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इन कारणों से बौद्ध दर्शन से प्रभावित थे पेरियार

बुद्ध के विचारों से प्रेरित होकर पेरियार ने 27 मई, 1953 को ‘बुद्ध उत्सव’ के रूप में मनाने का आह्वान किया, जिसे उनके अनुयायियों ने पूरे तमिलनाडु में व्यापक रूप से अपनाया। अगले वर्ष पेरियार ने अपने नगर इरोड में स्वयं ‘बुद्ध कॉन्फ्रेंस’ का आयोजन किया। पढ़ें, अभय कुमार का यह आलेख

बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष

इरोड वेंकट रामासामी पेरियार (17 सितंबर, 1879 – 24 दिसंबर, 1973) के नेतृत्व में चला आत्म-सम्मान आंदोलन जाति-व्यवस्था के ख़िलाफ़ एक संघर्ष था। पेरियार भली-भांति समझते थे कि जब तक वंचित समाज धर्म के अंधविश्वासों और निरर्थक कर्मकांडों से मुक्त नहीं होगा, तब तक शोषण की जंजीरों से भी मुक्ति असंभव है। जाेतीराव फुले और डॉ. आंबेडकर की तरह, पेरियार का भी यह मानना था कि ब्राह्मणवादी धार्मिक ग्रंथों के समर्थन के कारण ही जाति-व्यवस्था इतनी सुदृढ़ बनी हुई है। इसी सोच के तहत उन्होंने दलितों और पिछड़ी जातियों को अवैज्ञानिक प्रथाओं को त्यागने और तर्कसंगत सोच अपनाने का आह्वान किया। उनका मानना था कि पुरोहित वर्ग ने रूढ़िवाद और अंधविश्वास फैलाकर समाज को मानसिक रूप से गुलाम बना रखा है। पेरियार की इस मुहिम में बौद्ध विचारधारा ने एक क्रांतिकारी भूमिका निभाई, जिसने उनके आंदोलन को वैचारिक शक्ति और दिशा प्रदान की।

पेरियार जहां तमिलनाडु के समानता समर्थक दार्शनिकों से गहराई से प्रभावित थे, वहीं उन्होंने पश्चिम के क्रांतिकारी तर्कवादी लेखकों और मार्क्सवादी विचारकों से भी प्रेरणा ली। इसके साथ ही, बौद्ध दर्शन का उनके चिंतन पर विशेष प्रभाव पड़ा। बुद्ध के विचारों से प्रेरित होकर उन्होंने 27 मई, 1953 को ‘बुद्ध उत्सव’ के रूप में मनाने का आह्वान किया, जिसे उनके अनुयायियों ने पूरे तमिलनाडु में व्यापक रूप से अपनाया। अगले वर्ष पेरियार ने अपने नगर इरोड में स्वयं ‘बुद्ध कॉन्फ्रेंस’ का आयोजन किया। 23 जनवरी, 1954 को आयोजित इस सम्मेलन में देश-विदेश से अनेक प्रतिष्ठित बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया।

बुद्ध के प्रति अपने लगाव के चलते पेरियार ने बर्मा (म्यांमार) की राजधानी रंगून की यात्रा की। 3 दिसंबर, 1954 को आयोजित विश्व बौद्ध सम्मेलन में वे सक्रिय रूप से भागीदारी के लिए पहुंचे, जहां उनकी भेंट डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर से भी हुई। द्रविड़र कड़गम के महासचिव और पेरियार विचारधारा के प्रमुख व्याख्याता के. वीरमणि के अनुसार, पेरियार और आंबेडकर की यह मुलाक़ात 5 दिसंबर,1954 को संपन्न हुई, जिसमें दोनों महापुरुषों के बीच एक घंटे से अधिक समय तक गंभीर और व्यापक संवाद हुआ। यह संभवतः पेरियार और आंबेडकर की अंतिम मुलाक़ात थी, क्योंकि इसके लगभग दो वर्षों के भीतर डॉ. आंबेडकर का परिनिर्वाण हो गया।

