हिंदी पटटी में जिस समय स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ दलितों में ‘आदि हिंदू’ आंदोलन चला रहे थे, उस समय लखनऊ के एक पिछड़ी जाति के लेखक चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु स्वामीजी से प्रभावित होकर उनके आंदोलन से जुड़ गए थे। जिज्ञासु का सबसे बड़ा काम यह था कि उन्होंने दलितों और पिछड़ों को एक सामाजिक मंच पर लाने के लिए ‘बहुजन’ की अवधारणा दी। जिज्ञासु ने ही हिंदी में पहले-पहल कबीर, रैदास, फुले, पेरियार और आम्बेडकर के क्रांतिकारी विचारों से जनता को परिचित कराया। आम्बेडकर की कई महत्वपूर्ण किताबों का उन्होंने अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद करवाया। सबसे बड़ी बात तो यह कि उन्होंने बहुजन के विचारों का प्रचार-प्रसार करने के लिए खुद अपना प्रेस बिठाया। कई सामाजिक संगठनों की स्थापना की और 100 से ज्यादा किताबें लिखीं।
जिज्ञासु ने आदि हिंदू आंदोलन के साथ रहकर, जगह-जगह घूमकर और पीडि़तजनों से मिलकर सामंतवादी और ब्राह्मणवादी व्यवस्था की जो नंगी तस्वीर देखी थी, उसने उनमें जबर्दस्त परिवर्तन किया था। वहीं से उनमें वर्णव्यवस्था और जातिभेद के खिलाफ समतामूलक समाज के निर्माण के संकल्प ने जन्म लिया। आदि हिंदू आंदोलन का प्रभाव इतना जबरदस्त था कि उसने पिछड़ी जातियों को भी उद्वेलित कर दिया था। स्वयं जिज्ञासु पिछड़ी जाति (कलवार) से थे। पिछड़ी जातियों के कुछ और नेता भी इस आंदोलन से जुड़ गए थे, जिनमें शिवदयाल सिंह चौरसिया, रामचरन निषाद और चौधरी श्यामलाल धोबी उस समय के प्रमुख व्यक्ति थे। जिज्ञासु इनमें सबसे प्रखर चिंतक और लेखक थे।
डा. आम्बेडकर की अध्यक्षता में उत्तर भारत का पहला ‘डिप्रेस्ड क्लासेज फेडरेशन’ 1928 में नागपुर में बना था। इसमें उत्तर प्रदेश से राय साहेब रामचरन निषाद को अध्यक्ष, शिवदयाल चौरसिया को महामंत्री और जिज्ञासु को संयोजक बनाया गया था, जबकि संरक्षक बोधानंद को बनाया गया था। बोधानंद बंगाली ब्राह्मण थे पर ब्राह्मणवाद और वर्णव्यवस्था के विरोधी थे, दलित वर्गों के लिए काम करते थे और बाद में बुद्ध की शरण में जाकर भदंत बोधानंद महास्थविर के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। जिज्ञासु उन्हें अपना गुरु मानते थे। बोधानंदजी स्वयं लिखने में असमर्थ थे, क्योंकि चोट लगने से उनका अंगूठा खराब हो गया था। अत: वह बोलकर जिज्ञासु से ही लिखवाते थे। उनके ‘मूल भारतवासी और आर्य’ गंथ को भी जिज्ञासु ने ही लिखा था। इसी ग्रंथ से प्रेरित होकर 1933 में जिज्ञासु ने ‘भारत के आदि निवासी’ नाम से एक वृहद् ग्रंथ लिखा था।
जिज्ञासु ने सबसे पहले ‘हिंदू समाज सुधार’ नामक संस्था बनाई और उसके माध्यम से वर्णव्यवस्था, जातिभेद, छुआछूत और ब्राह्मणवाद के खिलाफ जनजागरण किया। इसी संस्था से उन्होंने अपनी कई पुस्तकें प्रकाशित कीं, जिनमें ‘ईश्वर और उनके गुडडे’, ‘रावण और उसकी लंका’ आदि प्रमुख हैं। उनका सबसे बड़ा काम यह था कि उन्होंने दलितों और पिछड़ों को एक सामाजिक मंच पर लाने के लिए ‘बहुजन’ की अवधारणा दी। ब्राह्मणवाद ने भारत के करोड़ों मूलनिवासी मनुष्यों को प्रगति और विकास के अधिकारों से वंचित करके गुलाम बनाकर रखा हुआ है। इसलिए वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ाई भी अछूत और पिछड़ी जातियों को मिलकर लडऩी होगी। बुद्ध की शिक्षा उन्हें अपने गुरुदेव भदंत बोधानंद से मिली थी, जहां वह बुद्ध के ‘बहुजन सुखाय’ और ‘बहुजन हिताय’ की अवधारणा से बहुत अधिक प्रभावित हुए थे। अत: दलित-पिछड़े वर्गों के बहुसंख्यक लोगों के हित में उन्होंने 1960 में ‘बहुजन कल्याण प्रकाशन’ की स्थापना की। शीघ्र ही उन्हें अपने प्रेस की जरूरत भी महसूस हुई, क्योंकि लखनऊ के हिंदू प्रेस ब्राह्मणवाद के खिलाफ उनकी पुस्तकें छापने में रुचि नहीं लेते थे। अत: कुछ साल बाद उन्होंने अपनी प्रेस भी लगा ली, और नाम रखा ‘समाज सेवा प्रेस’।
