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अखबारों में ‘सवर्ण आरक्षण’ : रिपोर्टिंग नहीं, सपोर्टिंग

गत 13 सितंबर, 2022 से सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ईडब्ल्यूएस आरक्षण की वैधता को लेकर सुनवाई कर रही है। लेकिन अखबारों में इसकी रिपोर्टिंग को लेकर अनमनापन है और एक तरह से इसे मुद्दा नहीं बनाने की साजिश। बता रहे हैं अनिल चमड़िया

नरेंद्र मोदी की सरकार ने संसद में अपने बहुमत की ताकत का इस्तेमाल करते हुए 2019 के चुनाव से पहले सवर्ण जातियों के लिए सरकारी संस्थानों में दस प्रतिशत आरक्षण को संविधान का हिस्सा बनाने का फैसला संसद में पारित करवा लिया। दरअसल, संविधान में शैक्षणिक और सामाजिक स्तर पर पिछड़े वर्गों के लिए विशेष अवसर मुहैया कराने का प्रावधान है। आर्थिक आधार पर आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। संसद के किसी ऐसे फैसले की समीक्षा का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को है और सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सरकार के इस फैसले के विरुद्ध दायिर याचिकाओं पर 2024 के चुनाव से पहले गत 13 सितंबर, 2022 से सुनवाई शुरू कर दी है। 

मीडिया सुनवाई की रिपोर्टिंग करने के बजाय…

पहली बात तो आखिर अदालतों में सुनवाई की रिपोर्टिंग का क्या मकसद होता है? लोगों के लिए मीडिया का मकसद यह होना चाहिए कि मीडिया उन्हें अदालत में चल रही किसी भी सुनवाई की जानकारी दे, क्योंकि सभी लोग अदालतों में नहीं पहुंच सकते हैं और ना ही अदालतों में इसके लिए जगह है। खासतौर से जब देश, समाज और संविधान को प्रभावित करने वाले किसी विषय या विवाद को लेकर संविधान पीठ में सुनवाई चल रही हो तो उसके ऊपर सभी की निगाह होती है। लेकिन इन दिनों एक शब्द बहुत लोकप्रिय हुआ है – मीडिया ट्रायल। यानी बड़े-बड़े घरानों व उंचे वर्गों के नियंत्रण वाली मीडिया कंपनियां खुद अदालत बन जाती हैं और किसी मुद्दे, विषय व विवाद को लेकर अपने फैसले थोपने की कोशिश करने लगती है। 

इसका मतलब यह हुआ है कि वह संसद को भी प्रभावित करना चाहती है और जब संसद के किसी फैसले की संवैधानिक समीक्षा जैसी सुनवाई अदालत में चल रही हो तो उसे भी प्रभावित करना चाहती हैं। प्रकारांतर से मीडिया कंपनियां अपने मन-मुताबिक देश और समाज को नियंत्रित करने की कोशिश में लगी रहती हैं।

उच्च वर्गीय मीडिया क्या रिपोर्टिंग कर रही है …

यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि मीडिया कंपनियां अपने समाचार पत्रों, टेलीविजन और रेडियों चैनलों के साथ वेबसाईट आदि के लिए समाज के उन लोगों की भर्तियां करती हैं, जिन्हें भारतीय समाज में उच्च वर्ग व उच्च वर्णीय सोच-समझ हो। उच्च वर्गीय व उच्च वर्णीय सोच की वजह से मीडिया कंपनियां अपने मंचों पर नाम तो लोकतंत्र का लेती हैं लेकिन समाज में दबदबा रखनेवालों की तरफ झुकी रहती हैं। खासतौर से तब जब सांप्रदायिक व जाति वर्चस्व से जुड़े मसले सामने आते हैं। सांप्रदायिकता की तरफदारी को लेकर कई अध्ययन सामने आ चुके हैं जिसमें यह भी देखा गया है कि मीडिया कंपनियों ने समाज में आग लगाने में आगे रही है। मीडिया की वजहों से दंगे भड़के हैं। इसी तरह से सामाजिक न्याय के सिद्धांत के तहत संविधान में की गई व्यवस्था के अनुसार पिछड़े वर्गों को सरकारी संस्थानों में आरक्षण की सुविधा देने का सरकार ने फैसला किया तो मीडिया में हाहाकार मच गया और आगबबूला हो गई। आरक्षण के खिलाफ लोगों को उकसाने और आग लगाने की हर संभव कोशिश की।

