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छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद के खात्मे की सरकार की मंशा ही नहीं : मनीष कुंजाम

“जब नक्सलियों से बातचीत होगी तो मुझे ऐसा लगता है कि बातचीत करने के उपरांत वे अपना हथियार छोड़ सकते हैं। और यदि ऐसा हुआ तो पूरे बस्तर में कदम-कदम पर अर्द्धसैनिक बलों के जो कैंप बनाए गए हैं, उन्हें हटाने होंगे। इसका मतलब यह होगा कि बस्तर में जो खनिज संसाधन हैं, वन-संसाधन हैं, उनका दोहन वह आसानी से नहीं कर सकेगी।” पढ़ें, छत्तीसगढ़ के पूर्व विधायक मनीष कुंजाम से यह साक्षात्कार

छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में अब भी आदिवासियों के सवाल जस के तस हैं। यह स्थिति तब है जब वहां के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साई स्वयं आदिवासी हैं। आए दिन नक्सलियों के नाम पर ग्रामीणों की एनकाउंटर में हत्या को लेकर सवाल उठते हैं। खनन कंपनियों के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ पूरे बस्तर के आदिवासी आंदोलनरत हैं। इन परिस्थितियों के बारे में पूर्व विधायक मनीष कुंजाम से फारवर्ड प्रेस ने दूरभाष के जरिए बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का आंशिक तौर पर संपादित अंश

बस्तर में इन दिनों पुलिस पर फर्जी एनकाउंटर करने के आरोपों का सिलसिला रूकने का नाम नहीं ले रही। एक तो हाल की घटना कोंडागांव जिले की है, जहां बीते 20 अगस्त को अभय नेताम नामक एक युवक को नक्सली बताकर गोली मारी गई। इन घटनाओं को आप किस रूप में देखते हैं?

देखिए, पुलिस आज भी इन इलाकों में सही तरीके से जांच नहीं कर रही है। वह शक के आधार पर किसी को भी पकड़कर के अंदर तो कर ही रही है, मारने का भी काम भी कर रही है। यह बहुत पहले से ही चलता रहा है। लेकिन हम उम्मीद कर रहे थे कि कम-से-कम इस समय ये घटनाएं न हों, लेकिन यह सब हो रहा है। बीजापुर में भी एक स्कूल के रसोइए को पुलिस ने पकड़ कर मार डाला। कोंडागांव वाली घटना हो गई। ऐसी घटनाएं बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। हालांकि इन घटनाओं के घटित होने पर अब मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता है, क्योंकि हम करीब-करीब पिछले 20 वर्षों से यह सब देख रहे हैं। पहले [सलवाजुडुम के समय] बहुत ज्यादा था और अब थोड़ा कम है। लेकिन मैं समझता हूं कि यह बिलकुल बंद हो जाना चाहिए जो कि नहीं हो रहा है। और यह बहुत चिंता की बात है।

पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार और मौजूदा भाजपा सरकार में पुलिस की कार्यशैली में कोई बदलाव आया है?

नहीं, पुलिस तो पुलिस ही है। कांग्रेस के समय भी यही चलता रहा और इस समय भी यही हो रहा है। कोई बुनियादी फर्क नहीं है।

केंद्र सरकार के द्वारा बार-बार कहा जाता है कि हम नक्सलवाद खत्म कर देंगे या यह भी कि खत्म हो चुका है। वस्तुस्थिति क्या है?

देखिए, यह बात सच है कि पिछले करीब साल भर के भीतर बहुत ज्यादा संख्या में नक्सली मारे भी गए हैं। उनके नेशनल कमेटी के बड़े-बड़े लीडर्स मारे गए हैं। उनके संगठन में काम करने वाले लड़के काफी संख्या में मारे गए। यह भी सच है कि पहली मर्तबा और बहुत बड़ी संख्या में नक्सलियों ने सरेंडर भी किया है और वे कर भी रहे हैं। यह भी हकीकत है कि कई लड़के छोड़कर गांवों में जा रहे हैं, जो आज की तारीख में सरेंडर के रूप में सामने नहीं आ रहे हैं। लेकिन हमारे पास कई गांवों से सूचनाएं हैं। इन सबके बावजूद नक्सलवाद खत्म नहीं हुआ और निकट भविष्य में इसके खत्म होने की कोई संभावना नहीं है। देश के गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि मार्च, 2026 तक नक्सलवाद पूरी तरह खत्म हो जाएगा। लेकिन मैं यूं ही नहीं कह रहा हूं कि यह संभव नहीं है।

