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प्रतिनिधि ओबीसी कथाकार

हिंदी साहित्य में ओबीसी नायक नक्षत्र मालाकार को रेखांकित करनेवाले अनूपलाल मंडल पहले उपन्यासकार हैं। उनका उपन्यास 'तूफान और तिनके' नक्षत्र मालाकार की शौर्यगाथा है। अनूपलाल मंडल ने मलहोरी जाति के रूप में ख्यात माली जाति के एक ओबीसी नायक को उपन्यास का केंद्रीय चरित्र प्रदान करके ओबीसी साहित्य की बुनियाद दे डाली है

वर्ण व्यवस्थाई ताना-बाना से भारतीय समाज कुछ ऐसा बुना हुआ है कि प्रत्येक साहित्यकार, विचारक, दार्शनिक, राजनेता, अर्थशास्त्री ऐसे ही किसी भी क्षेत्र में सक्रिय व्यक्ति को कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में जाने-अनजाने संस्कारगत व्यक्तित्व की छाप उसे अपनी कृतियों या चिंतन में छोडऩी पड़ती है। भारतेंदु को अपने वैश्य होने पर गर्व था। उन्होंने 1871 में ‘अग्रवालों की उत्पत्ति’ लिखी थी। वे ‘वैश्य-हितैषिणी सभा’ (1874 ) की स्थापना करके वैश्यों के हित में काम भी किया करते थे। मैथिलीशरण गुप्त की पहली रचना ‘वैयोपकारक’ (कोलकाता) में छपी थी। जयशंकर प्रसाद की भी पहली रचना 1906 में गैर द्विजवादी पत्रिका ‘भारतेंदु’ में छपी थी। मैथिलीशरण गुप्त को गांधी प्रिय थे। जयशंकर प्रसाद को महात्मा बुद्ध, मौर्यवंश और गुप्तवंश की कथावस्तु अत्यंत प्रिय थी। ऐसा प्रियपन मैथिलीशरण गुप्त अथवा जयशंकर प्रसाद के कवि-व्यक्तित्व में आकाश से उड़कर नहीं आया था बल्कि भारत के वर्ण-व्यवस्थाई समाज की छाती की गरमी उनकी देह में चुपके-से समा गई थी। फणीश्वरनाथ रेणु की रचनाओं में ओबीसी साहित्य का जो हिस्सा सतह पर दिखाई पड़ता है, वह मैथिलीशरण गुप्त अथवा जयशंकर प्रसाद की रचनाओं में उसकी अतल गहराइयों में मिलेगा। उसके लिए ओबीसी के भूगर्भ-मापक औजार की जरूरत है। नब्बे के दशक में भूमंडलीकरण शुरू हुआ और भारत का मंडलीकरण हुआ। एक प्रकार से मंडलीकरण की प्रक्रिया भूमंडलीकरण से जुड़ा हुआ है। भारत में मंडलीकरण के परिणामस्वरूप यहां के प्राय: सभी क्षेत्र मंडल-आभा से भास्वर हो उठे। साहित्य भी इससे अछूता नहीं रहा। साहित्य, पत्रकारिता, राजनीति, भाषाविज्ञान, शब्दकोश, इतिहास, वेब न्यूज-सभी में ओबीसी की धमक आंधी की तरह समा गई। कविता, कहानी, नाटक, आलोचना, उपन्यास एवं गद्य की अनेक विधाओं का मंडलीकरण नब्बे के दशक में तेजी से हुआ, ऐसा कि आप हिंदी साहित्य के इस कालखंड को दावे के साथ ‘मंडल-युग’ कह सकते हैं। ओबीसी साहित्य के रचनाकार देश के कोने- कोने में फैले हुए हैं। प्रत्येक क्षेत्र से ओबीसी की सुगंध निकलकर पूरे भारत को मोहक बनाए हुए है। बहरहाल, एक नई अवधारणा के विकास के लिए कुछ आधारभूत सूचनाएं भी आवश्यक होती हैं। आज जब हम ओबीसी साहित्य की बात कर रहे हैं तो यह जानकारी आवश्यक है कि आधुनिक हिंदी साहित्य में कौन-कौन से ओबीसी लेखक सक्रिय है। इस आलेख में आधुनिक हिंदी साहित्य के कुछेक प्रमुख ओबीसी कथाकारों का जिक्र कर रहा हूं, जल्दी ही कविता, आलोचना, पत्रकारिता जैसी विधाओं को भी इस अवलोकन-बिंदु से खंगालने का मेरा प्रयास होगा।