आगामी वर्षों में भी पेरियार लगातार अपने अनुयायियों और समर्थकों से अपील करते रहे कि वे बुद्ध जयंती को पूरे उत्साह के साथ मनाएं। एक उदाहरण के तौर पर, उन्होंने तमिल दैनिक “विडुतलाई” (4 अप्रैल, 1956) में लिखा– “मैं द्रविड़र कड़गम के सदस्यों और सभी अन्य लोगों से अनुरोध करता हूं कि वे चेन्नई तथा तमिलनाडु के सभी भागों में बुद्ध की 2500वीं जयंती को भव्य रूप से मनाएं और उनके उपदेशों का इस प्रकार प्रचार-प्रसार करें कि सभी लोग उन्हें अपने हृदय में आत्मसात कर लें।”

सोशलिस्ट नेता डॉ. राममनोहर लोहिया से मुलाक़ात के बाद पेरियार ने वर्ष 1959 में उत्तर भारत की यात्रा की। इस दौरान उन्होंने दिल्ली, लखनऊ और कानपुर सहित अनेक स्थानों पर जनसभाओं को संबोधित किया और अपने भाषणों में बुद्ध के विचारों की प्रासंगिकता और महत्ता को विशेष रूप से रेखांकित किया। तमिल दैनिक ‘विडुतलाई’ (21 फ़रवरी, 1959) में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, पेरियार ने अपने वक्तव्यों में जाति व्यवस्था की अन्यायपूर्ण संरचना और शोषण से मुक्ति पाने के उपायों पर बल देते हुए दलितों और पिछड़े वर्गों को बुद्ध की राह अपनाने की सलाह दी।

इसी क्रम में, 15 मई, 1957 को चेन्नई के एग्मोर में आयोजित महाबोधि संगम में पेरियार ने बुद्ध की 2501वीं जयंती के अवसर पर भाग लिया और बौद्ध दर्शन पर अपने विचार प्रस्तुत किए। अपने संबोधन की शुरुआत में ही पेरियार ने बुद्ध जयंती के महत्व को रेखांकित किया और कहा कि बुद्ध का मानवता के प्रति सबसे बड़ा योगदान यह था कि वे पाखंड, अंधविश्वास, सामाजिक कुरीतियों और शोषण के कट्टर विरोधी थे। भारतीय संदर्भ में उन्होंने वर्ण-व्यवस्था और जाति-पाति पर आधारित ब्राह्मणवादी सामाजिक ढांचे का निर्भीक विरोध किया।

तस्वीर में 27 मई, 1953 को ‘बुद्ध उत्सव’ के रूप में मनाने का आह्वान करने के बाद तिरूची के टाउन हॉल मैदान में गणेश की प्रतिमा को तोड़ते पेरियार

हज़ारों साल पहले, बुद्ध ने ब्राह्मणवादी धार्मिक ग्रंथों की आलोचना करते हुए उनके मूलभूत सिद्धांतों को सिरे से खारिज कर दिया। इन्हीं विचारों को आगे बढ़ाते हुए पेरियार ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि जो लोग आज भी ब्राह्मणवादी परंपराओं का पालन करते हैं या फिर बुद्ध के समतावादी और मानवतावादी दर्शन को आत्मसात करने के बजाय केवल उनकी प्रतिमा पर कपूर, नारियल और अन्य चढ़ावे अर्पित कर पूजा करते हैं – वे वास्तव में बुद्ध के विचारों से बहुत दूर हैं।

