 50 प्रतिशत आरक्षण वाल्मीकि और मजहबी सिक्खों को दिया जाएगा। जब राज्य सरकार के इस फैसले को चुनौती दी गई तब वर्ष 2010 में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने जस्टिस चिनैय्या के जजमेंट के आधार पर इसे खारिज कर दिया था।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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