पुलिस के अंदर जो बड़े अधिकारी हैं, वे पत्रकर लोग हैं जो नक्सलवाद को समीप से कवर करते हैं, और जो सामान्य जन हैं, सभी कह रहे हैं कि अब तो छह-सात महीने ही बचे हैं मार्च आने में। इतनी जल्दी नक्सलवाद खत्म हो जाएगा, यह तो संभव नहीं है। एक बात और यह कि अभी नक्सलियों के बारे में सरकार की जो पॉलिसी है, वह यह है कि या तो ये लोग सरेंडर कर दें या मरने के लिए तैयार रहें। एकदम इसी लाइन पर सरकार चल रही है। पूरे देश-दुनिया के लोगों ने देखा कि मई के महीने में सुकमा जिले के दक्षिण हिस्से में एक पहाड़ है, जिसको करिगुट्टा नाम से काफी जाना जाता है, उसमें करीब 20 हजार से ज्यादा पुलिस के जवान लगे थे। उन 20 हजार जवानों को उस पहाड़ पर ऊपर पहुंचने में या कहिए कि एक तरह से पहाड़ पर कब्जा करने में 20 दिन लग गए। इस तरह के पहाड़ बस्तर के अंदर बहुत सारे हैं। बहुत सारे जंगल हैं और नदियां हैं।

नक्सलियों को मार कर नक्सलवाद खत्म करेंगे, अगर सरकार की यही योजना है तो मैं समझता हूं कि यह सफल नहीं होने वाला है। आज यह भी एक बात ध्यान रखने की है कि जितने लड़के नक्सलवाद छोड़कर सरेंडर कर रहे हैं, मेरे ख्याल से उनमें अपवाद के रूप कुछ ही हथियार लेकर आ रहे हैं। सब लोग बिना हथियार के आकर सरेंडर कर रहे हैं। जाहिर तौर पर उन्होंने अपने हथियारों को कहीं न कहीं जंगल में छुपा दिया होगा, किसी गुफा में रख दिया होगा या फिर जमीन खोदकर कहीं सुरक्षित रख दिया होगा। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि उनके हथियार पुलिस के हाथ नहीं लग रहे हैं।

मैं इसलिए कह रहा हूं कि इन जंगलों में जो लड़के लोग काम कर रहे हैं, उनको वैसे भी छोड़ पाना मुश्किल है और दूसरा यह है कि ये लोग अभी अलग-अलग सिविल ड्रेस में, अलग-अलग रंग-रूपों में, पोशाकों में घूम रहे हैं। तो ऐसे में मार कर नक्सलवाद खत्म करने वाला मामला तो हमारे पल्ले नहीं पड़ता और यह सही भी नहीं होगा। जब माओवादी कह रहे हैं कि हमलोग बातचीत करने के लिए तैयार हैं, शांति वार्ता के लिए तैयार हैं तो सरकार को उनसे बात करनी चाहिए।

मनीष कुंजाम, पूर्व विधायक, छत्तीसगढ़

मैं पहले भी कई साक्षात्कारों में यह कह चुका हूं। अभी जून-जुलाई तक नक्सलवादियों के बड़े नेताओं ने पांच पत्र भेजे। उन्होंने कहा कि हम बात करना चाहते हैं। अंतिम पत्र मल्लिकार्जुन खरगे जी के नाम से था और उसके पहले का पत्र प्रधानमंत्री मोदी के नाम से। पत्रों के मजमून को पढ़कर लगता है कि वे बहुत उदार होकर या कहिए कि झुक कर अपनी बात कह रहे हैं। यह उनके तौर-तरीके से बिल्कुल अलग है।

मैं कहना यह चाह रहा हूं कि ये लोग [नक्सली] भी देश के लोग हैं। देश के बाहर किसी बार्डर पर जाकर के देश के खिलाफ षड्यंत्र नहीं कर रहे हैं, देश के अंदर लड़ रहे हैं। उनका यह तरीका गलत है। आज की तारीख में हथियार के बल पर आप कोई लड़ाई नहीं जीत सकते। यह संभव ही नहीं है। वे सब जान रहे हैं या हो सकता है कि नक्सलियों के शीर्ष नेताओं को थोड़ी सद्बुद्धि आई हो, इसलिए वे लोग बातचीत के बाद हथियार छोड़ना चाहते हों। मुझे ऐसा लगता है कि ये देश के ही लोग हैं, आपके और हमारे भाई-बंधु हैं तो उनसे बातचीत करने में कोई दिक्कत नहीं है। सरकार जब पूर्वाेत्तर के अलगावादी तत्वों से देश के बाहर जाकर कभी सिंगापुर तो कभी मलेशिया में बातचीत कर सकती है और कश्मीर, पंजाब के अलगाववादियों से सरकार बातचीत करती भी रहती है और जब माओवादी स्वयं बातचीत करने के लिए तैयार हैं तो उनसे बातचीत नहीं करना समझ से परे है। आखिर राज्य माओवादियों से क्यों बातचीत नहीं करना चाहता है?