साथ ही, पेरियार ने बुद्ध को लेकर समाज में व्याप्त अनेक भ्रांतियों को स्पष्ट रूप से चुनौती दी। उन्होंने कहा कि बुद्ध न तो कोई ‘ऋषि’ थे और न ही ‘महात्मा’ – बल्कि वे तो अपने समय के ब्राह्मणवादी ऋषियों के तीव्र और तार्किक विरोधी थे। पेरियार ने यह भी रेखांकित किया कि बुद्ध का दर्शन परंपरागत अर्थों में ‘धर्म’ की श्रेणी में नहीं आता, क्योंकि धर्म की पारंपरिक अवधारणा के केंद्र में ‘ईश्वर’ होता है, जिसके साथ ‘आत्मा’, ‘परमात्मा’, ‘मोक्ष’, ‘स्वर्ग’, ‘नरक’, ‘पाप’ और ‘पुण्य’ जैसी अवधारणाएं जुड़ी होती हैं – जबकि बुद्ध का चिंतन इन सभी से असहमति रखता है और पूरी तरह तर्क एवं विवेक पर आधारित है।

पेरियार ने स्पष्ट किया कि बुद्ध ने हमेशा लोगों से यह आग्रह किया कि वे अंधविश्वासों और पौराणिक कल्पनाओं को त्यागें और तर्क तथा विवेक का सहारा लें। बुद्ध की दृष्टि में ईश्वर का अस्तित्व गौण था। उन्होंने मनुष्य को ही चिंतन और आचरण का केंद्र बनाया। उनका स्पष्ट संदेश था कि मनुष्य को अपने चरित्र और आचरण को शुद्ध बनाए रखना चाहिए, और किसी भी विचार को आंख मूंदकर स्वीकार करने के बजाय उसकी जांच-परख स्वयं के विवेक और अनुभव के आधार पर करनी चाहिए। पेरियार के शब्दों में– “बुद्ध ने कहा कि मनुष्य के लिए ईश्वर की चिंता करना बिल्कुल आवश्यक नहीं है। वे चाहते थे कि लोग केवल मनुष्य के विषय में सोचें। उन्होंने मोक्ष और नरक के बारे में कुछ नहीं कहा। उन्होंने मनुष्य के चरित्र और सही आचरण पर बल दिया। उन्होंने कहा कि विवेक, तार्किक सोच, मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है। कोई बात केवल इसलिए नहीं मानी जानी चाहिए, क्योंकि किसी ऋषि ने उसे कहा या किसी महात्मा ने उसे लिखा। हर बुद्धिमान व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह किसी विचार की जांच अपने स्वयं के बुद्धि से करे और स्वयं सत्य तक पहुंचे।” इसीलिए, पेरियार ने यह गहन व्याख्या दी कि बुद्ध कोई विशिष्ट व्यक्ति मात्र नहीं हैं – बल्कि ‘बुद्ध’ का अर्थ होता है– ‘बुद्धि’ या ‘प्रज्ञा’। जो कोई भी अपनी बुद्धि का प्रयोग करता है, वह ‘बुद्ध’ कहलाता है।”

पेरियार ने कहा कि ब्राह्मणवादी शक्तियों ने न केवल बुद्ध और उनके अनुयायियों के ख़िलाफ़ अपमानजनक कहानियां गढ़ीं, बल्कि उनकी छवि को ऐसा रूप देने की कोशिश की जो उनके क्रांतिकारी और समतावादी स्वरूप को कमज़ोर कर सके। इस तरह “बौद्धों और जैनों को नास्तिक, लुटेरे, हत्यारे और वैदिक यज्ञों के शत्रु कहा गया है।” मगर वे बुद्ध को दबा नहीं पाए। आख़िरकार हारकर, उन्होंने बुद्ध को ईश्वर का अवतार बताकर उन्हें उसी ब्राह्मणवादी ढांचे में समाहित करने का षड्यंत्र रचा। इससे बुद्ध के मूल विचारों को तोड़ा-मरोड़ा गया और उनकी शिक्षाओं को उनके विपरीत अर्थों में प्रस्तुत किया गया। पेरियार ने चेताया कि जब तक हम इन साज़िशों को नहीं समझेंगे, तब तक हम बुद्ध के वास्तविक विचारों और उनके मानवमूलक दर्शन से जुड़ नहीं पाएंगे। 

