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ओबीसी मुख्यमंत्री ही हो सकता है कांग्रेस-एनसीपी का तारणहार

महाराष्ट्र के कुछ ओबीसी संगठनों और बुद्धिजीवियों ने 'ओबीसी आरक्षण बचाओ समिति' का गठन किया। इस समिति ने मराठा और ओबीसी आरक्षण के मुद्दे के उचित समाधान की मांग को लेकर 9 अप्रैल 2013 को मुंबई के आजाद मैदान में एक-दिवसीय धरने का आयोजन किया

सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है : अगर कोई सरकार किसी समुदाय विशेष को लाभान्वित करने वाली कोई नीति लागू करती है, तो क्या उसे संबंधित समुदाय के सभी सदस्यों के मत मिलेंगे और क्या इन मतों के सहारे वह पुनर्निर्वाचित हो सकेगी? निस्संदेह, अनुसूचित जातियों, जनजातियों व ओबीसी के संदर्भ में इस प्रश्न का उत्तर ‘हां’ है। परंतु हालिया लोकसभा चुनाव ने यह साबित कर दिया है कि क्षत्रिय जातियों के मामले में ऐसा नहीं होता। जाटों का उदाहरण लीजिए। लोकसभा चुनाव के कुछ समय पहले, केन्द्र की कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने जल्दबाजी में जाटों के जमींदार समुदाय को ओबीसी का दर्जा दे दिया। यह स्पष्ट था कि यह निर्णय वोटों की खातिर लिया गया था। राजस्थान, हरियाणा, पंजाब और उत्तरप्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में कई ऐसे संसदीय क्षेत्र हैं जिन्हें जाट मतों के सहारे जीता जा सकता है। अत: यह अपेक्षा थी कि कांग्रेस इन चार राज्यों में 50 से अधिक सीटें जीतेगी। हो सकता है कि तथाकथित मोदी सुनामी के चलते, इन सीटों की संख्या में कुछ कमी आ जाती, परंतु फिर भी, कांग्रेस को कम से कम 30 सीटें तो जीतनी ही थीं। जब नतीजे आए तो पता चला कि कांग्रेस इन चार राज्यों में केवल 5 सीटें जीत सकी है और राजस्थान में तो उसे एक भी सीट नहीं मिली। यूपीए के जाट क्षत्रप अजीत सिंह मुंह के बल गिरे।

कांग्रेस को इस निर्णय से लाभ की बजाय नुकसान हुआ क्योंकि इससे ओबीसी नाराज हो गए थे। इन चारों राज्यों में, यादवों को छोड़कर, अन्य सभी ओबीसी जातियों ने कांग्रेस को सबक सिखाने के लिए भाजपा को वोट दिया। इससे यह साबित होता है कि भले ही किसी जाति या समुदाय का आकार, किसी सरकार को पुनर्निर्वाचित करने के लिए ‘पर्याप्त’ हो, तब भी, आक्रोशित और एकसूत्र में बंधे ओबीसी, चुनाव में जीत-हार का महत्वपूर्ण या शायद एकमात्र कारक बन सकते हैं। चूंकि वे आबादी का 52 प्रतिशत हैं इसलिए कोई भी अन्य समुदाय संख्याबल में उनका मुकाबला नहीं कर सकता।

कांग्रेस-एनसीपी की आमचुनाव में हार का सच

महाराष्ट्र के कुछ ओबीसी संगठनों और बुद्धिजीवियों ने ‘ओबीसी आरक्षण बचाओ समिति’ का गठन किया। इस समिति ने मराठा और ओबीसी आरक्षण के मुद्दे के उचित समाधान की मांग को लेकर 9 अप्रैल 2013 को मुंबई के आजाद मैदान में एक-दिवसीय धरने का आयोजन किया। समिति की ओर से मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री, समाज कल्याण मंत्री व नारायण राणे समिति को औपचारिक रूप से एक पत्र सौंपा गया जिसमें इस समस्या के हल सुझाए गए थे। परंतु आज तक सरकार ने इस समिति के सदस्यों को चर्चा के लिए आमंत्रित करना तक जरूरी नहीं समझा है।

