कांग्रेस के हालिया राष्ट्रीय विधि सम्मलेन, जिसका विषय था ‘संवैधानिक चुनौतियां – परिप्रेक्ष्य और रास्ते’, में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल और डॉ. बी.आर. आंबेडकर के चित्र मंच पर प्रमुखता से प्रदर्शित किए गए। यह पहला मौका है जब हमारे स्वाधीनता संग्राम और आधुनिक राष्ट्र के रूप में भारत के निर्माण की कवायद के इन चार स्तंभों के चित्र कांग्रेस के कार्यालय में प्रदर्शित हुए और वह भी एक सार्वजनिक कार्यक्रम में।
डॉ. आंबेडकर को छोड़कर, शेष तीनों कांग्रेस के सदस्य थे। मगर नेहरू के कांग्रेस का नेतृत्व संभालने के बाद से पटेल को धीरे-धीरे दरकिनार कर दिया गया। महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू को हमेशा से पार्टी का पथप्रदर्शक माना जाता रहा है।
यह इससे भी जाहिर है कि कांग्रेस शासनकाल में देश में पुस्तकालयों, विश्वविद्यालयों, हवाईअड्डों, रेलवे स्टेशनों और स्मारकों समेत अनेक संस्थाओं और स्थानों के नाम गांधी और नेहरू के नाम पर रखे गए। पार्टी ने यह इसलिए किया क्योंकि वह आंबेडकर और पटेल जैसे नेताओं की जातिगत पृष्ठभूमि को मान्यता नहीं देना चाहती थी और ना ही यह स्वीकार करना चाहती थी कि उनकी सामाजिक पहचान किस तरह मतदाताओं को प्रभावित कर रही थी। भाजपा ने मौका पाकर पटेल पर कब्ज़ा कर लिया। इस कवायद का चरम था मोदी द्वारा गुजरात में पटेल की गगनचुंबी मूर्ति का निर्माण करवाना।
आंबेडकर शुरुआत में केवल दलितों की श्रद्धा के पात्र थे। समय के साथ, उनकी पहचान सामाजिक न्याय के नायक बतौर बनी। उनकी इस छवि का इस्तेमाल अब वोट बटोरने के लिए किया जाता है। राहुल गांधी के पहले तक कांग्रेस को कभी यह अहसास नहीं हुआ कि पटेल और आंबेडकर को वह सम्मान और स्वीकार्यता हासिल नहीं हुई है जिसके वे हक़दार थे। भाजपा के चलते, कांग्रेस ने अपने राष्ट्रवाद की जड़ों की पड़ताल की जिससे इन दोनों महान हस्तियों – जो जातियों और वर्गों के स्तर पर समाज के एक बड़े फलक का प्रतिनिधित्व करते थे – पर शोध की राह प्रशस्त हुई।
यात्राओं से ज्ञानोदय
कन्याकुमारी से कश्मीर की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और मणिपुर से मुंबई की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ के दौरान राहुल गांधी बड़ी संख्या में आम लोगों के संपर्क में आए और ऐसा लगता है कि इससे आंबेडकर और पटेल के बारे में उनकी समझ बदली।
मंडल काल के बाद आंबेडकर देश के शीर्षतम नायकों में से एक के रूप में उभरे। जाहिर है कि यह हिंदुत्ववादी बुद्धिजीवियों को रास नहीं आया। अरुण शौरी की पुस्तक ‘वरशिपिंग फाल्स गॉड्स’, आम लोगों के ज़हन में आंबेडकर के लिए बढ़ते सम्मान पर हिंदुत्ववादी प्रतिक्रिया थी। हाल में शशि थरूर को भी आंबेडकर पर एक पुस्तक लिखनी पड़ी। यह इसके बावजूद कि आंबेडकर और कांग्रेस की विचारधाराओं में विरोधाभास हैं।

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी संसद में तिरस्कार भाव से यह कह कर कि इन दिनों आंबेडकर का नाम लेना फैशन बन गया है, दिखा दिया कि उनकी सोच शौरी से कुछ भी अलग नहीं है।
इसके तुरंत बाद, राहुल गांधी ने आंबेडकर को अपनी पार्टी के नायकों में शामिल करते हुए ‘जय बापू, जय भीम और जय संविधान’ का नारा दिया। उन्होंने शाह को साफ़-साफ़ यह संदेश दिया कि गांधी और नेहरू के अलावा, आंबेडकर भी उनकी पार्टी के राष्ट्रवाद का हिस्सा बन गए हैं।
नई कांग्रेस
सन 2014 के चुनाव के पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का नारा दिया था। वे पटेल के अलावा गांधी और आंबेडकर पर भी कब्ज़ा करने को आतुर थे। मोदी ने पटेल के नाम और छवि का इस्तेमाल गुजरात और उसके बाहर भी किया। पटेल ग्रामीण भारत के पहले ऐसे शूद्र/ओबीसी नेता थे, जिन्होंने बारडोली में लगान की बढ़ोत्तरी के खिलाफ किसानों के आंदोलन का नेतृत्व कर किसानों को कांग्रेस के राष्ट्रवादी आंदोलन से जोड़ा। इसके बाद ही गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ किसानों के संघर्ष का नेतृत्व सम्हाला। मगर कांग्रेस ने पटेल और किसानों के आंदोलन के बीच के संबंध को भुला दिया।
राहुल गांधी, अब गांधी, नेहरू, पटेल और आंबेडकर को एक साथ ले आए हैं। उन्होंने चारों को अपनी पार्टी के बैनर और उसके नए कार्यालय की दीवारों पर स्थान दिया। 2024 के चुनाव के दौरान उन्होंने जातिगत जनगणना को समाज का एक्स-रे बताया है और उसे संविधान की रक्षा से जोड़ा है। इसने भी पटेल और आंबेडकर को कांग्रेस के नायकों के रूप में प्रतिष्ठित करने में मदद की। पुराने कांग्रेसी नेता सोचते थे कि जाति पर विमर्श और धर्मनिरपेक्षता परस्पर विरोधी हैं। मगर यह सोच, भारत की सामाजिक व्यवस्था की गलत समझ पर आधारित थी।
राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने जो नई राह चुनी, उसके चलते ही भाजपा पिछले लोकसभा चुनाव में अपने बल पर बहुमत हासिल नहीं कर सकी। रातों-रात राहुल, जिनका पप्पू कहकर मखौल बनाया जाता था, प्रधानमंत्री पद के गंभीर दावेदार बन गए।
मोदी 75 साल के होने वाले हैं। उनकी पार्टी ने इस उम्र को राजनीति से सन्यास लेने के लिए आदर्श बताया है। मगर कांग्रेस भारतीय राजनीति से गायब होने वाली नहीं है। न केवल वह जिंदा है, वरन् अपनी स्थापना के 140 साल बाद अपने में एक नया परिवर्तन करती दिखती है। यह एक अच्छा संकेत है।
यह आलेख पूर्व में इंडियन एक्सप्रेस द्वारा अंग्रेजी में प्रकाशित है। यहां इसका हिंदी अनुवाद लेखक की सहमति से प्रकाशित है।
(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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