पेरियार ने कहा कि जैसे प्राचीन भारत में ब्राह्मणवादी धार्मिक ग्रंथों ने बुद्ध के सिद्धांतों के विरुद्ध योजनाबद्ध ढंग से प्रोपेगंडा चलाया, वैसे ही आज के दौर में भी बुद्ध के विचारों को दबाने और उन्हें हाशिए पर धकेलने के प्रयास किए जा रहे हैं। उन्होंने उदाहरण देकर स्पष्ट किया कि ब्राह्मणवादी मीडिया बुद्ध जयंती जैसे महत्वपूर्ण आयोजनों को समुचित स्थान देने को तैयार नहीं होता, जबकि ब्राह्मणवादी धार्मिक आयोजनों की विस्तृत रिपोर्टें अखबारों के पन्नों को भर देती हैं।

इसी कारण पेरियार ने अपने अनुयायियों से अपील की कि वे बुद्ध जयंती को अपने सामाजिक आंदोलन का एक अभिन्न अंग बनाएं। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि जातिवाद के विरुद्ध संघर्ष में बुद्ध के विचार एक प्रभावशाली मार्गदर्शक सिद्ध होते हैं। अपने भाषण में पेरियार ने अनेक उदाहरणों के माध्यम से यह बताया कि किस प्रकार जातिवादी नेता ऊंची जातियों के वर्चस्व को बनाए रखने के लिए जाति-व्यवस्था का विविध तरीकों से बचाव करते हैं। ऐसे में, बुद्ध का शिक्षण हमें इस अन्यायपूर्ण और अमानवीय सामाजिक ढांचे से संघर्ष करने की प्रेरणा देता है।

पेरियार ने यह चिंता भी व्यक्त की कि भारत में जहां एक ओर लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू है, वहीं दूसरी ओर असमानता और जातिवाद को पोषित करने वाला धार्मिक साहित्य बड़े पैमाने पर प्रकाशित और प्रचारित किया जा रहा है। उन्होंने इस गहरे विरोधाभास को रेखांकित किया कि जहां एक ओर लोकतंत्र स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की मूल अवधारणाओं पर आधारित है, वहीं दूसरी ओर ब्राह्मणवादी साहित्य जातिवाद, अंधविश्वास और मानसिक गुलामी को बढ़ावा देता है। इस विरोधाभास को लेकर पेरियार गंभीर रूप से चिंतित थे। उनका स्पष्ट मत था कि यदि भारत में लोकतंत्र की जड़ों को वास्तव में सुदृढ़ करना है, तो जाति प्रथा का समूल उन्मूलन अनिवार्य है। इसी कारण वे बुद्ध के दर्शन को सामाजिक समानता के संघर्ष में अत्यंत प्रेरणादायक और उपयोगी मानते थे।

एग्मोर में आयोजित महाबोधि संगम से तीन वर्ष पूर्व, इरोड में भी इसी प्रकार का एक बौद्ध सम्मेलन आयोजित किया गया था। 23 जनवरी, 1954 को संपन्न इस आयोजन में पेरियार ने बुद्ध के दर्शन को आत्म-सम्मान आंदोलन के लिए एक ‘क्रांतिकारी’ विचार करार दिया था। पेरियार ने परंपरावादी और असमानता में विश्वास रखने वाले तत्वों की ओर संकेत करते हुए स्पष्ट किया कि आत्म-सम्मान आंदोलन के जो सिद्धांत हैं, उन्हें यूं ही नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि वे बुद्ध के गहन मानवीय विचारों पर आधारित हैं। ‘बुद्ध की शिक्षाएं और सिद्धांत’ को आत्म-सम्मान आंदोलन के क्रांतिकारी उद्देश्य के लिए अत्यंत मूल्यवान बताते हुए पेरियार ने कहा कि “परंपरावादियों के लिए हमारे विचारों को आसानी से खारिज कर पाना इतना सरल नहीं होगा। उन्हें यह बताने की आवश्यकता है कि रैशनलिटी उतनी ही पुरानी है, जितना कि स्वयं बुद्ध, और आज जो कहा जा रहा है, उसमें कोई बहुत नई बात नहीं है।”