जिज्ञासुजी ने लगभग 40 साल तक हिंदी क्षेत्र में वर्णव्यवस्था, जातिभेद और ब्राह्मणवाद के विरुद्ध जनजागरण किया। सौ से भी अधिक पुस्तकों के वे लेखक थे। समाज के सबसे निचले तबके ने उन्हीं की वजह से पहली दफा जाना कि उनका भी कोई इतिहास है और वे इस देश के मूलनिवासी हैं। जिज्ञासु ने ही आम्बेडकर, महात्मा फुले, रामास्वामी नायकर पेरियार और रैदास-कबीर के क्रांतिकारी विचारों से हिंदी जनता को परिचित कराया। जिस तरह उन्होंने कबीर और रैदास को रामानंद के चोंचले और वैष्णवी भक्ति के रंग से बाहर निकाला, वह दलितों के लिए बिल्कुल नया ज्ञान था। उनकी 1971 में प्रकाशित ‘बाबा साहेब का जीवन संघर्ष’ वह पुस्तक थी, जिसे पढ़कर मेरी पीढ़ी के लोगों ने पहली बार जाना था कि कोई डा. आम्बेडकर थे, जिन्होंने अछूतों को गुलामी का एहसास कराया था और उनकी मुक्ति की लड़ाई लड़ी थी। उनका प्रकाशन हिंदी का पहला संस्थान था, जिसने बहुजन साहित्य के प्रकाशन को ही अपना लक्ष्य बनाया था। उन्होंने डा. आम्बेडकर की जीवनी के साथ-साथ उनकी कई अंग्रेजी पुस्तकों को भी ढूंढ-ढूंढकर विशेषज्ञ विद्वानों सेे उनके अनुवाद कराकर प्रकाशित कराया था, जिनमें ‘शूद्रों की खोज’, ‘अछूत कौन और कैसे’, ‘जातिभेद का उच्छेद’, ‘नागपुर का भाषण’, ‘रानाडे, गांधी और जिन्ना’, ‘भारत में जातिवाद’, ‘कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिए क्या किया’, ‘अछूतों की विमुक्ति और गांधीजी’ तथा ‘भारत का विभाजन अथवा पाकिस्तान’ प्रमुख हैं। उन्होंने ‘प्रॉबलम ऑफ रुपी’ का भी हिंदी अनुवाद करा लिया था, पर उनकी आकस्मिक मृत्यु के कारण उसका प्रकाशन नहीं हो सका था। आज आम्बेडकर का सम्पूर्ण वांङमय भारत सरकार प्रकाशित कर रही है, पर हिंदी में यह काम जिज्ञासुजी साठ के दशक में ही कर चुके थे। यही नहीं, जिन पेरियार रामास्वामी नायकर को साठ के दशक में हिंदी वाले, विशेषकर बहुजन समाज के लोग जानते तक न थे, उन्हें जनवाने का काम भी जिज्ञासु ने ही किया था। 1968 में पेरियार ईवी रामास्वामी नायकर अल्पसंख्यक सम्मेलन में भाग लेने लखनऊ गए थे। उस समय उनकी चार पुस्तकें बहुत चर्चित थीं, जिनमें एक थी ‘ए ट्रू रीडिंग ऑफ रामायना’ और अन्य तीन पुस्तकों में उनकी जीवनी, फिलोसफी और सामाजिक कान्ति की किताबें थीं। इनमें ‘ए ट्रू रीडिंग ऑफ रामायना’ का हिंदी अनुवाद ‘सच्ची रामायण’ नाम से ललई सिंह यादव ने किया था। तीनों पुस्तकों को जिज्ञासु ने अनुवाद कराकर एक ही जिल्द में ‘पेरियार ईवी रामास्वामी नायकर’ नाम से 1970 में प्रकाशित किया था।
पूना पैक्ट के बाद जब गांधीजी लखनऊ आए तो जिज्ञासु और ‘बैकवर्ड क्लासेज लीग’ के कुछ नेता बोधानंदजी के नेतृत्व में उनसे मिले और उन्हें एक एक ज्ञापन देकर पिछड़े वर्गों के अधिकारों की मांग की। जिज्ञासु ने एक जगह लिखा है कि गांधीजी मांगों को पढ़कर अवाक रह गए और उन्होंने समझाया कि इससे आजादी की लड़ाई पर असर पड़ेगा, आप लोग फि लहाल आजादी के संग्राम में हमारा साथ दें। आजादी मिलने के बाद हमारा पहला काम दबी-पिछड़ी जातियों को समान सामाजिक स्तर पर लाना होगा। गांधीजी के आश्वासन पर ‘बैकवर्ड क्लासेज लीग’ के नेता और कार्यकर्ता कांग्रेस के राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। गांधीजी यही चाहते थे। दलित उनके चंगुल में फंसे नहीं थे, पर पिछड़े वर्ग के लोग फंस गए थे। अत: पिछड़ा आंदोलन किसी लक्ष्य पर पहुंचने से पहले ही बिखर गया। आजादी मिलने के बाद पिछड़े वर्ग के जो जुझारू नेता थे, उन्हें कांग्रेस ने लॉलीपॉप देकर खरीद लिया। इनमें शिवदयाल चौरसिया को काका कालेलकर आयोग का अध्यक्ष और राज्य सभा का सदस्य बना दिया गया और भी कुछ लोगों को राज्य सभा और विधान परिषद में भेजा गया। लेकिन जिज्ञासु सत्ता के इस मायाजाल में बिल्कुल नहीं फंसे।
चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु एक ऐसे सामाजिक तत्ववेत्ता थे, जिन्हें छठे और सातवें दशक में हिंदी चिंतन में नए समाज-विमर्श और भारतीय मौलिक समाजवाद को स्थापित करने का श्रेय जाता है। यह हिंदी साहित्य में नई धारा थी। भले ही ब्राह्मणवादियों ने उसे समानांतर धारा के रूप में भी स्वीकार नहीं किया, पर वे निस्संदेह आधुनिक हिंदी दलित साहित्य के पितामह थे।
(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2013 अंक में प्रकाशित)
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