विकास के लिए सबसे पहले समाज में आई जड़ता को दूर करना होगा। समाज में जागृति और जनजागरण से ही विकास की किरण पहुंच सकती है। जब तक हम यथास्थितिवाद को समाप्त नहीं कर देते तब तक समानुपाती विकास केवल सपना ही है।
आज समाज में एक ऐसे जन आंदोलन की जरूरत है, जिसमें समाज के सभी वर्गों की समान भागीदारी हो। रविदास और कबीर जैसे महात्माओं के विचारों से प्रेरणा लेकर ही समाज में व्याप्त आंतरिक गतिरोधों के ‘घूंघट के पट खोल’ (इंदर सिंह नामधारी के उपन्यास का शीर्षक) को खोला जा सकता है।
यह भी पढ़ें : दलित या ब्राह्मण नहीं तो क्या ओबीसी थे कबीर?
मसलन, आज समाज में आरक्षण एक ऐसा मुद्दा है जो गंभीर विमर्श की मांग करता है। विभिन्न समुदायों के बीच खुदी खाई को पाटने के लिए संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया लेकिन अफसोस कि कुछ लोग इसे हमेशा के लिए अपना समझ बैठे हैं। समाज में बराबरी लाने के लिए आरक्षण को एक रेखा मानकर प्रयोग किया गया था। माना गया था कि समाज के विकास की मुख्यधारा यानी रेखा से पीछे छुटे लोग रेखा के माध्यम से समाज के अन्य विकासशील लोगों के साथ पहुंच जाएंगे तब समाज में समानुपातिक विकास का वातावरण पैदा होगा और उसके बाद सभी वर्ग के लोग अपनी बेहतरी के लिए एक साथ काम कर सकेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका।

आज समाज का स्टेट्स बदल चुका है। सभी तबकों के लोग मुख्यधारा में शामिल हो रहे हैं लेकिन दूसरी ओर, भारतीय संसद में बहस का स्तर गिर रहा है। देश की प्रमुख समस्याओं पर कोई भी बहस नहीं करना चाहता। सब लोग किसी तरह सत्ता प्राप्त करने की जिजीविषा पाल बैठे हैं। राजनीति में तो बस ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ की स्थिति हो गई है। वास्तव में, सबसे बड़े लोकतंत्र का तमगा पहनने वाले इस देश की हालत ‘ऊपर से फिट-फाट, भीतर से मोकामा घाट’ वाली है। ऐसी स्थिति में समाज को विकसित करने के लिए प्रतिभाशाली लोगों को आगे आने की जरूरत है। आज का समय पूर्वग्रह से ग्रसित होकर काम करने का नहीं है, बल्कि समाज के सभी लोगों को साथ लेकर चलने का है।
(फारवर्ड प्रेस के मई 2013 अंक में प्रकाशित)