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नेहरु की धरोहर को आगे बढ़ाना

जो कोई नेहरु की धरोहर को आगे ले जाना चाहता है उसे 'भारत में निर्मित' तीन समस्याओं को सफलतापूर्वक संबोधित और परास्त करना होगा, जिन पर खुद नेहरु ने बहुत ध्यान नहीं दिया और जिन्हें मोदी हल नहीं कर सकते - जाति, संस्कृति और चरित्र

जब हमारे प्रधानमंत्री ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का आवाहन करते हैं तो इसमें एक मार्मिक विडंबना नजऱ आना स्वाभाविक है। कथित रूप से अंग्रेजों से आजादी दिलाने वाली इस पार्टी से मुक्ति पाने का आवाहन उस समय किया जा रहा है जब पंडित जवाहरलाल नेहरु की 125वीं जयंती मनाने की तैयारियाँ चल रही हैं।

कांग्रेस मुक्त भारत का आवाहन एक पार्टी के शासन का आवाहन है, व्यवहारिक तौर पर इसका अर्थ है एक व्यक्ति का शासन। प्रधानमंत्री मोदी को शायद लगता है कि बहुदलीय प्रजातंत्र नेहरु की नाकामयाब धरोहर का ही हिस्सा है। उन्हें शायद लगता है कि भारत को चीन के एक पार्टी के शासन वाले ‘कामयाब’ राजनैतिक मॉडल की नकल करनी होगी।

नेहरु की नाकामयाब धरोहर

इस दीवाली पर, आरएसएस प्रमुख का नाराज़ होना उचित ही था कि बाज़ार में ‘मेड इन चाइना’ ब्रांड वाले हिंदू देवी-देवताओं की बाढ़ आई हुई थी। चीनी पटाखे भारतीय पटाखों से एक-तिहाई कम कीमत पर बिक रहे थे।

भाखड़ा बांध का निरीक्षण करते नेहरु

 

इससे पहले, अगस्त में, किसी ने बताया कि बाज़ार में सबसे अच्छी और सस्ती राखियाँ चीन से बन कर आई हैं। चीनी लोग रक्षाबंधन नहीं मनाते। वे राखियाँ केवल भारत के लिए बना रहे थे। यह वाकई ऐसी शर्मनाक सच्चाई थी जिसके चलते प्रधानमंत्री के नारे ‘मेक इन इंडिया’ को धार मिलती है।

यहाँ विडंबना यह है कि मूल रूप से ‘मेक इन इंडिया’ नेहरु का आवाहन था। यह उन्होंने मोदी से आठ दशक पहले कहा था। और वह इसे लेकर बहुत गंभीर थे। 1938 के आते-आते, वह अनमनी कांग्रेस को मनाने में कामयाब हो गए कि हमें एक योजना आयोग समिति की ज़रूरत है। उन्होंने सज़ा के तौर पर नेहरु को उसका अध्यक्ष बना दिया।

नेहरु इस अप्रबंधनीय और समय लेने वाली समिति के प्रमुख बनने से कतरा रहे थे। समिति में माक्र्सवादी, समाजवादी और पूंजीवादी; उद्योगपति, ट्रेड यूनियन वाले और औद्योगीकरण के विरोधी गाँधीवादी; स्वतंत्रता सेनानी और वे भी जो चाहते थे कि अँग्रेज़ यहाँ से न जाएँ; प्रजातांत्रिक और सामंतवादी ज़मींदार; योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था और अनियोजित आर्थिक स्वतंत्रता दोनों पक्षों के समर्थक, सभी शामिल थे। लेकिन भारत को एक उत्पादनशील देश में रुपांतरित करने की चुनौती उन्हें खींचती जा रही थी। वह पूरी तरह से उसमें सराबोर होते जा रहे थे। अंतत: नेहरु भारत को एक औद्योगिक राष्ट्र बनाने के दर्शन के वास्तुकार बन गए।

सन् 1939 के कराची अधिवेशन में कांग्रेस ने नेहरु के विजऩ पर बहस की और उसे अपना लिया। पार्टी ने नेहरु की योजना समिति को आदेश दिया कि वह योजना के विस्तृत ढांचे की सूक्ष्म तफ़सीलों का विकास करे। इस कार्य को नेहरु ने अपनी सर्वोच्च प्राथमिकताओं में से एक बनाया।

लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ चुका था। अक्तूबर 1940 में, इससे पहले कि नेहरु उपसमितियों की रिपोर्टों प्राप्त कर उन्हें राष्ट्रीय योजना में सम्मिलित करते, उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। उन्होंने उपसमितियों को अपने बिना ही काम करने के लिए उकसाया। लेकिन उस समय सारा राजनैतिक ढांचा बिखरा हुआ था। लेकिन नेहरु ने हिम्मत न हारी और नैनी सेंट्रल जेल को ही राष्ट्रीय योजना समिति का मुख्यालय बनाने की कोशिश की। जेल अधिकारियों ने इसकी इजाज़त न दी।

