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रोज केरकेट्टा, एक विद्वान लेखिका और मानवाधिकार की उद्भट सिपाही

रोज दी जितनी बड़ी लेखिका थीं और उतनी ही बड़ी मानवाधिकार के लिए लड़ने वाली नेत्री भी थीं। वह बेहद सरल और मृदभाषी महिला थीं। जिस वक्त झारखंड में महिला अधिकारों की कोई चर्चा नहीं होती थी उस समय रोज दी ने महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए जागरूक बनाने का काम किया। स्मरण कर रहे हैं देवेंद्र शरण

रोज केरकेट्टा नहीं रहीं। लेकिन उनकी सृजनशीलता, उनका बहुआयामी व्यक्तित्व हम सबों के बीच खुश्बू बिखेर रहा है। वह सहृदय शिक्षिका, हिंदी और खड़िया की एक विद्वान लेखिका, आंदोलनकारी और क्रांतिकारी के साथ ही मानवाधिकार की उद्भट सिपाही थीं।

रोज केरकेट्टा का जन्म तत्कालीन बिहार (अब झारखंड) के सिमडेगा जिला के कईसरा सुंदरा टोली गांव में खड़िया आदिवासी समुदाय के परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम एतो खड़िया उर्फ प्यारा केरकेट्टा और माता का नाम मार्था केरकेट्टा था। प्यारा केरकेट्टा एक लोकप्रिय शिक्षक, समाजसुधारक, संस्कृति संरक्षक और सजग राजनीतिज्ञ थे।

प्यारा केरकेट्टा के दो पुत्र प्रदीप कुमार सोरेंग और क्रिस्टोफर केरकेट्टा तथा चार पुत्रियां रोशनी (दिवंगत), ग्लोरिया सोरेंग, शशि केरकेट्टा और रोज केरकेट्टा थीं। अपने पिता प्यारा केरकेट्टा की तरह ही रोज ने अपनी आजीविका के लिए शिक्षिका का जीवन अपनाया। उनका विवाह सुरेशचंद्र टेटे से हुआ था। उनकी पुत्री वंदना टेटे भी एक आंदोलनकारी हैं और एक पुत्र सोनल प्रभंजन टेटे हैं।

झारखंड में प्रमुख पांच आदिवासी समुदाय हैं, जिनमें संथाल, मुंडा, उरांव, हो, और खड़िया शामिल हैं। इन में खड़िया आदिवासियों की आबादी सबसे कम है।

रोज केरकेट्टा को लोग प्यार से ‘रोज दी’ पुकारते थे। उनकी स्कूली शिक्षा कोंडरा (गुमला जिला), खूंटी टोला और सिमडेगा जिला में हुई। स्नातक की शिक्षा उन्होंने बी.ए. कॉलेज सिमडेगा से तथा एमए की पढ़ाई रांची विश्वविद्यालय, रांची से पूरी की। उन्होंने डॉ. दिनेश्वर प्रसाद के निर्देशन में ‘खड़िया लोक कथाओं का साहित्यिक और सांस्कृतिक अध्ययन’ विषय पर रांची विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। 

डॉ. रोज केरकेट्टा (5 दिसंबर, 1940 – 17 अप्रैल, 2025)

रोज केरकेट्टा ने 1966 में माध्यमिक विद्यालय, लबड़ा से अध्यापन शुरू किया। फिर सिमडेगा कॉलेज, बीएन कॉलेज सिसई (1977-82) और अंततः डॉ. राम दयाल मुंडा की अध्यक्षता में जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग रांची विश्वविद्यालय, रांची में दिसंबर, 1982 से वर्ष 2000 तक अध्यापन कार्य किया।

रोज केरकेट्टा विगत आधे शताब्दी से अधिक समय से आदिवासियों के सामाजिक विकास, शिक्षा और महिलाओं के समग्र उत्थान के लिए लगातार कार्यरत रही। खासकर आदिवासी महिलाओं की समस्या डायन प्रथा, संपत्ति पर अधिकार ना होना और समाज में महिलाओं के प्रति भेदभाव को लेकर बराबर आंदोलनरत रहीं। झारखंड में बड़ी-बूढ़ी महिलाओं को डायन कहकर अपमानित करना और जान से मार देना एक बड़ी समस्या रही है। आदिवासियों का विस्थापन, पलायन, उत्पीड़न जिसके कारण महिलाएं खासतौर पर अधिक भुक्तभोगी रही हैं। आदिवासी महिलाओं के पलायन और विस्थापन को लेकर रोज केरकेट्टा सबसे अधिक मुखर रहीं। आदिवासी महिलाओं के साथ आए दिन यौन उत्पीड़न और कार्यस्थलों में भेदभाव के कारण उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है, जिसको लेकर भी रोज केरकेट्टा मुखर रहीं।

