धीरेंद्र झा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के वरिष्ठ नेता हैं। बिहार विधानसभा चुनाव की व्यस्तता के बीच उन्होंने दलितों और पिछड़ों के सवालों पर फारवर्ड प्रेस से बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित अंश
भाकपा माले की दृष्टि में दलितों-पिछड़ों के कौन-कौन से मुद्दे अहम हैं?
देखिए, कलेक्टिवली तो इंडिया गठबंधन की तरफ से हम लोगों की कोशिश है कि बिहार में सामाजिक बदलाव के जो मुद्दे हैं, उन्हें व्यापक फलक पर उठाया जाए, क्योंकि दलितों और पिछड़ों के साथ एक बड़ा धोखा हुआ है। एक लंबी लड़ाई के बाद बिहार में सामाजिक-आर्थिक गणना हुई। जाति की भी गणना हुई और उसके आधार पर बिहार विधानसभा में 65 प्रतिशत आरक्षण के लिए कानून बनाया गया। इसके अलावा गरीब-गुरबों के विभिन्न आयामों को चिह्नित करते हुए बड़े कदम उठाने का निर्णय कैबिनेट के स्तर से लिये गए। गजट प्रकाशित हुआ लेकिन नीतीश जी भाजपा के साथ चले गए। और सभी पहलकदमियों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। मैं दो मुद्दों की बात करता हूं। एक तो भाजपा की साजिश के जरिए 65 प्रतिशत आरक्षण का जो प्रावधान किया गया था, उसको कोर्ट के बहाने निरस्त करवा दिया गया। दूसरा मुद्दा 94 लाख परिवारों को दो-दो लाख रुपए देकर उनके आर्थिक सशक्तिकरण का था, ताकि उनका पिछड़ापन दूर हो, को भी स्थगित कर दिया गया। इन प्रश्नों को मजबूती से इंडिया एलायंस के स्तर पर उठाया गया है और तेजस्वी जी ने भी इस मुद्दे को प्रमुखता से लिया है। यह हमारा कलेक्टिव विजन है कि 65 प्रतिशत आरक्षण को हर हाल में बिहार में लागू करेंगे।
अति पिछड़ा वर्ग के लिए क्या कोई खास एजेंडा तय किया है आपकी पार्टी ने?
आप स्वयं बिहार से परिचित हैं। बिहार में सामाजिक न्याय के केंद्र में मुख्य रूप से दलित और अति पिछड़े ही हैं। यह इसलिए कि सामाजिक तौर पर सबसे ज्यादा प्रताड़ित और सबसे ज्यादा हमले का शिकार इन्हीं समुदायों के लोग हुए हैं। फिर चाहे वह आर्थिक स्तर हो, शिक्षा का स्तर हो, सभी स्तरों पर पिछड़े इन्हीं समुदायों के लोग हैं। विश्वविद्यालयों से लेकर राजनीति के स्तर पर यह संघर्ष जारी है। और मैंने पहले ही कहा कि सामाजिक प्रताड़ना सबसे बड़े स्तर पर दलित और अति पिछड़ों को झेलना पड़ा है। बिहार में इसके खिलाफ संघर्ष की चैंपियन भाकपा माले रही है। हर जगह पर जितनी लड़ाइयां हुई हैं, जितने संघर्ष हुए हैं, आप देखेंगे कि सोशल डिग्निटी के सवाल पर हुए हैं। उनके आने-जाने के सवाल को लेकर संघर्ष हुआ है। चाय-पानी पीने को लेकर संघर्ष हुए हैं। पोखरा के पानी और नदी के घाट के इस्तेमाल के सवाल पर संघर्ष हुए हैं। ठीक से कपड़ा पहन करके चलने काे लेकर संघर्ष हुए हैं। बेहतर ढंग से शादी-विवाह के सवाल को लेकर संघर्ष हुए हैं। आप देखेंगे कि इन सभी सवालों को लेकर बिहार के दलितों और अति पिछड़ों पर हमले हुए हैं। उनकी लड़ाई और उनके आंदोलन को भाकपा माले ने बहुत ही मजबूती से लड़ने का काम किया है। इसका परिणाम भी सामने आया है।