1947 के बाद, प्रधानमंत्री नेहरु नैनी को भूले नहीं। उन्होंने योजना समिति को राष्ट्रीय योजना आयोग में तबदील कर दिया और नैनी को एक औद्योगिक केंद्र बनाने में दिलचस्पी भी ली। नैनी उनके गृह-नगर इलाहाबाद और संसदीय क्षेत्र फूलपुर के साथ लगता था। पिछले छह दशकों में, नैनी-इलाहाबाद क्षेत्र में कम से कम दो दर्जन प्रमुख और अनगिनत छोटे उद्योग लगाने के कई गंभीर प्रयास किए गए। प्रमुख उद्योगों में से 60 प्रतिशत और छोटे उद्योगों में से 90 प्रतिशत असफल हो चुके हैं जबकि बाकी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

नेहरु के अपने गृह-नगर में, आज़ाद भारत की यह औद्योगिक असफलता हमें गंभीर होने को मजबूर करती है। नैनी में यमुना और गंगा का संगम होता है। ये बारहमासी नदियाँ हमें भारत के सबसे अधिक आबादी वाले क्षेत्र से जोड़ती हैं। हमारे यहाँ रेलवे जंक्शन जो सारे देश से जुड़ा है। हमारे शैक्षणिक संस्थान भारत के प्राचीनत संस्थानों में शुमार हैं—जिनमें कई तकनीकी शिक्षा देने वाले संस्थान भी शामिल हैं। इलाहाबाद में अत्यधिक जीवंत राजनैतिक समुदाय भी है। भारत के पहले सात में से पाँच प्रधानमंत्री यहीं के थे। यूपी का उच्च न्यायालय, सैन्य छावनी, और शानदार वायुसेना बेस भी यहाँ मौजूद है। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रयाग (इलाहाबाद-नैनी) हिंदू भारत का एक प्रमुख धार्मिक केंद्र भी है। तो फिर क्यों नेहरु के अपने गृह-नगर को उत्तर भारत का औद्योगिक केंद्र बनाने के प्रयास इतने निष्फल साबित हुए?

चूंकि नेहरु की धरोहर की असफलता प्रत्यक्ष है, हमारे देश ने मोदी के फ़ैसले का कोई विरोध नहीं किया जब उन्होंने नेहरु की धरोहर के प्रतीक को उखाड़ फेंका, अर्थात् योजना आयोग को।

क्या मोदी नेहरु की असफलताओं से सीख ले सकते हैं?

महात्मा गाँधी भारतीय गाँवों को आदर्श कहते थे, लेकिन नेहरु और मोदी दोनों सही हैं कि भारत को औद्योगिक दृष्टि से एक उत्पादनशील देश बनना होगा। नेहरु ने वह नींव रखी थी जिस पर हमें निर्माण करना है। समस्या यही है कि अब तक इस बात का कोई संकेत हमें नहीं मिला कि नरेंद्र मोदी वाकई समझते हैं कि नेहरु की कोशिशें इतनी बुरी तरह से नाकामयाब क्यों हुईं कि आज हमें अनीश्वरवादी चीन से हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ आयात करनी पड़ती हैं।

हालाँकि नेहरु एक महान व्यक्ति थे, वह भारत को एक औद्योगिक देश बनाने के महान सपने को पूरा करने में विफल रहे क्योंकि वह तीन मुद्दों को समझने और संबोधित करने में नाकामयाब रहे – जाति, संस्कृति और चरित्र।

माक्र्स के बौद्धिक प्रभाव ने नेहरु के लिए जाति समस्या को समझना लगभग असंभव बना दिया। उनकी अवधारणा यह थी कि समाजवाद जल्द ही जाति को अप्रासंगिक बना देगा। 12 अप्रैल 1929 को कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में अपना अध्यक्षीय भाषण देते हुए नेहरु ने कहा, ‘समाजवाद के तहत कोई … भेदभाव या उत्पीडऩ नहीं हो सकता। आर्थिक दृष्टि से बात करें तो हरिजन भूमिहीन सर्वहारा हैं, और आर्थिक समाधान उन सामाजिक रुकावटों को गिरा देता है जो रीति-रिवाज़ों और परंपराओं ने खड़ी की हैं…’

मार्क्स की इस अवधारणा ने कि अर्थव्यवस्था बाकी सब बातों को निर्धारित करती है नेहरु को मानो अंधा ही कर दिया और वह यह देख न पाए कि एक या दो उच्च जातियों ने पूरी कांग्रेस पर कब्ज़ा कर लिया है। कई दूसरे कारणों से, न इंदिरा, न राजीव कुछ कर सके। बाकियों ने कुछ करने की कोशिश तक नहीं की। इस प्रकार के जातिगत-भ्रष्टाचार ने दूसरी जातियों को कांग्रेस से बाहर कर दिया जो अपने लिए वैकल्पिक मंच तलाशने लगीं।

