आदिवासी भाषा ‘हो’ को द्वितीय राजभाषा दिवस के रूप में स्वीकार किए जाने की 14वीं वर्षगांठ के अवसर पर प्रसिद्ध कवि व साहित्यकार कांजी पटेल द्वारा संकलित एक किताब का विमोचन किया गया। यह आयोजन गत 30 अगस्त को झारखंड के चाईबासा स्थित पिल्लई टाऊन हॉल में किया गया। कांजी पटेल द्वारा संकलित किताब में 140 भाषाओं में लिखी 400 आदिवासी कवियों की रचनाओं का हिंदी व अंग्रेजी में अनुवाद शामिल है। इसका शीर्षक है– ‘अनुत्तरित लोग : भारतीय समकालीन आदिवासी कविता संचय’। इसमें खोरठा को भी शामिल किया है। इस संकलन में खोरठा के साहित्यकार प्रहलाद चंद्र दास और शांति भारत की कविताएं भी शामिल हैं। इसके अलावा इस कार्यक्रम में ‘हो’ भाषा के विकास को लेकर कई सवाल उठाए गए।
बता दें कि ‘हो’ आदिवासी झारखंड के कोल्हान क्षेत्र का एक बहुसंख्यक आदिवासी समुदाय है। संकलन के विमोचन के अवसर पर कांजी पटेल ने आदिवासी ‘हो’ समाज के पढ़े-लिखे युवा लेखकों-कवियों को संबोधित करते हुए कहा कि वे लेखन व साहित्य सृजन के कार्यों में आगे आएं और लेखन की परंपरा को सशक्त बनाएं।
इस समारोह में झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश आदि राज्यों से कई साहित्यकार शामिल हुए। इनमें अनुज प्रधान, शांति भारत, मदन मोहन सोरेन, सिदेश्वर सरदार, प्रदीप कुमार, पाईकिराय चम्पिया, तिलक बारी, रमेश चंद्र सावैंया, बेला जेराई, दांसर बोदरा, जवाहरलाल बांकिरा, गणेश मुर्मू और सतीश चंद्र सामड़ सहित अनेक गणमान्य शामिल रहे। कार्यक्रम में ‘हो’ भाषा-भाषी छात्र-छात्राओं ने अपनी मातृभाषा में कविता पाठ किया। ‘हो’ द्वितीय राजभाषा कार्य समिति के मुख्य संयोजक व ‘हो’ भाषा के साहित्यकार डोबरो बुड़ीउली एवं शांति सावैंया ने कार्यक्रम का संचालन किया। जबकि राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, भारत सरकार के पूर्व संयुक्त निदेशक श्यामलाल पूरती ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की और काशराय कुदादा ने बीजभाषण दिया।
कार्यक्रम का प्रारंभ ‘हो’ भाषा की वाराङ क्षिति लिपि के आविष्कारक और भाषाविद् लको बोदरा (19 सितंबर, 1919 – 29 जून, 1986) की तस्वीर पर माल्यार्पण के साथ हुआ।

उल्लेखनीय है कि वाराङ क्षिति लिपि पूर्वी भारत की आदिवासी ‘हो’ भाषा को लिखने के लिए बनाई गई एक लेखन प्रणाली है। लको बोदरा ने इस लिपि के निर्माण के लिए गहन शोध किया और इसके विकास और प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने वाराङ क्षिति लिपि के निर्माण और ‘हो’ भाषा के प्रसार में अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। लको बोदरा ने न केवल वाराङ क्षिति लिपि का आविष्कार किया, बल्कि ‘हो’ भाषा का एक वृहद् शब्दकोश भी तैयार किया।
‘हो’ साहित्यकार डोबरो बुड़ीउली ने बताया कि ऑस्ट्रेलिया के मोनाश यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता डॉ. प्रियदर्शी चौधरी सहित भारत, ऑस्ट्रेलिया एवं अमेरिका आदि देशों के आठ वैज्ञानिकों की रिसर्च को दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित जर्नल ‘प्रोसिडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस’ (पनास) में प्रकाशित किया है, जिसमें कहा गया है कि धरती पर समुद्र की सतह से ऊपर भूकंप की वजह से उभरने वाला सबसे पहला भूभाग झारखंड का ‘सिंहभूम’ है और ‘हो’ समुदाय ने कई सभ्यताओं को अपने गीतों में, कहानियों में और मौखिक साहित्य में इसी का प्रमाण देते हुए सदियां गुजार दी। वाराङ क्षिति लिपि प्रवर्त्तक लको बोदरा द्वारा लिखित पुस्तक ‘षड़ा बुड़ा संगेन’ में भी यही उद्धरण पढ़ने को मिलती है कि पहले यह धरती पूरी तरह से जलमग्न थी।
डोबरो बुड़ीउली ने आगे कहा कि सभ्यताओं के विकास की इस नवीन प्रतिपादित सिद्धांत की बात करें तो पूरी दुनिया को मानना होगा कि सिंहभूम, यानी कोल्हान ही वह स्थान है, जहां मानव ने भाषा का प्रयोग किया और हो समुदाय अब भी यहीं है। उसका स्थान परिवर्तन नहीं हुआ है। ‘हो’ समुदाय की अपनी भाषायी पहचान बचाये रखने के संघर्ष को अपनी जमीन को बाहरी अतिक्रमण से बचाने के लिए ‘हो’ समुदाय का सन् 1820-21 का हो विद्रोह, सिरिंगसिया घाटी युद्ध में जीत, 1831-32 का कोल विद्रोह, फिर बंगाल रेगुलेशन 1833 के द्वारा हो भाषायी क्षेत्र का निर्धारण और 1837 में नॉन रेगुलेटेड ट्रैक्ट के रूप में एक भाषायी स्वशासी प्रशासनिक क्षेत्र कोल्हान गवर्नमेन्ट ईस्टेट की घोषणा और ‘हो’ भाषा को प्रशासनिक और न्यायिक भाषा बनाया जाने के फैसले के सापेक्ष देखा जा सकता है।
डोबरो बुड़ीउली कहते हैं कि भारत के मौलिक अधिकार संविधान के भाग 3 अनुच्छेद 12 से 35 तक वर्णित हैं। इन मौलिक अधिकारों में अनुच्छेद 19 से 22 में स्वतंत्रता भी एक अधिकार है, जिसके अंतर्गत अनुच्छेद 19 में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। लेकिन 1947 के बाद मिले अधिकारों को लागू करने का जो काम सरकारों को करना था, वे आज भी उनकी कार्य संस्कृति में कहीं नहीं है। आज भी ‘हो’ द्वितीय राजभाषा एक स्वतंत्र विभाग के लिए मोहताज है।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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