स्पष्ट रूप से देखा जाए तो पेरियार बुद्ध के दर्शन से दो प्रमुख बिंदुओं पर अत्यंत प्रभावित थे। पहला यह कि बुद्ध ने अंधविश्वास, धर्म के नाम पर फैलाए जा रहे पाखंड, और जाति-वर्ण आधारित भेदभाव व शोषणकारी सामाजिक ढांचे को तोड़ने का साहसिक प्रयास किया। बुद्ध अत्यंत निर्भीक थे। उन्होंने सत्ता और धर्म के ठेकेदारों से कोई समझौता नहीं किया, बल्कि उन्हें निर्भीकता से अस्वीकार कर दिया। इसी प्रकार, पेरियार भी समानता और मानवता के दृढ़ समर्थक थे। एक संपन्न व्यापारी परिवार में जन्म लेने के बावजूद वे समाज की बहती धारा में बहकर एक सुविधाजनक जीवन अपना सकते थे। वे मद्रास कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके थे और राजनीतिक समझौतों के माध्यम से सत्ता के उच्चतम स्तरों तक पहुंच सकते थे। लेकिन उन्होंने बुद्ध की तरह त्याग और संघर्ष का मार्ग चुना। पेरियार ने बुद्ध की प्रेरणा से धर्म के नाम पर चल रहे शोषण और अन्याय के विरुद्ध निर्भीकता से आवाज़ उठाई। उन्होंने वंचित और उत्पीड़ित गैर-ब्राह्मण समुदायों के अधिकारों की रक्षा के लिए सतत संघर्ष किया, और विशेष धर्म, भाषा व क्षेत्र के वर्चस्व के खिलाफ आजीवन लड़ाई लड़ी।

दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि पेरियार, बुद्ध की ही भांति, एक भौतिकवादी और तर्कवादी चिंतक थे। उन्होंने तर्क और विवेक को सर्वोच्च स्थान दिया तथा किसी भी ऋषि, संत या ईश्वर की शरण में जाने से स्पष्ट रूप से इनकार किया। जहां पेरियार ने बुद्ध के दर्शन को अपने सामाजिक आंदोलन के लिए एक क्रांतिकारी विचार के रूप में स्वीकार किया, वहां वे इस बात को लेकर भी पूरी तरह स्पष्ट थे कि आज का मानव बुद्ध से आगे सोचने और नए विचार विकसित करने में सक्षम है। उनकी तर्कशील दृष्टि इस विचार को नहीं मानती थी कि बुद्ध की शिक्षाएं हर युग में ज्यों की त्यों लागू की जानी चाहिए। पेरियार ने ज्ञान और विवेक पर आधारित चिंतन को सर्वोपरि माना और लोगों को सचेत किया कि किसी का भी – चाहे वह स्वयं बुद्ध ही क्यों न हों – आंख बंद करके अनुकरण करना बौद्धिक गुलामी के समान है।

इस संदर्भ में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा– “बुद्ध ने 2,500 साल पहले लोगों को उस समय की परिस्थितियों के अनुसार उपदेश दिए थे। उस दौर में लोगों की बुद्धि की भी एक सीमा थी। जो बातें तब कही गईं, वे आज सौ प्रतिशत सच या पूरी तरह लागू नहीं हो सकतीं। आज बुद्ध की बातों को शब्दशः मानना, मेरी दृष्टि में, आस्तिकता का ही एक और रूप है।”

पेरियार की भांति, डॉ. आंबेडकर ने भी बुद्ध के दर्शन की व्याख्या करते हुए तर्क, ज्ञान और प्रज्ञा को केंद्रीय स्थान दिया। उन्होंने उन सभी धार्मिक विश्वासों और तत्वों का स्पष्ट रूप से खंडन किया जो अंधविश्वास, परलोक, ईश्वर और आत्मा जैसे अलौकिक धारणाओं पर आधारित हैं। डॉ. आंबेडकर ने स्वयं स्वीकार किया कि उन्हें बौद्ध धर्म इसीलिए प्रिय है, क्योंकि यह अन्य धर्मों की भांति ईश्वर, आत्मा या मृत्यु के बाद के जीवन जैसे रहस्यवादी विचारों पर टिका नहीं है।

