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एक दिन अलहदा दीक्षा भूमि पर

स्तूप के भीतर बुद्ध की भव्य प्रतिमा थी ही, लेकिन डॉ. आंबेडकर के स्मृति अवशेष देखकर लगा जैसे इतिहास सजीव हो गया हो। लोगों की श्रद्धा और उनकी आंखों में चमक देखकर मन भर आया। वहां ज्यादा देर रुकना संभव नहीं था। लेकिन वह क्षण अमूल्य था। पढ़ें, भंवर मेघवंशी का यह यात्रा वृत्तांत

गत 13 अक्टूबर, 2025 की शाम को मैं अपने एक मित्र के साथ नागपुर स्थित नागलोक पहुंचा, जो कामठी रोड़ पर भीलगाव में स्थित है। इसे नागार्जुन ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट के रूप में जाना जाता है। यह मात्र एक संस्थान भर नहीं है। यह बौद्ध धम्म और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों का जीवंत केंद्र है। यहां की हवा में बौद्ध दर्शन की सुगंध है। नागलोक का अपना एक इतिहास है। त्रिरत्न बौद्ध महासंघ द्वारा स्थापित यह केंद्र 15 एकड़ भूमि पर फैला हुआ है, जहां 1980 के दशक से युवाओं को बौद्ध शिक्षाओं की ट्रेनिंग दी जाती है। इसके संस्थापक संगरक्षित ने इसे डॉ. आंबेडकर के नवयान बौद्ध धम्म के प्रचार के लिए बनाया था।

यहां दो मुख्य कार्यक्रम चलते हैं। एक आठ महीने का आवासीय धम्मसेखीया कोर्स, जिसमें बौद्ध सिद्धांत, ध्यान और सामाजिक कार्य पर जोर होता है। दूसरा, तीन साल का बीए डिग्री प्रोग्राम है जिसमें आंबेडकरवादी बौद्ध विचारों का अध्ययन कराया जाता है।

यहां देश-विदेश से छात्र आते हैं और यहां की गतिविधियां ध्यान और सामाजिक जागृति से भरी होती हैं। वॉकिंग बुद्धा की 36 फुट ऊंची प्रतिमा यहां का केंद्रबिंदु है, जो चारों ओर घूमने वाले पथ पर खड़ी है। यह मानो कह रही हो कि जीवन की यात्रा निरंतर चलने में है। इसके ठीक सामने डॉ. आंबेडकर की एक दुर्लभ प्रतिमा लगी है, जिसमें बाबा साहेब धोती-कुर्ता पहने लाठी के सहारे बुद्ध की तरफ जाते दिखाई देते हैं।

13 अक्टूबर की शाम नागलोक पहुंचकर हमने वहीं रात्रि विश्राम किया। देर रात तक मैं बाबा साहेब के धम्म दीक्षा समारोह के बारे में सोचता रहा कि कैसे डॉ. आंबेडकर ने 1956 में नागपुर में धम्म दीक्षा ली होगी, वे कौन लोग रहे होंगे जो इस क्षण के साक्षी बने होंगे। मैने उस समय की कल्पना की। आजादी मिले दस साल भी नहीं हुए थे और संविधान को लागू हुए महज़ छह साल हुए थे, अनुसूचित जाति वर्ग जिसे अछूत माना जाता था, जिसके पास न तब तक शिक्षा पहुंची थी और न ही सरकारी नौकरियां, न व्यापार था और न संपत्ति। इसके बावजूद इसके भी लाखों लोग बाबा साहेब के एक आह्वान पर चले आए। कहते हैं कि उस दिन नागपुर के बाजार में सफेद कपड़ा खत्म हो गया था और सड़कें छोटी पड़ गई थीं। लोग मीलों दूर से पैदल आए थे और तीन दिन की रोटी साथ में बांध कर लाए थे। क्या अदभुत नज़ारा रहा होगा! यह बाबा साहेब की दूरदर्शिता रही कि उन्होंने सद् धम्म का मार्ग फिर से दिखाया, जिससे आज भी करोड़ों लोगों की चेतना आंदोलित हो रही है। यही सब सोचते-सोचते कब नींद ने आ घेरा, पता ही नहीं चला।

