बीते 24 अप्रैल, 2013 को केरल के तिरुवनंतपुरम के पास शिवगिरी मठ में भाजपा नेता नरेंद्र मोदी ने श्रीनारायण धर्म मीमांसा परिषद् के स्वर्ण जयंती समारोह को संबोधित किया। मोदी को आश्रम में बुलाए जाने के केरल के मार्क्सवादी और कांग्रेसी विरोधी थे। मोदी के सामने उन्होंने अपना विरोध हवाई अड्डे और शहर में भी प्रदर्शित किया।
श्रीनारायण गुरु के ऐतिहासिक मठ में नरेंद्र मोदी का बुलाया जाना कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। मार्क्सवादियों का विरोध स्वाभाविक है, क्योंकि उन्हें अपना इझवा वोट बैंक खतरे में नजर आ रहा है। श्रीनारायण गुरु दक्षिण के सबसे बड़े आध्यात्मिक नेता थे, जिन्होंने पिछड़ी जातियों के बीच आत्मसम्मान का आंदोलन चलाया। वह महात्मा जोतिबा फुले (1827-1890) की ही कड़ी में ब्राह्मणवाद विरोधी आध्यात्मिक गुरु थे। श्रीनारायण गुरु (1856-1928) जिन्हें लोग प्यार से नानू आशान भी कहते थे, स्वयम् एक पिछड़ी जाति इझवा में पैदा लिए थे। जब उन्होंने पिछड़ी जातियों में आध्यात्मिक चेतना का प्रचार आरंभ किया तो ब्राह्मणों ने इसका विरोध किया। उन्होंने अपने अलग मंदिर बनाने शुरू किए। ब्राह्मणों ने कहा निम्न जाति के लोग शिवमूर्ति की स्थापना नहीं कर सकते। श्रीनारायण गुरु ने कहा-हमारे शिव उनके शिव से अलग हैं। उनके शिव ब्राह्मण हैं, हमारे शिव इझवा (ओबीसी) हैं। (केरल में अकेले इझवा जाति ही तीस प्रतिशत है)। यह वैसा ही जवाब था, जैसा कि फुले ने ब्राह्मणवादी वर्चस्व का विरोध करने के लिए अपना अलग भगवान (निर्मिक) बनाकर दिया था।
श्रीनारायण गुरु ने इझवा और अन्य पिछड़ी जातियों को ज्ञान के क्षेत्र में आगे बढऩे के लिए कहा। उनका मानना था कि आध्यात्मिक चेतना के बगैर कोई व्यक्ति या समाज आगे नहीं बढ़ पाता। उन्होंने छोटा मंदिर और बड़ा ज्ञान केंद्र (स्कूल-कॉलेज) का नारा दिया। उनके प्रमुख शिष्य और प्रख्यात मलयाली कवि कुमारन् आशान (1873-1924) ने ब्राह्मणों को संबोधित करते हुए एक कविता लिखी, जिसकी एक पंक्ति केरल की पिछड़ी जातियों में नारे की तरह लोकप्रिय हुई- ‘तुम अपने नियम बदलो, अन्यथा नियम तुम्हें बदल देंगे’। दलित कविता के जन्म से कोई साठ साल पहले एक ओबीसी कवि का यह ओजस्वी स्वर था।
श्रीनारायण गुरु के प्रशंसक डा. आम्बेडकर, पेरियार, लोहिया, कांशीराम जैसे लोग रहे। महात्मा गांधी भी उनसे मिलने उनके आश्रम गए थे। उनके मठ में जाने के लिए बड़े-बडे सामाजिक नेता लालायित रहे। लेकिन उस मठ में नरेंद्र मोदी को जिस सम्मान के साथ एक विशेष समारोह में बुलाया गया, उससे मार्क्सवादी परेशान हो गए। यह कहना मुश्किल है कि नरेंद्र मोदी उस मठ में दीक्षित हुए या उन्होंने मठ के लोगों को दीक्षित किया। इसका जवाब तो समय देगा लेकिन जो सामाजिक बदलावों की आहट समझने में सक्षम हैं, वे यह कह सकते हैं कि कर्नाटक की चुनावी जीत से ज्यादा महत्वपूर्ण है, दक्षिण के गैर-ब्राह्मण समुदाय द्वारा नरेंद्र मोदी को अपना हमदम स्वीकार करना।
(फारवर्ड प्रेस के जून 2013 अंक में प्रकाशित)