बाबासाहेब का स्पष्ट मत था कि न तो कोई ईश्वर, और न ही आत्मा, समाज को अन्याय और विषमता से मुक्त करा सकते हैं। समाज की मुक्ति विवेक, करुणा और समानता के सिद्धांतों के पालन से ही संभव है। बौद्ध धर्म ‘प्रज्ञा’ अर्थात विवेकशीलता की शिक्षा देता है, जो व्यक्ति को अंधविश्वासों और अलौकिक विश्वासों की बेड़ियों से मुक्ति की प्रेरणा देता है। साथ ही, यह ‘करुणा’ अर्थात प्रेम और सहानुभूति की भावना को प्रोत्साहित करता है तथा ‘समता’ को जीवन में लागू करने का मार्गदर्शन करता है। इन मूलभूत सिद्धांतों के कारण डॉ. आंबेडकर ने बौद्ध धर्म को सामाजिक परिवर्तन और न्याय की दिशा में एक यथार्थवादी तथा मानवतावादी आधार के रूप में स्वीकार किया।

डॉ. आंबेडकर ने दलितों के धर्म परिवर्तन को ‘मुक्ति’ का मार्ग बताया। उन्होंने लंबे समय तक विचार-विमर्श और ऐतिहासिक अध्ययन के पश्चात दलितों को बौद्ध धर्म अपनाने की सलाह दी। उनकी प्रमुख दलील थी कि धर्म का वास्तविक उद्देश्य मानवता की भलाई होना चाहिए – न कि सामाजिक भेदभाव को धार्मिक आस्था की आड़ में स्थायी बनाना। एक दलित होने के नाते, आंबेडकर स्वयं इस सच्चाई को गहराई से समझते थे कि हिंदू धर्म में जाति-पाति, ऊंच-नीच और छुआछूत जैसी व्यवस्थाएं दलितों के लिए केवल अपमान और दासता का कारण रही हैं। उनके अनुसार, अछूतों के लिए हिंदू धर्म में बने रहना, वस्तुतः एक गुलामी को आत्मसात करना है।

डॉ. आंबेडकर ने यह भी स्पष्ट किया कि धर्म केवल अलौकिक विश्वासों या ईश्वर में आस्था तक सीमित नहीं होना चाहिए; बल्कि उसका संबंध सामाजिक जीवन और न्याय से भी होना चाहिए। यदि अछूत हिंदू धर्म को त्यागते हैं, तो उनके ऊपर थोपी गई सामाजिक अलगाव और हीनता की जीवन-प्रणाली से भी मुक्ति मिल सकती है। उनका विश्वास था कि एक सुखी और गरिमामय जीवन के लिए बंधुत्व अनिवार्य है। और यह तभी संभव है जब व्यक्ति एक समानतावादी समुदाय का अंग बन सके। उनके अनुसार, समुदाय में सहभागिता का मार्ग धर्म के ज़रिए ही प्रशस्त होता है। इसलिए उन्होंने आग्रह किया कि अछूतों को ऐसा धर्म अपनाना चाहिए, जो समानता, करुणा और न्याय जैसे मानवीय मूल्यों पर आधारित हो। पेरियार ने भी इसी भावना के अनुरूप दलितों के धर्म परिवर्तन का समर्थन किया था। 

1940 के दशक में प्रसिद्ध मार्क्सवादी चिंतक एम. एन. रॉय ने अपनी पुस्तक ‘मैटेरियलिज़्म इन इंडियन फिलॉसफी’ में भारतीय दर्शन की परंपरा को दो प्रमुख धाराओं में विभाजित करने का प्रयास किया– भौतिकवादी और आध्यात्मिक/आदर्शवादी। रॉय के अनुसार, वैदिक और ब्राह्मणवादी विचारधाराएं मूलतः आदर्शवादी और पराभौतिक हैं, जो भौतिक यथार्थ से कटी हुई हैं। ये विचारधाराएं अमूर्त और काल्पनिक स्वरूप में न केवल भौतिक वास्तविकता को व्याख्यायित करती हैं, बल्कि सामाजिक सच्चाइयों से भी कन्नी काटती हैं। इसके विपरीत, भौतिकवादी दर्शन अनुभवजन्य यथार्थ को स्वीकार करता है और ईश्वर, आत्मा एवं अन्य किसी भी अलौकिक सत्ता के अस्तित्व का पूर्ण निषेध करता है।