यह बड़ा मुद्दा है और मैं कहता हूं कि इसके पीछे का सच यह है कि जब नक्सलियों से बातचीत होगी तो मुझे ऐसा लगता है कि बातचीत करने के उपरांत वे अपना हथियार छोड़ सकते हैं। और यदि ऐसा हुआ तो पूरे बस्तर में कदम-कदम पर अर्द्धसैनिक बलों के जो कैंप बनाए गए हैं, उन्हें हटाने होंगे। यह सवाल तो उठेगा ही कि ये जितने कैंप आपने [राज्य ने] बस्तर की धरती पर बना रखा है, राज्य से बातचीत के उपरांत नक्सलियों के आत्मसमर्पण के बाद उनका क्या औचित्य है। लोग तो कहेंगे ही जवानों को वहां भेजो जहां उनकी आवश्यकता है। जिधर का एरिया डिस्टर्ब है, जवानों को वहां भेजो। आप देखिए कि हमारे बस्तर में सीआरपीएफ के पारा मिल्ट्री जवान हैं, सीमा सुरक्षा बल के जवान हैं, आईटीबीपी के जवान हैं। उनका बस्तर में क्या काम रह जाएगा, जब यह सवाल उठेगा तो सरकार के पास कोई जवाब भी नहीं रहेगा और उसे जवानों को बस्तर से बाहर भेजना होगा। और उन्हें बाहर भेजने का मतलब यह होगा कि बस्तर में जो खनिज संसाधन हैं, वन-संसाधन हैं, उनका दोहन वह आसानी से नहीं कर सकेगी। अभी कारिगुट्टा के पहाड़ों के आसपास के इलाकों में यूरेनियम पाए जाने की संभावना बताई जा रही है। अभी तो अर्द्धसैनिक बलों और अन्य जवानों की सहायता से वह दोहन करने में कामयाब भी हो रही है। और यह भी देखिए कि संविधान में पांचवीं अनुसूची और पेसा जैसे कानून के कारण यहां के आदिवासियों को थोड़ा-बहुत संरक्षण प्राप्त है। अगर आदिवासी इन अधिकारों और कानून के आधार पर लड़ेंगे तो राज्य के लिए संसाधनों के दोहन की खुली छूट देने में मुश्किलें आएंगी। लेकिन सरकार जानती है कि जब तक जवानों के कैंप रहेंगे आदिवासियों को दबाया जा सकता है। तमाम कानूनों के परे जाकर यह सब किया जा सकता है। मेरा मानना है कि इसी कारण राज्य नक्सलियों से बातचीत नहीं करना चाहता है। नक्सलवाद खत्म हो, ऐसी उनकी मंशा ही नहीं है।

खबर है कि बस्तर में अनेक पत्रकारों को भी जेल में डाल दिया गया है। इसे आप किस रूप में देखते हैं?

देखिए, कुछ पत्रकारों को तो सचमुच जेल में डाला गया है। उनके ऊपर कई तरह के आरोपों को मढ़कर। दंतेवाड़ा, सुकमा इलाके के कुछ पत्रकार लोग थे। उनकी गाड़ी में गांजा वगैरह जबरदस्ती डाल दी गई और आंध्र प्रदेश की पुलिस उन्हें पकड़ कर ले गई। उन्हें जेल भेज दिया गया। इसे लेकर पूरे पत्रकारों ने सुकमा में धरना-प्रदर्शन और आंदोलन किया। इसमें छत्तीसगढ़ पत्रकार संघ के लोगों के अलावा महाराष्ट्र, ओड़िशा और तेलंगाना आदि राज्यों के पत्रकार भी शामिल हुए। मुख्य बात यह है कि ऐसी कई घटनाएं घटित हो रही हैं। कभी किसी पत्रकार पर नक्सलवाद का आरोप मढ़कर तो कहीं उन्हें किसी मामले में अभियुक्त बनाकर निशाना बनाया जा रहा है।

अभी बहुत दिन नहीं हुए जब आपके ऊपर तेंदूपत्ता बोनस वितरण में घोटाले का आरोप लगाया गया। इस मामले में आपकी प्रतिक्रिया क्या है?