इस बार इंडिया एलायंस के भीतर अति पिछड़ा वर्ग के लिए एक स्पेशल चार्टर भी सामूहिक रूप से हमलोगों ने घोषित किया है। हमने कहा है कि हमारी सरकार बनने पर राज्य में एससी-एसटी एट्रोसिटी एक्ट की तर्ज पर ईबीसी एट्रोसिटी एक्ट बनाई जाएगी। इसके अलावा पंचायती और शहरी निकायों में अति पिछड़ों के लिए वर्तमान में जो 20 प्रतिशत आरक्षण है, उसमें वृद्धि की जाएगी। इसी तरह शिक्षा में उनकी भागीदारी का सवाल है तो हमलोगों ने तय किया है कि शिक्षा के अधिकार के तहत 50 प्रतिशत आरक्षण इन समुदायों को दिया जाए। आवास का सवाल एक बड़ा सवाल है। बिहार की गरीबी की एक बड़ी वजह जो मैं मानता हूं, वह यह है कि 30 प्रतिशत आबादी ऐसी है जिसके पास आज तक कोई स्थायी आवास नहीं है। इनमें मुख्य रूप से दलित और अति पिछड़े वर्ग के लोग हैं। इनमें ओबीसी की भी जातियां हैं। कुछ ऊंची जातियों के लोग भी हैं। उनके पास आवास के लिए जमीन का प्रश्न आज तक हल नहीं हुआ। जब उनके पास आवास के लिए जमीन ही नहीं है तो उनके पास अपना मकान नहीं है। और मकान नहीं है तो सामाजिक सम्मान नहीं है। सामाजिक सम्मान का मसला सीधे-सीधे उनके आवास से जुड़ा है। इन प्रश्नों को लेकर हम लोग मजबूती से लड़ते रहे हैं। इंडिया गठबंधन के भीतर में भी यह बात हुई है कि हर किसी को कम-से-कम 5 डिसमिल जमीन देहाती इलाके में और तीन डिसमिल जमीन शहरी इलाके में दिया जाएगा। इसे भी इंडिया एलायंस ने अपने घोषणा पत्र में शामिल किया है। तो मैं मानता हूं कि दलित का प्रश्न हो या ईबीसी का प्रश्न हो, बहुत मजबूती से आगे बढ़ा है और एक और प्रश्न जिसको और मजबूती से हम आगे बढ़ाना चाहते हैं वह शेड्यूल कास्ट सब प्लान है। आप तेलंगाना को देख लें, कर्नाटक या दक्षिण भारत के अन्य राज्यों को देखें, एससी-एसटी सब प्लान की वजह से दलितों और आदिवासियों का चहुंमुखी विकास हुआ है। हजारों की संख्या में आवासीय स्कूल चल रहे हैं। वहां इन वर्गों के बच्चे जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन आप देखिए कि बिहार में शेड्यूल कास्ट सब प्लान के पैसे से मुख्यमंत्री का कार्यक्रम आयोजित होता है, प्रधानमंत्री का कार्यक्रम आयोजित होता है और सारे पैसे का बंदरबांट होता है। शेड्यूल कास्ट के लिए जो पैसा जिस काम में खर्च किया जाना चाहिए, उसे दूसरे काम में खर्च किया जा रहा है। हम शेड्यूल कास्ट के हक का पैसा उनके विकास के लिए खर्च करेंगे।

दांगी जैसी अनेक सक्षम जातियों को ओबीसी की सूची से निकालकर ईबीसी में डाल दिया गया है। यह सवाल भी है।
देखिए मैं मानता हूं कि नीतीश कुमार ने शुरुआती दौर में निश्चित रूप से कुछ अच्छे कदम उठाए थे, जिसका अच्छा खासा असर हुआ। लेकिन बाद में चाहे महादलित का एजेंडा हो चाहे अति पिछड़ा का एजेंडा हो, उन्होंने राजनीतिक लाभ लेना शुरू कर दिया और मुख्य सवाल गौण हो गया। इसलिए इंडिया गठबंधन के मंच से हमलोगों ने कहा है कि इन सारे प्रश्नों पर एक कमेटी गठित की जाएगी जो यह तय करेगी कि किन जातियों को पिछड़े वर्ग के अनुसूची-1 में रखना है और किन जातियों को अनुसूची-2 में, ताकि किसी का डिस्क्रिमिनेशन नहीं हो और किसी का हक कोई दूसरा समूह नहीं खा जाए। इसकी गारंटी की जाएगी।
यह भी देखा जाता है कि अति पिछड़ी जातियाें की सघन आबादी नहीं होती, जिसके कारण आबादी में 36 प्रतिशत की भागीदारी के बावजूद उन्हें राजनीति में समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता। आप क्या कहेंगे?