दीक्षा भूमि पर बने स्तूप के सामने भंवर मेघवंशी (मध्य में) व अन्य

सुबह पांच बजे जगा, तो हवा में ठंडक थी। ऐसी ठंडक जो मन को शांत करती है। मैंने अपने मित्र के साथ वॉकिंग बुद्धा के इर्द-गिर्द बने पाथ-वे पर प्रातःकालीन भ्रमण किया। वहां चलते हुए हर कदम पर लगा जैसे बुद्ध के उपदेश मेरे साथ चल रहे हों। अनिच्चा, दुख, अनत्ता…। इस पथ पर घूमते हुए मैंने महसूस किया कि यात्रा केवल शारीरिक नहीं, मानसिक भी होती है। मॉर्निंग वॉक के बाद व्हाइट बुद्ध विहार गया। सफेद संगमरमर से बनी बुद्ध प्रतिमा की शांति ऐसी थी कि समय ठहर-सा गया, यहां बैठकर कुछ देर ध्यान किया, और लगा जैसे सारी दुनिया की हलचल बाहर छूट गई हो। वहां से सीधे छह बजे बुद्ध सूर्य विहार पहुंचा, जहां धम्मसेखीया कोर्स के छात्र ध्यान कर रहे थे। एक घंटे का इस सामूहिक ध्यान का अनुभव अवर्णनीय है। ये छात्र विभिन्न पृष्ठभूमि से थे। कुछ ग्रामीण क्षेत्रों से, कुछ शहरों से, दुर्गम पहाड़ों से, सुदूर पठारों से। उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्वोत्तर से लेकर राजस्थान तक से। धम्म सीखने का सबमें एक समान उत्साह था। ध्यान के दौरान मन स्थिर हुआ और ऐसी ऊर्जा मिली जो आगे की यात्रा के लिए जरूरी थी। नागलोक की ये गतिविधियां न केवल व्यक्तिगत विकास करती हैं, बल्कि समाज में वापस जाकर धम्म फैलाने की प्रेरणा देती हैं।

मेरे साथ नागार्जुन ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट के प्राचार्य भानु जी और वैद्य हंसराज जी थे। हम लगभग दस बजे कैब से दीक्षा भूमि पहुंचे। आम नागपुरवासियों के लिए यह अलहदा सुबह थी। फिर भी हजारों लोग पहले से ही इकट्ठा थे। स्टॉल सजाए जा रहे थे। पुलिस ने लगभग एक किलोमीटर पहले से रास्ते को बंद कर दिया था। इसलिए लोग वाहनों से उतर कर पैदल ही जा रहे थे। सुबह-सुबह ही जन सैलाब उमड़ा हुआ था। यह देखना सुखद लगा। दीक्षा भूमि का नाम सुनते ही मन में स्मृतियों का सागर उमड़ता है। यह वह ऐतिहासिक स्थल है जहां 14 अक्टूबर, 1956 को डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। उस दिन अशोक विजयदशमी (दशहरा) के अवसर पर डॉ. आंबेडकर ने महास्थवीर चंद्रमणि से त्रिशरण और पंचशील ग्रहण किया और 22 प्रतिज्ञाएं दी। इस धम्म दीक्षा समारोह में 5 लाख से अधिक लोग शामिल हुए, जो भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा सामूहिक धर्मांतरण था। डॉ. आंबेडकर ने कहा था– “मैं आज बौद्ध धर्म ग्रहण करके अपने जीवन का सर्वोच्च निर्णय ले रहा हूं। यह मेरे जीवन का पुनर्जन्म है।” यह घटना हिंदू धर्म की जाति व्यवस्था के खिलाफ मौन क्रांति थी। दीक्षा भूमि नवयान के रूप में बौद्ध धर्म की गतिशीलता और नवाचार का प्रतीक है। चार एकड़ में फैला यह स्मारक 1968 में बनना शुरू हुआ, जिसमें सांची के स्तूप की प्रतिकृति के रूप में निर्मित किया गया है। यहां बोधि वृक्ष और भिक्खु-भिक्खुनी निवास हैं तथा दीक्षा भूमि का प्रबंधन देखने वाली कमेटी का दफ्तर भी।