झारखंड में आदिवासी महिलाओं के लिए पैतृक संपत्ति पर अधिकार नहीं है। जल, जंगल और जमीन से जुड़ी महिलाओं के लिए आजिविका जुटान मुश्किल होता गया है। खनन क्षेत्रों में मानवाधिकारों का हनन एक बड़ा सवाल रहा। रोज केरकेट्टा इन सवालों को लेकर सदैव आंदोलनरत रहीं।

इस दिशा में पहल करते हुए रोज केरकेट्टा ने 1986 में महिला सम्मेलन का आयोजन किया और 1986 से लेकर 1989 तक अनेक संस्थाओं व संगठनों का संचालन किया।

राष्ट्रीय स्तर पर भी रोज केरकेट्टा की अत्यंत महत्वपूर्ण भागीदारी रहीं। राष्ट्रीय नारी मुक्ति संघर्ष के बैनर तले उन्होंने रांची, पटना और कलकत्ता में हुए आंदोलनों में भागीदार रहीं। मानवाधिकारों के हनन के सवाल पर भी उन्होंने मुंबई, बैंगलोर, दिल्ली, कोलकाता और छत्तीसगढ़ में हुए आंदोलनों में भाग लिया।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने बर्लिन में आयोजित आदिवासी दशक वर्ष के उद्घाटन समारोह में 1994 में भाग लिया। इसके अलावा उन्होंने एशिया पैसिफिक वीमेन लॉ एंड डेवलेपमेंट कार्यशाला, चेन्नई 1993 को संबोधित किया था।

शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में रोज केरकेट्टा का योगदान हिंदी साहित्य और खड़िया साहित्य दोनों में महत्वपूर्ण है।

उन्होंने प्रेमचंद की कहानियों का खड़िया में अनुवाद किया। जिसका नाम रखा – ‘प्रेमचंदाअ लुङकोय’। उनकी प्रकाशित कहानी संग्रहों में ‘सिंकोय सुलोओ’ (खड़िया कहानी संग्रह), ‘पगहा जोरी-जोरी रे घाटो’, तथा ‘बिरुवार गमछा तथा अन्य कहानियां’ शामिल हैं। उनकी अन्य प्रकाशित कृतियों में ‘हेपड़ अवकडिञ बेर’, ‘अबसिब मुरडअ’ (दोनों खड़िया कविता संग्रह) शामिल हैं। इसके अलावा ‘सेंभो रो डकई’ (खड़िया लोक गाथा), ‘अब सिव मूरडअ’ (खड़िया कविता संग्रह) और ‘स्त्री महागाथा की महज एक पंक्ति’ (वैचारिक निबंधों का संग्रह) जैसी कृतियां उनकी थाती रहीं। उन्होंने विगत कई वर्षों तक महिला त्रैमासिक पत्रिका ‘आधी दुनिया’ का संपादन भी किया।

उनके योगदानों के लिए उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया गया, जिनमें मध्य प्रदेश सरकार द्वारा रानी दुर्गावती सम्मान भी शामिल है। 

रोज दी जितनी बड़ी लेखिका थीं और उतनी ही बड़ी मानवाधिकार के लिए लड़ने वाली नेत्री भी थीं। वह बेहद सरल और मृदभाषी महिला थीं। जिस वक्त झारखंड में महिला अधिकारों की कोई चर्चा नहीं होती थी उस समय रोज दी ने महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए जागरूक बनाने का काम किया। उनकी कमी हमेशा खलेगी।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

देवेन्द्र शरण

लेखक रांची विश्वविद्यालय, रांची के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं। उनकी प्रकाशित कृतियों में ‘शेड्यूल्ड कास्ट्स इन दी फ्रीडम स्ट्रगल ऑफ इंडिया’ (1999), ‘भारतीय इतिहास में नारी’ (2007), ‘नारी सशक्तिकरण का इतिहास’ (2012) और ‘मेरे गीत आवारा हैं’ (काव्य संग्रह, 2009) शामिल हैं।

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