मीडिया कंपनियों की यह पृष्ठभूमि सवर्ण जातियों के लिए संविधान के दायरे से निकलकर आरक्षण देने का फैसले को लेकर अदालत में हो रही सुनवाई की रिपोर्टिंग की स्थिति को समझने के लिए जरुरी लगता है। संविधान पीठ ने 2019 की चुनाव की पूर्वसंध्या में लिए गए सवर्ण आरक्षण के फैसले पर 2024 के चुनाव की पूर्व संध्या में सुनवाई शुरू की है। गत 13 सितंबर, 2022 से हर दिन सुनवाई चल रही है। लेकिन मीडिया में वास्तविक रिपोर्टिंग नहीं है। संविधान पीठ की अहमियत के अनुसार मीडिया को जो प्रमुखता देनी चाहिए उस प्रमुखता के दायरे से सवर्ण आरक्षण के विरुद्ध सुनवाई की रिपोर्टिंग को बाहर कर दिया है। मसलन 15 सितंबर को इंडियन एक्सप्रेस समूह के हिंदी समाचार पत्र ‘जनसत्ता’ में वह अंदर के व्यापार जगत की खबरों में सुनवाई की खबर हैं। यह एक तरीका है कि उस तरह के किसी भी मुद्दे व विषय को इस तरह से प्रस्तुत करें कि वह प्रस्तुत होकर भी अनदेखा रह जाए। समाचार पत्रों का यह एक पुराना तरीका है। इसे कहते हैं– खबरों को मार देना।

दिल्ली से 16 सितंबर, 2022 को प्रकाशित मुख्य अखबारों में सुनवाई संबंधी खबरें

इस तरह तीन बातें यहां स्पष्ट होती हैं। पहली तो खबरों को नदरअंदाज किया जाए। दूसरी खबरों की अटपटी प्रस्तुति। तीसरी बात कि खबरों को संविधान पीठ के सामने रखी याचिकाओं के खिलाफ जनमत तैयार करना। गत 16 सितंबर, 2022 को दिल्ली से प्रकाशित अखबारों पर नजर डाली गई तो यह देखने में आया कि ‘अमर उजाला’ में पृष्ठ 15 की सबसे आखिरी और छोटी खबर के रुप में वह प्रस्तुत की गई। ‘राष्ट्रीय सहारा’ में पेज नंबर 7 पर प्रमुखता से खबर थी, लेकिन वह खबर एक पक्ष में राय बनाने के मकसद को पूरा करती थी। सबसे बड़े अखबार होने का दावा करने वाले ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ ग्रुप के अंग्रेजी दां हिंदी समाचार पत्र ‘नवभारत टाइम्स’ में खबर देखने को नहीं मिली। मजे की बात यह है कि ‘राजस्थान पत्रिका’ में प्रमुखता से सुप्रीम कोर्ट में हिजाब को लेकर न्यायाधीश की वह टिप्पणी थी जो हिजाब के विरुद्ध कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका की दलीलों को कमजोर करने वाली थी। न्यायाधीश की टिप्पणी हेडलाइन बनी कि स्कूलों-कॉलेजों को यूनिफार्म निर्धारित करने का अधिकार।

सुप्रीम कोर्ट में जब किसी धार्मिक मसले को लेकर और जातिवादी मसले को लेकर एक साथ सुनवाई चल रही हो तो मीडिया कंपनियों की पक्षधरता को देखना व विश्लेषण ज्यादा दिलचस्प होता है। सांप्रदायिकता और जातिवाद का गहरा रिश्ता है। जातिवाद को बनाए रखने के लिए सांप्रदायिकता को हथियार बनाया जाता है और सांप्रदायिकता के जरिये अल्पमत को बहुमत के रुप में स्थापित करने की कोशिश की जाती है।

बहरहाल, दस प्रतिशत सवर्ण आरक्षण की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर एक दिन की खबरों पर नजर डालें तो अंदाज लग सकता है कि यह रिपोर्टिंग नहीं, बल्कि सपोर्टिंग हैं। यानी आरक्षण के फैसले पर सहमति के लिए समर्थन बनाने की कोशिश की जा रही है। 

(संपादन : नवल/अनिल)

 

लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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