हमने तय किया कि सबसे पहले हम स्तूप में जाएंगे, जहां डॉ. आंबेडकर की अस्थियां रखी हैं। हालांकि भीड़ बढ़ती जा रही थी, लेकिन व्यवस्था सुव्यवस्थित थी। महाराष्ट्र पुलिस, समता सैनिक दल और अन्य स्वयंसेवकों ने मोर्चा संभाल रखा था। हम आधे घंटे के प्रयास में अंदर पहुंच गए। स्तूप के भीतर बुद्ध की भव्य प्रतिमा थी ही, लेकिन डॉ. आंबेडकर के स्मृति अवशेष देखकर लगा जैसे इतिहास सजीव हो गया हो। लोगों की श्रद्धा और उनकी आंखों में चमक देखकर मन भर आया। वहां ज्यादा देर रुकना संभव नहीं था। लेकिन वह क्षण अमूल्य था। बाहर आकर बोधि वृक्ष के नीचे 22 प्रतिज्ञाएं पढ़ी। वे प्रतिज्ञाएं जो समानता, बंधुत्व और ज्ञान पर जोर देती हैं। यहां लगे एक अस्थाई स्टॉल पर विभिन्न भारतीय भाषाओं में संविधान की प्रतियां बिक रही थीं। वहीं कुछ युवतियां उत्साह से कैलेंडर बांट रही थीं, मानो वे धम्म की दूत हों। खास बात यह थी कि हर स्त्री-पुरुष चाहे वे वृद्ध हों या बच्चे, सभी श्वेत वस्त्र पहने नजर आए। बहुत सारे संस्थान अपने समूहों के लिए टीशर्ट बनवा कर लाए थे। इस तरह के ग्रुप्स अलग ही नजर आते थे। लोगों के उत्साह, समर्पण और बाबा साहेब के प्रति प्यार और बुद्ध के लिए आदर भाव स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था। इसके बाद हम दीक्षा भूमि प्रबंध समिति के दफ्तर और भिक्खु-भिक्खुनी निवास गए। यहां की सहजता और अनुशासन ने प्रभावित किया।

फिर हम दीक्षा भूमि परिसर में स्थित बुक स्टॉल की ओर निकले, क्योंकि इस बार मेरा मुख्य उद्देश्य किसी कार्यक्रम का हिस्सा बनना बिल्कुल भी नहीं था। मेरा एक मात्र मक़सद किताबें संग्रहित करना था। मैं अपनी आगामी पुस्तक ‘डॉ. आंबेडकर और आरएसएस’ के लिए इन दिनों शोध कर रहा हूं। इसके लिए हिंदी, मराठी और अंग्रेजी के संदर्भ ग्रंथों का एकत्रीकरण जारी है। वैसे तो दीक्षा भूमि पर हर साल अशोक विजयदशमी को धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस मनाया जाता है, जिसमें देश भर से कम-से-कम दस लाख लोग आते हैं और लाखों रुपए का साहित्य बिकता है। लेकिन प्रथम धम्म दीक्षा समारोह 14 अक्टूबर को था, इसीलिए इस तारीख को भी ऐतिहासिक महत्व हासिल हो चुका है और इस दिन भी लाखों लोग दीक्षा भूमि पहुंचते हैं। पूरे नागपुर शहर में जगह-जगह कार्यक्रम और घरों पर रोशनी की हुई नजर आई। ऐसा महसूस हुआ कि आंबेडकरवादियों की दीवाली चल रही है। जैसा कि अब पूरे देश के आंबेडकरवादी आंदोलन की यह परंपरा बन चुकी है कि हर आयोजन में साहित्य बिक्री होती है, यहां भी वही नजारा नज़र आया। बड़े-बड़े स्टॉल से लेकर फुटपाथ पर चादर बिछाकर लोग हिंदी, मराठी, अंग्रेजी भाषा की किताबें बेचते दिखे। मुझे अनेक महत्वपूर्ण किताबें मिलीं, जो मेरे शोध के लिए अमूल्य हैं।