अनूपलाल मंडल : अनूपलाल मंडल की ख्याति हिंदी साहित्य में कथाकार, संपादक, अनुवादक एवं जीवनी-लेखक के रूप में है। उनका जन्म बिहार प्रांत के पूर्णिया जिले के अंतर्गत समेली ग्राम में 1896 में हुआ। वे ओबीसी की कैवर्त जाति से आते हैं। कैवर्त मल्लाहों की एक जाति है यह जाति भार्गव पिता और अयोगवी माता से उत्पन्न बताई जाती है। अनूपलाल मंडल ने जातीय चेतना को जागृत करने के लिए ‘कैवर्त-कौमुदी’ (पत्रिका) का संपादन किया। उनका पहला सामाजिक उपन्यास ‘निर्वासिता’ 1929 ई. में प्रकाशित हुआ। उनके उपन्यास ‘मीमांसा’ पर 1940 में ‘बहूरानी’ के नाम से एक ओबीसी फि ल्म-निर्माता किशोर साहू ने चलचित्र बनाया। उनके उपन्यास ‘रक्त और रंग’ पर 1957 में उन्हें बिहारी ग्रंथलेखक-सम्मान पुरस्कार मिला। बावजूद इसके उनके अनेक उपन्यास अप्रकाशित हैं, यथा शुभा, मानसी, देवायतन आदि। उन्होंने कई उपन्यासों की रचना की। उनके उपन्यासों में समाज की वेदी पर, सविता, साकी, रूपरेखा, ज्योतिर्मयी, वे अभागे, ज्वाला, दस बीघा जमीन, आवारों की दुनिया, बुझने न पाए, अभिशाप, दर्द की तस्वीरें, अभियान का पथ, केंद्र और परिधि, तूफान और तिनके विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उन्होंने हामसन का प्रसिद्ध उपन्यास ‘हंगर’ का हिंदी अनुवाद ‘गरीबी के दिन’ नाम से किया था। अनूपलाल मंडल गरीबों के पक्षधर साहित्यकार हैं। उनके साहित्य-सृजन का ताना-बाना गरीबों के हित को केंद्र में रखकर बुना गया है। इसलिए उनकी कृतियों में भारत की बहुसंख्यक आबादी के दुख-दर्द का स्पंदन है। हिंदी साहित्य में ओबीसी नायक नक्षत्र मालाकार को रेखांकित करनेवाले वे पहले उपन्यासकार हैं। उनका उपन्यास ‘तूफान और तिनके’ नक्षत्र मालाकार की शौर्यगाथा है। अनूपलाल मंडल ने मलहोरी जाति के रूप में ख्यात माली जाति के एक ओबीसी नायक को उपन्यास का केंद्रीय चरित्र प्रदान करके ओबीसी साहित्य की बुनियाद दे डाली है। 21 दिसंबर, 1982 को हिंदी के इस अप्रतिम महान रचनाकार का निधन हो गया।