प्राचीन भारतीय दर्शन में भौतिकवादी प्रवृत्तियां लगभग 7वीं या 8वीं शताब्दी ईसा पूर्व में उभरने लगी थीं। वेदों पर आधारित धार्मिक व्यवस्था से असंतुष्ट होकर अनेक भौतिकवादी विचारक सामने आए, जिन्होंने वेदों की प्रामाणिकता पर सवाल उठाया, ईश्वर तथा अलौकिक शक्तियों के अस्तित्व को नकारा और आत्मा की धारणा को भी अस्वीकार कर दिया। इन विचारकों ने परलोकवाद का खंडन करते हुए यह स्पष्ट रूप से कहा कि न तो कोई ईश्वर है, न अवतार, न स्वर्ग और न नर्क। उन्होंने सृष्टि के मूल कारण के रूप में ‘प्रकृति’ को स्वीकारा। इन भौतिकवादी दार्शनिकों ने सामाजिक संरचना में पुजारियों और पुरोहित वर्ग की भूमिका की भी तीव्र आलोचना की। उपनिषदों में इन विचारकों का उल्लेख तार्किक, नास्तिक और प्राकृतिकवादी के रूप में मिलता है। यह उल्लेख इस बात का प्रमाण है कि उस काल में भी एक मजबूत तर्कवादी और भौतिकवादी परंपरा विद्यमान थी, जिसने वेदों और ब्राह्मणवादी विचारधारा को चुनौती देने का साहस दिखाया। पेरियार उसी भौतिकवादी दर्शन को बुद्ध के विचारों के माध्यम से समझने और उसे अपनाने का प्रयास कर रहे थे, क्योंकि उनका यह दृढ़ विश्वास था कि जब तक ब्राह्मणवादी व्यवस्था को सीधी चुनौती नहीं दी जाती, तब तक सामाजिक समानता की स्थापना असंभव है। उन्होंने यह भलीभांति समझा था कि जातिवाद और असमानता की जड़ें धार्मिक ग्रंथों और परंपराओं में निहित हैं, और इनका खंडन किए बिना किसी भी सामाजिक सुधार की कल्पना अधूरी है। 

जैसे प्राचीन भारत में बुद्ध और अन्य भौतिकवादी विचारकों को ब्राह्मणवादी ग्रंथों ने ‘नास्तिक’ और ‘धार्मिक द्रोही’ कह कर खारिज करने का प्रयास किया, ठीक उसी तरह पेरियार को भी उनके तर्कवादी और भौतिकवादी दृष्टिकोण के कारण अनेक प्रकार की सामाजिक, राजनीतिक और वैधानिक प्रताड़नाएं सहनी पड़ीं। उन्हें मुक़दमे झेलने पड़े, बार-बार जेल जाना पड़ा और लगातार अपमान तथा आलोचना का सामना करना पड़ा। लेकिन इन सब कठिनाइयों के बावजूद, पेरियार ने कभी भी अंधविश्वास, पाखंड, सामाजिक भेदभाव और असमानता से समझौता नहीं किया। उन्होंने बुद्ध से प्रेरणा लेते हुए अपने जीवन का मार्गदर्शन तर्क, विवेक और मानवता के सिद्धांतों से किया। उनके लिए बुद्ध का दर्शन केवल एक धार्मिक या ऐतिहासिक विचार नहीं था, बल्कि वह सामाजिक क्रांति का औज़ार था।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अभय कुमार

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी अभय कुमार संप्रति सम-सामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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