दीक्षा भूमि से बाहर निकलते से पहले ही तथागत ट्रैवल्स के शैलेंद्र मेश्राम जी का कॉल आ गया था। वे और उनकी पत्नी मेघा जी गेट पर थीं। हमने कुछ देर बात की। एक फोटो लिया और फिर सड़क किनारे स्टॉलों की ओर चले। मुख्य द्वार पर भीड़ थी। एक राजनीतिक पार्टी के नेता आए थे। उनके समर्थक नारे लगा रहे थे– “देखो देखो कौन आया, बहुजनों का शेर आया।” मैंने सोचा कि एक अच्छे भले इंसान को यह जानवर की उपमा क्यों? क्या हम प्रकृति में भी श्रेष्ठ-निकृष्ट का भेद करते हैं? लेकिन जल्दी ही यह विचार झटककर आगे बढ़ा। यहां हर तीसरी स्टॉल किताबों की थी। यहां नमामि प्रकाशन के प्रणय पिल्लेवान जी ने मुझसे मिलते ही शिकायत की कि आप बहुजन प्रकाशकों को किताबें प्रकाशित करने के लिए क्यों नहीं देते हैं? उनकी शिकायत में भी अपनत्व था और हमने कुछ देर चर्चा की। तभी प्रोफेसर राजेश नागरकर जी और प्रोफेसर लांघवे जी आ गए। हमारा आत्मीय मिलन हुआ। हमने वहीं सड़क पर खड़े-खड़े नींबू मसाला चाय पी, जो काफी स्वादिष्ट थी। नागरकर जी ने बताया कि चाय वाले बंगाली हैं, जो ऐसे आयोजनों में घूमकर चाय बेचते हैं। कंधे पर पूरी दुकान रखकर चलते हैं। मांगते ही गर्म चाय दे देते हैं और कचरा भी साथ ले जाते हैं। आम आदमी का ऐसा प्रबंधन मुझे सदैव आकर्षित करता है।

हमने करीब साढ़े तीन घंटे तक दो सौ से अधिक स्टॉल देखे। यही गाड़िया लोहार समुदाय की औरतें लोहे का सामान बेच रही थीं। वे राजस्थान के बूंदी से थीं। हर दशहरा पर परिवार सहित आती हैं और दो महीने रहती हैं। और भी बहुतेरे स्टॉल थे। कपड़े, खाना, तस्वीरें और मूर्तियां…सब जश्न में थे। चलते-चलते हमने आंबेडकर बैंक का स्टॉल देखा, जिस पर लिखा था– ‘डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर मल्टीस्टेट कॉ-ओपरेटिव क्रेडिट सोसायटी लिमिटेड (एएमएससी)’। लोग फॉर्म भर रहे थे। शेयर खरीद रहे थे। जानकारी ली तो पता चला कि यह एक मल्टीस्टेट कोऑपरेटिव क्रेडिट सोसायटी है। राजरतन आंबेडकर जी जो डॉ. आंबेडकर के परपोते हैं और वर्तमान में भारतीय बौद्ध महासभा के अध्यक्ष है, के नेतृत्व में यह प्रयास चल रहा है। इसका उद्देश्य आंबेडकरवादी-बौद्ध समुदाय की वित्तीय स्वतंत्रता, और बौद्ध सिद्धांतों पर आधारित बैंकिंग करना है। पांच साल में इसे राष्ट्रीय बैंक बनाने का लक्ष्य है। भारतीय बौद्ध महासभा के राष्ट्रीय सचिव सोशल मीडिया पर धारदार लिखने वाले राहुल शेंडे जी इस पहल से नजदीकी से बावस्ता हैं। उनसे बात हो चुकी थी। हमने बैंक के ऑफिस जा कर देखने का निश्चय किया। हम दीक्षा भूमि से निकले और अगले दस मिनट में दोपहर दो बजे कड़बी चौक पहुंचे। वहां राहुल जी और अन्य साथियों से मिले। निश्चय ही उनके प्रयास उत्साहजनक थे। डॉ. आंबेडकर के नाम पर एक राष्ट्रीय बैंक का विचार सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन को आर्थिक आधार देने का है। बाबासाहेब का सपना भी तो एक आत्मनिर्भर समाज का था और यह पहल उसी दिशा में है। वित्तीय जागरूकता और सहयोगी अर्थव्यवस्था विकसित करने का यह सहकारी प्रयास हमें बहुत अच्छा लगा।

शाम को हम वर्धा जाने के लिए संघमित्रा एक्सप्रेस में सवार हुए। ट्रेन देरी से आई। भीड़ थी, लेकिन सीट मिल गई। अब नागपुर पीछे छूटता जा रहा था, लेकिन मन-मस्तिष्क पर दीक्षा भूमि से मिली ऊर्जा हावी थी। साथ ही यह अफसोस भी कि अशोक विजयदशमी पर न आ सका, संकल्प लिया कि अगली बार जरूर आऊंगा।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

भंवर मेघवंशी

भंवर मेघवंशी लेखक, पत्रकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था। आगे चलकर, उनकी आत्मकथा ‘मैं एक कारसेवक था’ सुर्ख़ियों में रही है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद हाल में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। संप्रति मेघवंशी ‘शून्यकाल डॉट कॉम’ के संपादक हैं।

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