नहीं, उसके दो कारण हैं। एक तो जो आप 36 प्रतिशत कह रहे हैं तो उसमें एक बड़ी आबादी मुस्लिम समुदाय के अति पिछड़ी जातियों की है। मुस्लिम समुदाय की अति पिछड़ी जो जातियां हैं, उनकी बड़ी-बड़ी बस्तियां हैं। आप सिवान, गोपालगंज, दरभंगा और पूर्वी बिहार के इलाके में चले जाइए, आपको चाहे वहां अंसारी लोग हों, सब्जीफरोश जातियां हों, उनकी संख्या ज्यादा है। उनकी संगठित बस्तियां भी हैं। ऐसे ही हिंदू अति पिछड़ी जातियां हैं, उनमें भी, जैसे मंडल, धानुक, केवट, मल्लाह, चंद्रवंशी, नोनिया आदि जातियाें की संख्या भी ठीक-ठाक है। आपको इनकी बस्तियां मिलेंगी। शेष जो पेशेवर जातियां हैं, जैसे कि बढ़ई, कुम्हार और लोहार आदि जातियां हैं, इनकी संख्या आपको सघनता के रूप में नहीं मिलेगी। ये बिखरे हुए मिलेंगे तो यह हमारे यहां एक दिक्कत जरूर हुई है कि हमारे यहां जो संसदीय राजनीति में भागीदारी संख्या के आधार पर हुई है। इसलिए निश्चित ही कम संख्या वाली जो जातियां हैं, उनका प्रतिनिधित्व जिस रूप में होना चाहिए वह उस रूप में नहीं हुआ है। इस वजह से उनके भीतर एक हताशा भी है और एक आक्रोश भी। भाजपा उसको भुनाने का काम करती है। लेकिन मुझे लगता है कि भाजपा उनके सवालों को वास्तविक रूप में एड्रेस नहीं कर रही है। उनके संपूर्ण जीवन का जो सवाल है, उसमें उनके आत्मसम्मान का सवाल है, सामाजिक रूप से उनकी बराबरी का सवाल है, भाजपा को इनसे कोई मतलब नहीं है। इंडिया एलायंस के भीतर इसको लेकर गहरी चिंता जाहिर की गई है और उसको लेकर लगातार बहस हो रही है। और इंडिया एलायंस के सीटों के बंटवारे में और उम्मीदवारों के चयन में आप इस बार देखेंगे कि अति पिछड़ी जातियों का बेहतर प्रतिनिधित्व होगा और विधानसभा में भी उसकी अभिव्यक्ति होगी।
हमेशा देखा जाता है कि बिहार की राजनीति में जो अशराफ मुसलमान हैं उनको महत्व दिया जाता है और पसमांदा पीछे छूट जाते हैं। लेकिन अब ये राजनीति के कोर में आ गए हैं। आपकी पार्टी की राय क्या है?
देखिए, कहीं भी अगर डिस्क्रिमिनेशन है, कहीं भी मार्जिनलाइजेशन है, कहीं भी उच्च वर्ग के द्वारा नीचे के लोगों का शोषण और दमन है तो उसके खिलाफ तो हमारी पार्टी लड़ती रही है। हिंदू अपरकास्ट का सामंती वर्चस्व हो या दूसरी कुलीन जातियों जमीदार वर्ग का सामंती वर्चस्व हो, उसके खिलाफ भी लड़ाई हुई है। आप कम्युनिस्ट आंदोलन का इतिहास देखिएगा तो कई जगहों पर मुस्लिम जमींदारों के खिलाफ भी संघर्ष हुए हैं और तीखा संघर्ष हुआ है। इसलिए पसमांदा के जो सवाल हैं, उन सवालों के साथ हमारा गहरा ताल्लुकात रहा है। लेकिन आज का दौर थोड़ा बदला हुआ है। जब संपूर्णता में संविधान पर ही हमला किया जा रहा है, समावेशी समाज पर ही हमला है, धर्मनिरपेक्षता पर ही हमला है तो उस स्थिति में तो मुस्लिम जमात और सभी धर्मनिरपेक्ष लोगों के सामने सवाल है कि कैसे इस फासीवादी निजाम को शिकस्त दी जाए। इस एजेंडा को सामने जरूर रखना चाहिए। हमारे अपने बहुत सारे सवाल हैं और हम उन सवालों का हल निकालेंगे। लेकिन पहले तो इस फासीवादी निजाम को शिकस्त दी जाए, क्योंकि फासीवादी निजाम यदि परास्त नहीं होगा तो सामाजिक न्याय के विभिन्न आयामों का संघर्ष रहा हो, सब कुछ आज के दौर में दांव पर लगा हुआ है। यदि फासीवादी निजाम बिहार जैसी जगह से जीत गया तो वह अपने मंसूबे में सफल हो जाएगा। इस फासीवादी निजाम की मंशा मनुवादी ब्राह्मणवादी सत्ता का फिर से पुनर्स्थापना है। इसके खिलाफ संघर्ष जाति-बिरादरी से परे है। हम हिंदुस्तान को 100 साल पीछे नहीं जाने देंगे। यह सबसे बड़ा सवाल है और इस पर पूरे समाज को, तमाम लोगों को एकताबद्ध होकर इस फासीवादी निजाम की संविधान और लोकतंत्र को हड़पने की पूरी साजिश को हम लोगों को शिकस्त देना है। इस दौर का यह सबसे बड़ा सवाल है। इस सवाल को सामने रखकर ही एक संपूर्ण रूपरेखा बननी चाहिए।
(संपादन : अनिल)
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