यह खुशी की बात है कि बाबासाहेब आम्बेडकर की क्रांतिकारी पुस्तक ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ (जाति का उन्मूलन) पर अभी भी बहस चल रही है। इस पुस्तक की लम्बी भूमिका लेकर उपस्थित हुई हैं मशहूर लेखिका अरुंधित रॉय और इस भूमिका को नव्याना ने प्रकाशित किया है।
यों तो किताब और विशेषकर उसकी भूमिका की सर्वत्र सराहना हो रही है, लेकिन कुछ दलित लेखकों ने अरुंधति राय की ‘भूमिका’ पर प्रश्न उठाए हैं कि एक गैर-दलित इस पर लिखने की अधिकारी कैसे हो गईं और वे किस हैसियत से आम्बेडकर को गांधी से नीचे का दर्जा देती हैं। विरोध के स्वरों को देखते हुए हैदराबाद में पुस्तक के विमोचन का कार्यक्रम भी स्थगित करना पड़ा, जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। अरुंधति रॉय एक जानी-मानी लेखिका हैं और परमाणु परीक्षण से लेकर नर्मदा, नक्सलवाद व कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दों पर वे अपनी बातें तार्किकता के साथ रखती रही हैं। देश का बुद्धिजीवी वर्ग उनका सम्मान करता है। समकालीन बुद्धिजीवियों में वे कहीं से भी समझौतावादी नहीं लगतीं और उन्होंने किसी भी मंच से अपनी आवाज उठाने में कभी संकोच या परहेज नहीं किया। मौजूदा किताब की भूमिका लिखने में भी उन्होंने कम मेहनत नहीं की। कई वर्ष पहले यह किताब एस आनंद ने उन्हेंं दी थी। उन्होंने जाति व्यवस्था को लेकर पचास साल के उनके सार्वजनिक जीवन में गांधी के विचारों की भी बारीकी से जांच की है। ‘आउटलुक’ में सबा नकवी को दिए साक्षात्कार में वे बहुत स्पष्टता से कहती हैं कि आम्बेडकर की इस किताब को जरूर पढ़ा जाना चाहिए। इस साक्षात्कार में उन्होंने यह भी कहा है कि उन्होंने गांधी के प्रति आलोचनात्मक रुख अपनाया है जो कुछ लोगों को बुरा भी लग सकता है लेकिन इन तर्कों के बीच के विमर्श से ही कोई रास्ता निकलेगा, क्योंकि जाति इस देश की हर समस्या की जड़ में है। लेकिन यहां उलटा हुआ। पता नहीं क्यों, हमारे दलित बुद्धिजीवी अरुंधति का पलड़ा गांधी की तरफ झुका हुआ मान रहे हैं। यह समझना भी मुश्किल है कि क्यों केवल दलित ही आम्बेडकर के जाति विमर्श पर बेहतर लिख सकते हैं।
अपनी लम्बी शोधपरक भूमिका में वे आम्बेडकर को जाति के संदर्भ में गांधी से बेहतर चिंतक व विचारक मानती हैं और कहती हैं कि आज यदि देश में जाति के खिलाफ बगावत है तो उसका श्रेय बाबासाहेब आम्बेडकर को है। किसी के ऐसे विचारों पर भी दलित या गैर-दलित के आधार पर विरोध जताया जाए तो यह बेतुका लगता है। आम्बेडकर ने यह निबंध ‘जांत-पात तोड़क मंडल’ समाज द्वारा बुलाई गई सभा के लिए लिखा था लेकिन जब कुछ लोगों को आम्बेडकर के विचारों का पता लगा तो उन्हें नहीं बुलाया गया। लेकिन आम्बेडकर रुके नहीं और उन्होंने इन विचारों को एक पुस्तक के रूप में छपवाकर बांटा। खुद गांधीजी ने भी इस पुस्तक को पढ़ा और लोगों से भी पढऩे का आग्रह किया। इस मायने में गांधी एक आदर्श लोकतंत्र के वाहक थे।
अरुंधति रॉय ने भी अपनी भूमिका में माना है कि गांधी में बहुत-सी बुराईयां हो सकती हैं लेकिन वे ढोंगी नहीं थे। बल्कि, कभी-कभी तो वे जरूरत से ‘यादा खुले विचार वाले लगते हैं। जाति के संदर्भ में गांधी की भूमिका को, अरुंधति ने, 1893 में जब वे अफ्रीका पहुंचे से लेकर बाद के पचास वर्षों में उनके कार्यों, भाषणों व लेखन और पूना पेक्ट के संदर्भ में जांचा-परखा है। आरक्षण के मुद्दे पर भी अरुंधति ने अपनी भूमिका में बहुत विस्तार से बात की है और उनके इस तर्क में दम है कि जब सत्तर प्रतिशत दलित बच्चे स्कूलों में नहीं हैं और मात्र दो प्रतिशत ग्रेजुएट हैं तो सत्ता में उनकी भागीदारी का क्या अर्थ रह जाता है। इसलिए यह आरोप लगाना कि वे जाति व्य्वस्था की पूरी समझ नहीं रखतीं, विचारों के लोकतंत्र के खिलाफ कहा जाएगा। कई बार तो ऐसा लगता है कि अधिक से अधिक संख्या में सवर्णों को आम्बेडकर और उनके विचारों पर लिखना चाहिए। हमारा उद्देश्य जाति व्यवस्था को खत्म करने का होना चाहिए ना कि उस तरह की रूढिय़ों को प्रोत्साहन देना, जो जाति व्यवस्था का आधार है।
(फारवर्ड प्रेस के सितम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in
फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें :