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संवेदनहीनता बनाम संवेदनशीलता : उत्तर प्रदेश में बंद और तमिलनाडु में समुन्नत होते प्राइमरी स्कूल

उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में प्राइमरी स्कूलों के बंद होने का मतलब है– दलितों, वंचितों के बच्चों को धक्का देकर शिक्षा से बेदखल करना। अंबानी-अडानी के हितों की रक्षक भाजपा सरकार प्रकारांतर से पूंजीपतियों के लिए सस्ते मजदूर उपलब्ध कराने का इंतजाम कर रही है। जाहिर है, स्कूलों से धक्का देकर बाहर किए गए यही बच्चे सस्ते मजदूर बनेंगे। बता रहे हैं प्रो. रविकांत

बात 1957 की है। तमिलनाडु (मद्रास) के मुख्यमंत्री के. कामराज थे। रास्ते में उन्होंने एक व्यक्ति को देखा, जो अपने बच्चे के साथ कहीं जा रहा था। कामराज ने उससे पूछा कि क्या बच्चा स्कूल जाता है? उस व्यक्ति ने जवाब दिया कि जब वह कुछ काम करेगा, तो दो पैसा कमाएगा। तभी खाना खाएगा। स्कूल जाने का समय कहां है? तब कामराज ने उस व्यक्ति से पूछा कि अगर बच्चे को खाना मिले तो उसे स्कूल भेजोगे? व्यक्ति ने जवाब दिया– बिल्कुल हुजूर!

के. कामराज ने लौटकर अपने उच्च अधिकारियों को निर्देश दिया कि स्कूल में बच्चों के खाने की व्यवस्था की जाए। इसके बाद एक स्थान पर गेहूं का नमकीन दलिया बनाया जाता फिर एक वैन में रखकर स्कूल पहुंचाया जाता। बच्चे अपने हाथ से निकालकर नमकीन दलिया खाते और पढ़ाई करते। यही व्यवस्था आगे चलकर स्कूलों में ‘मिड डे मील’ कहलाई। के. कामराज इस व्यवस्था के जन्मदाता बने।

दक्षिण भारत और खासकर तमिलनाडु के स्कूलों में शिक्षा के साथ बच्चों का पोषण, सरकारों की प्राथमिकता रही है। 1977 में एम.जी. रामचंद्रन जब मुख्यमंत्री बने तब स्कूलों में बच्चों के मध्याह्न भोजन में दलिया के स्थान पर ज्यादा पौष्टिक सांभर और चावल दिया जाने लगा। उनके बाद जब एम. करुणानिधि मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने बच्चों के पोषण में गुणवत्तापरक सुधार करने के लिए सप्ताह में तीन दिन अंडा देना शुरू किया। वर्तमान स्टालिन सरकार मध्याह्न भोजन के साथ मॉर्निंग टिफिन यानी सुबह का नाश्ता भी दे रही है। मिड डे मील में उत्तपम, पोंगल और मीठा सहित स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन शामिल है।

तमिलनाडु के एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय में बच्चों के लिए सुबह के नाश्ते का आरंभ करते मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन

एक सवाल बार-बार पूछा जाता है कि दक्षिण भारत मानव विकास सूचकांक में उत्तर भारत से कैसे और क्यों आगे है? दरअसल, दक्षिण भारत की सरकारों ने सबसे ज्यादा शिक्षा पर ध्यान दिया। प्राइमरी एजुकेशन से लेकर व्यावसायिक शिक्षा तक वैज्ञानिक चेतना से लैस गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना उनकी प्राथमिकता रही है। इसीलिए रोजगार से लेकर प्रति व्यक्ति आय और ‘लिविंग स्टैंडर्ड’ में दक्षिण के राज्य बेहतर स्थिति में हैं। लेकिन आज उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार प्राइमरी स्कूल बंद कर रही है। योगी सरकार ने पहले दलील दी कि हम स्कूलों का विलय कर रहे हैं। लेकिन अब उसने इसका सुंदर नामकरण किया है। वैसे भी योगी आदित्यनाथ नाम बदलने के लिए बहुत विख्यात हैं। स्कूल बंद करने की इस नीति का नाम दिया गया है– ‘पेयरिंग स्कीम’।

इस साल की फरवरी में लोकसभा में केंद्र सरकार ने बताया था कि देश भर में अब तक करीब 89 हजार स्कूल बंद किए गए हैं, जिनमें 25 हजार स्कूल केवल उत्तर प्रदेश के हैं। जहां एक तरफ गरीबी और बेरोजगारी बढ़ रही है, गांव में लोगों के पास फीस भरने के लिए पैसे नहीं हैं, ऐसे में सरकारी स्कूल बंद करने के क्या मायने हैं?

एक दौर में बच्चों द्वारा स्कूल छोड़ने की समस्या थी, जिसे ‘ड्रॉप आउट’ कहा जाता है। इससे निपटने के लिए केंद्र सरकार ने मिड डे मील की व्यवस्था शुरू की। उत्तर भारत में इसका सकारात्मक प्रभाव देखा गया। राजीव गांधी की सरकार ने नवोदय जैसी आवासीय विद्यालय योजना के जरिए ग्रामीण और पहाड़ी क्षेत्रों के दलित, आदिवासी, अति पिछड़े और गरीब परिवारों के बच्चों को पोषण युक्त भोजन तथा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की व्यवस्था की। लेकिन केंद्र की मोदी सरकार बजट का बहाना बनाकर इस योजना को भी बंद करने की जुगत में है।

केंद्र सरकार के मुताबिक, देश भर में अब तक करीब 89 हजार स्कूल बंद किए गए हैं, जिनमें 25 हजार स्कूल केवल उत्तर प्रदेश के हैं

दरअसल, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में प्राइमरी स्कूलों के बंद होने का मतलब है– दलितों, वंचितों के बच्चों को धक्का देकर शिक्षा से बेदखल करना। यह असल में ‘पुश आउट’ है। अंबानी-अडानी के हितों की रक्षक भाजपा सरकार प्रकारांतर से पूंजीपतियों के लिए सस्ते मजदूर उपलब्ध कराने का इंतजाम कर रही है। जाहिर है, स्कूलों से धक्का देकर बाहर किए गए यही बच्चे सस्ते मजदूर बनेंगे।

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हिंदुत्ववादी सरकार की दूसरी मंशा मनुवादी व्यवस्था लागू करना है। मनुस्मृति के अनुसार दलित, शूद्र और महिलाएं शिक्षा पाने के अधिकारी नहीं हैं। जब ये अनपढ़ रहेंगे, तभी गुलाम बनाकर उन पर शासन किया जा सकता है।

इस समय जब योगी सरकार पूरी निर्लज्जता और हठधर्मिता के साथ स्कूल बंद करने पर तुली हुई है, उसी समय दक्षिण भारत का तमिलनाडु राज्य शिक्षा के मॉडल के रूप में सामने आ रहा है। तमिलनाडु ने एक और नया प्रयोग किया है। विद्यालयों की क्लासरूम में बच्चों के बैठने का ढंग बदला गया है। सरकारी स्कूलों में अब बच्चे कतारों में आगे से पीछे की तरफ नहीं बैठते हैं, बल्कि अर्द्ध गोलाकार स्थिति में कुर्सियों पर बैठते हैं और मध्य में अध्यापक खड़े होकर बच्चों को पढ़ाता है। जाहिर है, कुर्सियों पर या टाट फट्टी पर आगे-पीछे बैठने की व्यवस्था वर्ण/जाति व्यवस्था सदृश लगती है। अभी भी भारत की सामाजिक स्थिति ऐसी है कि वर्चस्वशाली परिवारों के बच्चे आगे बैठते हैं और गरीब दलित, पिछड़ों के बच्चे पीछे।

हालांकि अब सरकारी स्कूलों में गरीब दलित-पिछड़ों के बच्चे ही पढ़ते हैं। लेकिन पीछे बैठने वाले बच्चे को ‘बैक बेंचर’ कहा जाता है। इस असमानतापूर्ण व्यवस्था को तमिलनाडु सरकार ने पूरी तरह से खत्म कर दिया है। यह व्यवस्था उत्तर भारत की शिक्षा के लिए मॉडल बन सकती है। लेकिन जब हिंदुत्ववादी सत्ता सरकारी विद्यालयों को बंद करने पर तुली हो तो सुधार की गुंजाइश क्योंकर हो सकती है?

भारत का संविधान वैज्ञानिक चेतना की बात करता है। समाज में ही नहीं, बल्कि शिक्षण संस्थानों में भी वैज्ञानिकता और मानवीय जीवन मूल्यों का पालन हो, यह हमारा संविधान सुनिश्चित करता है। आज विश्वविद्यालय संघ के अड्डे बन चुके हैं। जहां विभाग अध्यक्ष के पदभार ग्रहण करने में भी मंत्रोच्चार किया जाता है। विश्वविद्यालय परिसर में मंदिर बनवाकर प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। संघ की शाखाएं लगती हैं। कुलपति शिक्षा व्यवस्था पर ध्यान नहीं देकर भाजपा के एजेंडे का प्रचार प्रसार करते हैं। नियुक्तियों में योग्यता संघ का हस्तक्षेप बढ़ा है। उन विश्वविद्यालयों में वैज्ञानिक चेतना और संवैधानिक मूल्यों की बात करना बेमानी है।

भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 गरिमापूर्ण जीवन जीने की गारंटी देता है। भोजन के अधिकार से लेकर के स्वच्छ पानी पीने का अधिकार सुनिश्चित करता है। आज नई पीढ़ी में खासकर बच्चों के शरीर में पानी की कम मात्रा पाई जा रही है। 21वीं शताब्दी के तीसरे दशक के भारत में कुपोषण की समस्या खत्म नहीं हुई है। जबकि भारत खाद्यान्न में आत्मनिर्भर ही नहीं है, बल्कि अतिरिक्त खाद्यान्न का उत्पादन कर रहा है। दरअसल, हमारे नीति निर्माताओं के पास ना तो कोई दृष्टि है और ना ही संवेदनशीलता। उत्तर भारत हिंदुत्ववादियों के कब्जे में है। जाहिर है कि प्रशासनिक पदों पर भी वही लोग बैठे हैं जो बीस रुपए की बिसलेरी की बोतल का पानी पीते हैं और एक दिन में हजारों रुपए का नाश्ता डकार जाते हैं। ऐसे में गरीब बच्चों के पोषण और अल्पाहार की चिंता किसको है। बच्चों में पानी की कमी को दूर करने के लिए तमिलनाडु की सरकार ने एक प्रभावशाली और प्रेरक तरीका निकाला है। अब स्कूलों में इंटरवल के स्थान पर वाटर टाइम की घंटी बजती है। जाहिर तौर पर इस समय बच्चों को प्रेरित किया जाता है कि वह पहले पानी पीएं फिर खेलें। ऐसे में सवाल यह है कि क्या उत्तर भारत तमिलनाडु और दक्षिण भारत की इन नीतियों से कोई सबक ले सकता है? और सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि उत्तर भारत में हिंदुत्ववादी सरकारों को गरीब दलित-पिछड़े समाज से आने वाले बच्चों की शिक्षा की वास्तव में चिंता है भी या नहीं?

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

रविकांत

उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के दलित परिवार में जन्मे रविकांत ने जेएनयू से एम.ए., एम.फिल और लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की डिग्री हासिल की है। इनकी प्रकाशित पुस्तकों में 'समाज और आलोचना', 'आजादी और राष्ट्रवाद' , 'आज के आईने में राष्ट्रवाद' और 'आधागाँव में मुस्लिम अस्मिता' शामिल हैं। साथ ही ये 'अदहन' पत्रिका का संपादक भी रहे हैं। संप्रति लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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