ऐसा कहा जा रहा है कि लोकसभा चुनाव में मराठा समुदाय ने कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को वोट नहीं दिया। परंतु यह सही नहीं है। महाराष्ट्र में 2009 के लोकसभा चुनाव की तुलना में, कांग्रेस के वोटों के प्रतिशत में मात्र 1.51 की कमी आई और एनसीपी को पिछली बार की तुलना में केवल 3.28 प्रतिशत कम मत प्राप्त हुए। अगर मराठा समुदाय ने गठबंधन का साथ न दिया होता तो उसे इससे बहुत कम मत मिलते क्योंकि स्वयं मराठा संगठनों के अनुसार, मराठा (कुनबी को छोड़कर), कुल मतदाताओं का 20 प्रतिशत हैं। नारायण राणे समिति के अनुसार यह आंकड़ा 32 प्रतिशत है परंतु असल में मराठा, आबादी का लगभग 12 प्रतिशत होंगे।

लोकसभा चुनाव के पहले सभी प्रमुख मराठा संगठन एकजुट हुए और उनके नेताओं ने मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री से भेंट कर उन्हें यह आश्वासन दिया कि चुनाव में मराठा समुदाय, सत्ताधारी गठबंधन का समर्थन करेगा। यही नहीं, इन संगठनों ने एक प्रेसवार्ता आयोजित कर यह सार्वजनिक घोषणा भी की कि वे कांग्रेस एनसीपी गठबंधन का साथ देंगे। इसलिए यह मानना अनुचित होगा कि मराठाओं ने लोकसभा चुनाव में गठबंधन का साथ नहीं दिया। यह भी कहा जा रहा है कि चूंकि महाराष्ट्र में गठबंधन 15 साल से लगातार शासन में है अत: सरकार विरोधी लहर के कारण उसे हार का मुंह देखना पड़ा। सच यह है कि इस कारक ने चुनाव नतीजों पर बहुत कम प्रभाव डाला।

गठबंधन की हार का सबसे महत्वपूर्ण कारण था जाट और मराठा आरक्षण के मुद्दे पर अवांछित आक्रामकता, जिसके कारण ओबीसी गठबंधन से दूर हो गए। भाजपा को ओबीसी में व्याप्त असंतोष का अंदाजा था और इसलिए उसने शुरुआत से ही मोदी के ओबीसी होने का प्रचार किया। ओबीसी अपने समुदाय के सदस्य को देश के सर्वो’च पद पर आसीन देखना चाहते थे और इसलिए उन्होंने भावनाओं में बहकर भाजपा को वोट दिया।

ओबीसी आरक्षण बचाओ

ओबीसी आरक्षण बचाओ समिति, जाटों और मराठाओं के लिए आरक्षण के खिलाफ नहीं है। हमने यह साफ कर दिया है कि हमारी आपत्ति आरक्षण देने की प्रक्रिया को लेकर है। हमारी मांग है कि मराठा समुदाय को अलग से, आबादी में उसके अनुपात के अनुसार, आरक्षण दिया जाए। और यह करना बहुत मुश्किल नहीं है। पिछले छह सालों से ओबीसी संगठनों की ओर से समिति, मराठा नेताओं को ‘सरकार द्वारा स्वीकृत’ समाधान सुझाती आ रही है। उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय के अनुसार, कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता। इसलिए कुछ लोगों का तर्क है कि मराठा समुदाय को अलग से आरक्षण देना संभव नहीं है। इस समस्या का हल यह है कि आरक्षण पर लगी 50 प्रतिशत की सीमा को हटाया जाए। आगामी विधानसभा सत्र में महाराष्ट्र सरकार इस आशय का विधेयक पास कर सकती है और 2005 की नच्चियापनसमिति की सिफारिशें लागू कर सकती हैं। 50 प्रतिशत की सीमा हटने के बाद मराठाओं, जाटों, मुसलमानों और ईसाईयों को ‘विशेष पिछड़ा वर्ग’ का दर्जा दिया जा सकता है।

यह करने के बाद, कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को विधानसभा चुनाव के पहले अपने किसी ओबीसी नेता को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना चाहिए। अगर ऐसा होता है तो शायद यह गठबंधन अगले पांच सालों के लिए फि र से सत्ता में आ जाएगा।

 

(फारवर्ड प्रेस के सितम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

श्रावण देवरे

अपने कॉलेज के दिनों में 1978 से प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े श्रावण देवरे 1982 में मंडल कमीशन के आंदोलन में सक्रिय हुए। वे महाराष्ट्र ओबीसी संगठन उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने 1999 में ओबीसी कर्मचारियों और अधिकारियों का ओबीसी सेवा संघ का गठन किया तथा इस संगठन के संस्थापक सदस्य और महासचिव रहे। ओबीसी के विविध मुद्दों पर अब तक 15 किताबें प्राकशित है।

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