हां, इस पर बहुत चर्चा हुई है। राष्ट्रीय स्तर पर ‘इंडियन एक्सप्रेस’ व ‘द हिंदू’ ने और स्थानीय अखबारों ने इसके बारे में खबरों को प्रकाशित किया। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने भी इस खबर को दिखाया। इसके अलावा सोशल मीडिया पर काफी कुछ लिखा गया।

दरअसल तेंदूपत्ता का जो बोनस आता है, इसकी एक अलग लंबी कहानी है। मैं संक्षेप में बता रहा हूं। वर्ष 2021-22 में जो बोनस दिया जाना था, उसका पैसा अभी 2024 में लोकसभा चुनाव के पहले आया। इस बोनस को हर हाल में फरवरी-मार्च 2024 तक लाभार्थियों के बीच वितरित कर दिया जाना था। लेकिन सारा पैसा सरकारी अधिकारी और तेंदूपत्ता सहकारी समितियों के अधिकारी मिलकर खा गए। हम लोगों को कुछ पता नहीं चला। वन विभाग के अंदर के एक सूत्रों से हमें पता चला कि बोनस का पैसा आया है और ये सब निकाल कर खा गए। तो इस जानकारी के मिलने के बाद मैंने स्थानीय समितियों से जानकारी मांगी। कहा गया कि डीएफओ साहब ने कहा कि पैसा निकालकर दो तो हमने दे दिया।

यह सब जानने के बाद मैंने 8 जनवरी, 2025 को जिलाधिकारी से मिलकर ज्ञापन दिया। उसी दिन प्रेस के साथियों को बुलाकर इस मामले की जो जानकारियां मेरे पास थीं, उन्हें दिया। तब मैंने प्रेस के साथियों से कहा कि यह केवल डीएफओ लेवल का घपला नहीं है। ऊपर के बड़े अधिकारियों या मंत्रियों की शह के बिना इतना बड़ा घोटाला नहीं हो सकता है। उस दिन जो मैंने बातें कही, वह कुछ अखबारों में आधी छपीं तो किसी ने पूरी खबर को छापा। इसके बाद भी जब कोई कार्रवाई नहीं की गई तब हमलोगों ने विरोध करना जारी रखा तब 7 मार्च को डीएफओ को सस्पेंड कर दिया गया। लेकिन हमारा कहना था कि केवल डीएफओ को सस्पेंड करने से यह मामला नहीं सुलझने वाला है। फिर हमलोगों ने 10 मार्च को सुकमा में बड़ा धरना दिया। हमारा कहना था कि प्रबंधकों पर भी कार्रवाई होनी चाहिए। और उससे भी ज्यादा जरूरी है कि जनता की मेहनत का, उनके खून-पसीने की कमाई है, वह जनता को मिलनी चाहिए।

और देखिए कि ठीक एक महीने बाद अप्रैल की 10 तारीख को मेरे घर में छापा पड़ता है। मुझसे कहा गया कि आपके पास तेंदूपत्ता के बोनस के पैसा का जो घपला हुआ, वह आपके यहां भी आ सकता है, इसलिए हम जांच कर रहे हैं। मैंने कहा कि यह तो गजब है। इस घपले को उजागर मैंने किया, नहीं तो दबा ही हुआ था, पता ही नहीं लगता।

मुझे मिली जानकारी के मुताबिक 8 अप्रैल को केस एंटी करप्शन ब्यूरो द्वारा दर्ज किया गया। एसीबी द्वारा कोर्ट में राजनंदगांव के एक व्यक्ति को पेश किया गया, जो शायद पुलिस का मुखबिर है। उसने सूचना दी कि सुकमा में तेंदूपत्ता बोनस में घपला हुआ है। उसके आधार पर मुकदमा दर्ज किया गया। जबकि मैंने यह बात जनवरी से कह रहा था तब मेरी बात पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया।

तो अजब-गजब कहानी है। कुल मिलाकर बात ऐसी है कि हमारे यहां छापा मारने के पीछे का बड़ा कारण कुछ और है। बस्तर के अंदर अडानी और जिंदल को खनन के अधिकार दिए जा रहे हैं। यूरेनियम आदि के मिलने की बातें सामने आई हैं। इस इलाके में रेलवे लाइन आ रहा है और बड़ी बड़ी रोड बनाने की भी बातें हो रही हैं। तो मुझे लग रहा है सरकार में बैठे लोगों को यह सब मालूम हो गया है कि यहां एक ही आदमी है जो इन सबका विरोध करेगा और वह है मनीष कुंजाम। तो उसे किसी न किसी मामले में उलझाकर रखा जाए। मुझे उनका यही उद्देश्य लगता है। रही बात मेरे घर में छापे की तो मेरे घर में उन्हें मिलेगा क्या?

उन्हें आपकी डायरी मिली?

हां, मेरी डायरी लेकर गए हैं। और अभी तक वापस दिया भी नहीं है।

(संपादन : राजन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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