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आजीवक धर्म की प्रासंगिकता

आम्बेडकर 'पूना पैक्ट' में भी गाँधी से मात खा गए। इस पैक्ट में दलित हिन्दू मान लिए गए, जबकि वे कभी भी 'वर्ण व हिन्दू धर्म व्यवस्था' का हिस्सा ही नहीं रहे। संकट ज्यों का त्यों बरकरार रहा

इस समय ‘दलित विमर्श’ और ‘स्त्री विमर्श’ चर्चा के केन्द्र में हैं। हिन्दी साहित्य में इन विमर्शों की गूँज बहुत दूर और गहरे तक सुनाई दे रही है। जब से दलित और स्त्री विमर्श आए हैं, तभी से यह सुनिश्चित हो गया कि अब इन दोनों की गुलामी हमेशा के लिए खत्म होने जा रही है।

मेरा मानना है कि इन विमर्शों के प्रारंभकर्ता हैं प्रखर आजीवक चिंतक डा. धर्मवीर। डा. धर्मवीर अपनी वैचारिकी महान मक्खलि गोसाल, सदगुरु रैदास और कबीर के चिंतन से लेते हैं, जो दलित-बहुजन चिंतन रहे है। अपनी तथ्यात्मक और तार्किक दृष्टि से अपनी विभिन्न पुस्तकों व लेखों में डा. धर्मवीर ने उस धर्म को भी खोजा है, जो दलितबहुजनों की परंपरा में समाहित था। वह धर्म ‘आजीवक’ है, जिसके
प्रतिपादक मक्खलि गोसाल थे, जिन्होंने ‘दिशाचर’ नाम से अपना धर्मग्रंथ भी लिखा था। यह दलितबहुजनों का दुर्भाग्य कहिए कि वे अपने धर्मग्रंथ की रक्षा नहीं कर पाए, जिसके चलते वे द्विजों के गुलाम बन कर रह गए।

आजीवकों ने कभी नहीं माना कि पुनर्जन्म नाम की कोई चिडिय़ा भी होती है। आजीवक कबीर (1425-1505 ई.) तो हुंकार लगाते हैं ‘बहुरि हम काहू को आवहिंगे’। इससे आजीवकों और द्विजों के चिन्तन में जमीन-आसमान का अंतर पैदा हो जाता है। वर्ण-व्यवस्था, जातीय असमानता, कर्मकांड, अंधविश्वास पुनर्जन्म के ही विस्तार हैं।

एक समय था जब आजीवक धर्म पूरे देश पर छा गया था। डा. धर्मवीर लिखते हैं, ‘आठवीं शताब्दी से ले कर चौदहवीं शताब्दी तक जो मजदूर, किसान और कारीगर मुसलमान नहीं बने थे वे हिंदू, बौद्ध या जैन नहीं थे बल्कि आजीवक धर्म के अनुयायी थे।’ ध्यान रहे, उस समय हरिजन या दलित बहुजन जैसे शब्दों का अस्तित्व भी नहीं था। आजीवकों के मुसलमान हो जाने से ‘यादा फर्क इसलिए नहीं पड़ रहा था, क्योंकि इस्लाम में भी पुनर्जन्म के लिए कोई स्थान नहीं था। एक तरह से आजीवक अपनी परम्परा को सुरक्षित बचा रहे थे। लेकिन शीघ्र ही कबीर गरजे, ‘ना हिन्दू-ना मुसलमान।’ अभी भी आजीवक की उम्मीद बनी हुई थी। कबीर पूरे आजीवक बन गए थे, जिसमें इन्हें बड़े भाई तुल्य महान सदगुरु रैदास का समर्थन मिल रहा था। लेकिन कौम कमजोर थी इसलिए धर्म की पुनस्र्थापना होते-होते रह गई। बावजूद इस के कबीर साहेब, जो प्राचीन भारत में हमारे आजीवक महापुरुष थे, ने अपने ग्रंथ का नाम ‘बीजक’ रखा।

कबीर

आजीवकों और द्विजों की परम्पराएं समानांतर साथ चलती रही हैं। लेकिन अपना धर्म भूला देने की वजह से आजीवकों की हालत खराब ही होनी थी और हुई भी। धर्म दुनिया का सब से बड़ा और ताकतवर संगठन है। धर्महीन जातियां दलित, आदिवासी और पिछड़ी पुकारी जाती हैं।

आंबेडकर  की भूल

डा. भीमराव आम्बेडकर इस बात को जानते थे लेकिन इतिहास और दर्शन की गहराई तक न जाने के कारण वे बौद्ध धर्म में गिर गए। इस से दलितों की हालत बदतर ही रहनी थी। आम्बेडकर ‘पूना पैक्ट’ में भी गाँधी से मात खा गए। इस पैक्ट में दलित हिन्दू मान लिए गए, जबकि वे कभी भी वर्ण व हिन्दू धर्म व्यवस्था काहिस्सा ही नहीं रहे। संकट ज्यों का त्यों बरकरार रहा। डा. धर्मवीर बताते हैं कि अगर अम्बेडकर उस समय स्वामी अछूतानंद के नेतृत्व में चल रहे ‘आदि’ धर्म को भी मान लेते तो निश्चित रूप से दलित बेहतर स्थिति में रहते। आदि धर्म आंदोलन आजादी से पहले पूरे भारत में फैल चुका था। पंजाब में तो बाबा मंगू राम के नेतृत्व में 1931 की जनसंख्या में दलितबहुजनों ने खुद को आद्धर्मी घोषित कर दिया था। जैसा कि बताया गया है, आंबेडकर का क्षत्रिय बौद्ध धर्म में गिरना आजीवक धर्म के अभ्युदय को नुकसान पहुंचा गया। वह भी तब, जब डा. आम्बेडकर के दादा-नाना कबीर के अनुयाई थे। स्वयं बाबा साहेब कबीर के सबद गुनगुनाते थे। आजीवकों को यह भी याद रखना चाहिए कि डा. आम्बेडकर को बाबा साहेब कबीर साहेब की परम्परा में ह्रश्वयार से पुकारते हैं न कि किसी क्षत्रिय (द्विज) बुद्ध की वजह से। हीनता से भरे नव बौद्ध हमारे बाबा साहेब को बोधिसत्व बनाने पर तुले रहते हैं, जो बुद्ध से छोटा होता है। जबकि डा. धर्मवीर समझा रहे हैं, बाबा साहेब के सामने बुद्ध क्या बेचते हैं। बाबा साहेब आम्बेडकर बुद्ध से बहुत बड़े हैं। वे महान आजीवक हैं, जिन के सामने बुद्ध भीख का कटोरा लिए खड़े हैं।

डा. भीमराव आम्बेडकर

आज डा. धर्मवीर इन सब तथ्यों से आजीवकों को परिचित करवा रहे हैं। द्विज सकते में हैं और आजीवकों के नृत्य का अवसर आ पहुंचा है। इसे आजीवकों का सौभाग्य कहिए कि गोसाल का ‘नियति का सिद्धांत’ खरा का खरा बचा रह गया। ब्राह्मण ने इसे पुनर्जन्म के चक्कर में भाग्य से जोड़ा। लेकिन, यह भाग्य नहीं जन्म के नियत होने का सिद्धांत है। डा. धर्मवीर इसे खोज लाए हैं और इसकी व्याख्या कर रहे हैं। वे बता रहे हैं कि आजीवकों में नियति, संगति और भाव हमारे बीज मंत्र हैं।

 

(फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

कैलाश दहिया

कैलाश दहिया दलित कवि, आलोचक और कला समीक्षक हैं

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