भैरवप्रसाद गुप्त : भैरवप्रसाद गुप्त आधुनिक हिंदी साहित्य में उपन्यासकार एवं कहानीकार के रूप में विख्यात हैं। उनका जन्म उत्तरप्रदेश के बलिया जिले के एक छोटे से गांव सिवानकलां में 7 जुलाई, 1918 को एक वैश्य परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम चरित्रराम तथा माता का नाम गंगादेवी था। भैरवप्रसाद गुप्त की एक चर्चित कहानी ‘गत्ती भगत’ है। गत्ती भगत मूलत: कोयरी जाति के हैं। पर, वे लोकहित में गत्ती कोइरी से गत्ती भगत हो गए हैं। भैरवप्रसाद गुप्त ने अपनी इस कहानी में ओबीसी की कोइरी जाति के नायक गत्ती भगत को केंद्रीय चरित्र प्रदान किया है। सिर्फ ‘गत्ती भगत’ ही नहीं, बल्कि उनकी अनेक कहानियों के नायक ओबीसी परिवार से आते हैं। उनके कहानीसंग्रह मुहब्बत की राहें (1945), फरिश्ता (1946), बिगड़े हुए दिमाग (1948), इंसान (1950), सितार का तार (1951), बलिदान की कहानियां (1951), मंजिल (1951), आंखों का सवाल (1952), महफि ल (1958), सपने का अंत (1961), मंगली की टिकुली (1982) एवं आप क्या कर रहे हैं (1983) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। भैरवप्रसाद गुप्त ने कुलमिलाकर 16 उपन्यास लिखे हैं। उनका उपन्यास ‘छोटी सी शुरुआत’ मरणोपरांत प्रकाशित हुआ। उनके अन्य उपन्यास हैं- शोले (1946), मशाल (1948), गंगा मैया (1952), जंजीरें और नया आदमी (1954), सती मैया का चौरा (1959), धरती (1962), आकाश (1963), कालिन्दी (1963), अंतिम अध्याय (1970), नौजवान (1972), एक जीनियस की प्रेमकथा (1980), सेवाश्रम (1983), काशी बाबू (1987), भाग्य देवता (1992), अक्षरों के आगे मास्टरजी (1993)। भैरवप्रसाद गुप्त ने प्राय: सभी उपन्यासों में समाज के श्रमशील वर्ग या कहें ओबीसी की वकालत की है। ‘मशाल’ में उन्होंने श्रमशील वर्ग के संघर्ष को सैद्धांतिक स्तर पर चित्रित किया है। उपन्यास का नायक नरेन ग्रामीण जीवन की विषमताओं को लेकर श्रमिकों में जातीय चैतन्य को प्रस्तुत करता है। कहा जाता है कि उनके उपन्यास ‘धरती’ में मोहन के रूप में भैरव जी ने अपने जीवन की घटनाओं को प्रस्तुत किया है। वह कहता है कि हमारे देश के गरीब किसान और मजदूर अपने जीवन-निर्वाह के लिए हाड़तोड़ मेहनत करते हैं, फिर  भी वे सुखी नहीं हैं। दूसरे शब्दों में, ‘धरती’ (उपन्यास) एक ओबीसी उपन्यासकार की छद्म ओबीसी गाथा है। भैरवप्रसाद गुप्त के उपन्यासों की कथावस्तु सामान्यत: ओबीसी किसानों, श्रमिकों आदि को लेकर चलती है। शोषित जातियों का वर्णन करने के लिए उन्होंने शोषण एवं शोषकों के विविध रूपों में अपनाए जानेवाले विविध हथकंडों का भी जीवंत वर्णन किया है। समाजवादी उपन्यास साहित्य के इस महान सर्जक का निधन 7 अप्रैल, 1995 को हुआ।

फणीश्वरनाथ रेणु : हिंदी साहित्य के आंचलिक उपन्यासकारों में फणीश्वरनाथ रेणु का स्थान अग्रगण्य है। उनका जन्म 4 मार्च, 1921 को बिहार प्रांत के पूर्णिया जिले के औराही हिंगना नामक गांव में हुआ। वे ओबीसी की धानुक जाति से आते हैं। रेणु ने लिखा है कि जाति बहुत बड़ी चीज है। जात-पात नहीं मानने वालों की भी जाति होती है। सिर्फ हिंदू कहने से ही पिंड नहीं छूट सकता। ब्राह्मण हो?…. कौन ब्राह्मण? …..गोत्र क्या है?…. मूल कौन है?….गांव में तो बिना जाति के आपका पानी नहीं चल सकता। इसीलिए ‘मैला आंचल’ का बालदेव गोप मेरीगंज में आकर यादव टोली में रहने लगा है। गांव जाति के आधार पर टोलों में बंटे हैं, जैसे कायस्थ टोला, राजपूत टोला, यादव टोला आदि। ब्राह्मण संया में कम हैं, लेकिन एक शक्ति बने हुए हैं। राजपूतों और यादवों में शत्रुता सबसे अधिक है, क्योंकि दोनों ही अपने को श्रेष्ठ समझते हैं। जाहिर है कि ‘मैला आंचल’ में फणीश्वरनाथ रेणु ने यादवों के उभार को सावधानीपूर्वक रेखांकित किया है। ओबीसी के बालदेव को गांव के लोग लीडर मानते हैं और काफी सम्मान  भी देते हैं। मैला आंचल (1954) के अलावा फणीश्वरनाथ रेणु ने और भी उपन्यास लिखे हैं जिनमें ‘परतीपरिकथा’ (1957), दीर्घतपा (1963), जुलूस (1965), कितने चौराहे (1966) आदि प्रमुख हैं। परती परिकथा, दीर्घतमा जैसे उपन्यास प्रमाणित करते हैं कि रेणु ग्रामीण आंतरिक वास्तविकताओं को ओबीसी के परिप्रेक्ष्य में उठाने में समर्थ रहे हैं। फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियों में भी आंचलिक मिट्टी की सोंधीगंध, किसानों का पसीना, ओबीसी के क्रिया-कलापों, तीज-त्योहार, लोकगीतों आदि की सरस सुगंध है। ठुमरी (1959), आदिम रात्रि की महक (1967), अगिनखोर (1973) आदि उनके प्रमुख कहानी-संग्रह हैं। 11 अप्रैल, 1977 को हिंदी के इस लोकप्रिय कथाकार का निधन हो गया।

राजेंद्र यादव : राजेंद्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को उत्तरप्रदेश के आगरा में हुआ। वे ओबीसी के यादव परिवार से आते हैं। राजेंद्र यादव ने कहानीकार, उपन्यासकार, आलोचक एवं संपादक के रूप में विशेष ख्याति  अर्जित की। देवताओं की मूर्तियां (1951), खेल-खिलौने (1953), जहां लक्ष्मी कैद है (1957), अभिमन्यु की आत्महत्या (1959), छोटे-छोटे ताजमहल (1961), किनारे से किनारे तक (1962), टूटना (1966), चौखटे तोड़ते त्रिकोण (1987) उनके प्रमुख कहानीस संग्रह हैं। निश्चित रूप से राजेन्द्र यादव की कहानियां मध्यवर्गीय जीवन की आंतरिक विवशताओं और विडंबनाओं को प्रमुख रूप से उभारती हैं। पर राजेन्द्र यादव को ओबीसी होने का एहसास आजीवन होता रहा। ‘हंस’ (अक्टूबर, 2009) के संपादकीय में उन्होंने लिखा है कि एक सम्मान-समारोह में उदय प्रकाश ने ओबीसी के उत्थान की बात करते हुए ऐसी बातें कहीं जो मुझे अच्छी नहीं लगी। 1952-54 तक मेरे तीन कहानी-संग्रह और एक उपन्यास आ चुके थे और मुझे शायद ही कभी याद आया हो कि मेरे नाम के पीछे लगा ‘यादव’ सामाजिक पिछड़ेपन का संकेत है। इसीलिए वे लिखते हैं कि अधिकांश हिंदी का वैचारिक साहित्य विश्वविद्यालयों में केंद्रित रहा है और वहां सिर्फ सवर्णों, मर्दों का या ज्यादा सही कहें तो ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा है। राजेन्द्र यादव का उपन्यास-लेखन भी समृद्ध रहा है। सारा आकाश (1959), उखड़ हुए लोग (1956), कुलटा (1958), शाह और मात (1959), अनदेखे अनजान पुल (1963), मंत्र-विद्ध (1967) आदि उनके प्रमुख उपन्यास हैं। उनके उपन्यास द्विज आलोचकों को तब अच्छे लगते थे, जब वे ‘हंस’ में धारदार संपादकीय नहीं लिखा करते थे। बाद में राजेन्द्र यादव के उपन्यासों के बारे में तथाकथित प्राध्यापकों की क्या राय बनी यह ‘हंस’ (जून, 2005) के संपादकीयमें दर्ज है। वह यह कि इस राजेन्द्र यादव नाम के राक्षस को न आगे बुलाना है और न किसी भी पाठ्यक्रम में इसकी कोई पुस्तक या रचना रखनी है। आज राजेन्द्र यादव हमारे बीच नहीं हैं। पर स्त्रियों, अल्पसंयकों, दलितों एवं पिछड़ों को जागृत करने के लिए वे सदैव याद किए जाएंगे।

मधुकर सिंह : मधुकर सिंह का जन्म पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले में 2 जनवरी, 1934 को हुआ। परंतु वे मूल रूप से बिहार के भोजपुर जिले के गांव धरहरा के निवासी हैं। उनका जन्म पिछड़ी जाति के कोइरी परिवार में हुआ। मधुकर सिंह मूल रूप से कथाकार हैं। उनके उपन्यासों की संख्या 17 है : सबसे बड़ा छल (1975), सीताराम नमस्कार (1977), जंगली सुअर (1978), मनबोध बाबू (1978), उत्तरगाथा (1979), बदनाम, बेमतलब जिंदगियां (1979), अगिन देवी (1982), धरमपुर की बहू (1982), अर्जुन जिंदा है (1984), नपुंसक (1986), मेरे गांव के लोग (1988), आचार्य चाणक्य (1989), कथा कहो कुंती माई (1990), समकाल (2004), बाजत अनहद ढोल (2005)। मधुकर सिंह के कई उपन्यासों में ओबीसी नायकों की जीवंतगाथा वर्णित है। उनके उपन्यास ‘अर्जुन जिंदा है’ का नायक अर्जुन मास्टर जगदीश प्रसाद का छद्म नाम है। जगदीश प्रसाद ओबीसी की कोइरी जाति से आते हैं। वे मास्टरी छोड़-छाड़कर सामंती अत्याचार तथा खेतिहर मजदूरों के खिलाफ अपनी जिंदगी को धधकती आग में झोंक देते हैं। ऐसे ही ‘जंगली सुअर’ में उन्होंने सामंतवादी भूस्वामियों के घिनौने जोर-जुल्म को ओबीसी के परिप्रेक्ष्य में रेखांकित किया है। उनके उपन्यास ‘कथा कहो कुंती माई’ में रामेश्वर यादव का आख्यान है। साथ ही इसमें एक ओबीसी कवि दुर्गेन्द्र अकारी की कविताओं को कई बार उपन्यास की कथा-पृष्ठभूमि के रूप में उद्धृत किया गया है। इसमें ओबीसी कवि नारायण महतो का भी जिक्र है। मधुकर सिंह की कहानियां भी ओबीसी की भावनाओं से ओतप्रोत हैं। उनकी कहानी ‘कवि भुनेसर मास्टर’ का भुनेसर भी ओबीसी नायक जगदीश प्रसाद हैं। मधुकर सिंह को ओबीसी का तबका अत्यंत प्रिय है। इसीलिए उन्होंने ऐसे तबकों की पीड़ा और उनके आत्मसंघर्ष को कई ढंग से कई रूपों में लिखा है। पूरा सन्नाटा, भाई का जन्म, अगनु कापड़, पहला पाठ, पाठशाला, माई, पहली मुक्ति, हरिजन सेवक आदि मधुकर सिंह के प्रमुख कहानी-संग्रह हैं। आज वे पक्षाघात का शिकार होकर धरहरा (आरा) में रहते हैं।

रामधारी सिंह दिवाकर : रामधारी सिंह दिवाकर का जन्म 1 जनवरी, 1945 को नरपतगंज, अररिया (बिहार) के एक पिछड़े परिवार
में हुआ। उनकी पहचान मुय रूप से एक कथाकार की है। उनके कई कहानी-संग्रह प्रकाशित हैं : नए गांव में (1978), बीच से टूटा हुआ
(1982), अलग-अलग अपरिचय (1982), सरहद के पार (1990), नया घर चढ़े (1997), मखान पोखर (1998), धरातल (1998), माटी-पानी (1999), वर्णाश्रम (2004)। उनकी कहानी ‘वर्णाश्रम’ के कई पात्र ओबीसी समाज से आए हैं। उनमें दयानंद मंडल एवं बिलट महतो प्रमुख हैं। रामधारी सिंह दिवाकर के उपन्यास ‘आग-पानी आकाश’ की समीक्षा लिखते हुए अजय तिवारी ने टिह्रश्वपणी की है कि वह दलित साहित्य में नहीं गिना जाएगा। कारण कि दिवाकर जी दलित नहीं, बल्कि ओबीसी हैं। इसलिए दलित साहित्य की अनिवार्य कसौटी अनुभूति की प्रामाणिकता उनके इस उपन्यास में नहीं है। हिंदी के कई आलोचकों ने टिह्रश्वपणी की है कि रामधारी सिंह दिवाकर का कहानी-संग्रह ‘माटी-पानी’ पर मंडल आयोग का प्रभाव है। उनकी कहानी ‘जंह जोत बरय दिन-राति’ विशुद्ध मंडलवादी है। जाहिर है किरामधारी सिंह दिवाकर की कहानियों में ओबीसी पात्रों को गहरे में रेखांकित किया गया है। रामधारी सिंह दिवाकर ने कई उपन्यास भी लिखे हैं। क्या घर क्या परदेस (1983), काली सुबह का सूरज (1985), पंचमी तत्पुरुष (1987), आग-पानी आकाश (1999) और टूटते दायरे (2002) उनके चर्चित उपन्यास हैं। दिवाकर, राजेन्द्र यादव और भैरवप्रसाद गुप्त जैसे संपादकों के कायल हैं। ऐसा उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में कहा भी है। वे यह भी मानते हैं कि वे फणीश्वरनाथ रेणु से प्रभावित हैं। जाहर है कि रामधारी सिंह दिवाकर का ताना-बाना ओबीसी के संदर्भ में कुछ ऐसा ही बुना हुआ है जैसा भैरवप्रसाद गुप्त, राजेन्द्र यादव एवं फणीश्वरनाथ रेणु का बुना है।

 

(फारवर्ड प्रेस, बहुजन साहित्य वार्षिक, मई, 2014 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

राजेन्द्र प्रसाद सिंह

डॉ. राजेन्द्रप्रसाद सिंह ख्यात भाषावैज्ञानिक एवं आलोचक हैं। वे हिंदी साहित्य में ओबीसी साहित्य के सिद्धांतकार एवं सबाल्टर्न अध्ययन के प्रणेता भी हैं। संप्रति वे सासाराम के एसपी जैन कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं

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