मोदी राजनैतिक रूप से जातियों को एकीकृत करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन वह उस संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं जिसे नेहरु ने सही रूप में भारत के पिछड़ेपन का कारण बताया था। जब वह 1934 में जेल में थे, नेहरु ने एक लेख में यह लिखा था – ‘…हम क्या हैं? निष्क्रिय, आवेगहीन, अकर्मण्य नस्ल, जो स्वतंत्रता और प्रतिष्ठा के विचार को भूली बैठी है। हमारे जीवन के मार्गदर्शक सिद्धांत सिवाय प्रतिबंध के कुछ भी नहीं। तुम किसी दूसरे के साथ बैठ कर जल-पान नहीं करोगो, तुम अमुक व्यक्ति को स्पर्श नहीं करोगो, तुम समुद्री यात्रा कर दूसरे देश नहीं जाओगे, आदि। पुराने प्रतिबंधों में से एक महान प्रतिबंध हम भूल चुके हैं – ‘तुम गुलामी नहीं करोगे।’… दुनिया आगे बढ़ गई है और हम पीछे छूट गए हैं अपने अंधविश्वासों और रीति-रिवाज़ों में डूबे जिन्हें हम समझते तक नहीं। हमारे पुराने वास्तुशिल्प की तरह, हमारे विश्वास ने भी अपनी पुरातन पवित्रता और सरलता खो दी है, और उस पर अब दुरुपयोग, अशिष्ट प्रतीकों और मान्यताओं का आवरण चढ़ा दिया गया है। आज हमारे विवेक की रक्षा उन लोगों के हाथों में है जो तंगदिल और कट्टरपंथी है, और ज्ञान के नाम पर वे केवल खोखली आकृतियाँ और विधियाँ ही जानते हैं … आधुनिक विश्व में कट्टरपंथियों के लिए कोई जगह नहीं है। हमें जिज्ञासुपन की भावना का विकास करना है और समस्त ज्ञान का स्वागत करना है उसका स्रोत चाहे पूर्व में हो या पश्चिम में।’

‘मेक इन इंडिया’ अभियान निष्फल क्यों हो सकता है

मोदी सोचते हैं कि वह डंडे के ज़ोर पर सुशासन ले आएँगे और फिर दुनिया ‘मेक इन इंडिया’ के लिए दौड़ी चली आएगी। शासन करना एक व्यवहारिक समस्या है लेकिन मूल मुद्दे सांस्कृतिक हैं। मोदी की नेकनीयती से सराबोर योजनाएँ नाकामयाब होंगी अगर वे संस्कृति, जाति और चरित्र के मुद्दों को नजऱअंदाज़ करते हैं तो। एक व्यवहारिक मुद्दा यह है कि एक व्यक्ति का डंडा-राज नौकरशाहों और अफ़सरों को समय पर आने के लिए मजबूर कर सकता है, लेकिन यह निर्णय लेने और शासन की प्रक्रिया को धीमा कर देगी। दूसरा मुद्दा भी प्रत्यक्ष है – योजना आयोग को रद्द करना और एक बेहतर विकल्प का निर्माण करना एक ही बात नहीं होती। जो भी हो, नेहरु की धरोहर इसलिए नाकामयाब हुई क्योंकि वह चाहते थे कि भारतीय लोग वस्तुओं का निर्माण करें, लेकिन उन्हें यह मालूम नहीं था कि सही प्रकार के भारतीयों का निर्माण कैसे किया जाए।

नेहरु को दुनिया की सबसे साफ़-सुथरी अफ़सरशाहियों में से एक और एक आदर्शवादी राजनैतिक दल विरासत के तौर पर मिले थे। लेकिन उन्हें यह पता नहीं था कि सुशासन के इस ‘लौह ढाँचे’ को बनाया किसने था। इसके विपरीत, मोदी को विरासत में शासन का भ्रष्ट हो चुका ढाँचा प्राप्त हुआ है। इसलिए, शासन करने से पहले उन्हें अपने ही शासन तंत्र से लडऩा होगा। मोदी को लगता है कि वे अपनी ‘लौह मुट्ठी’ से इस तंत्र में लगे जंग और टेढ़ेपन को ठीक कर सकते हैं। लेकिन उन्हें पहले से पता है कि अच्छे से शासन करने से पहले उन्हें अपनी ही टीम के खिलाफ़ बेरहम होना पड़ेगा। इससे यही संभावना बनती है कि घर की अंदरूनी लड़ाई के कारण कई घायल अहम् सामने आएँगे और शासन करने के लिए समय और ऊर्जा का अभाव रहेगा। यह लड़ाई शायद उन्हें नेहरु की सबसे महान धरोहर को नष्ट करने के लिए मजबूर कर दे – राजनैतिक आज़ादी। और भाजपा खुद अपने बादशाह का पहला निशाना बन सकती है।

मोदी, नेहरु की ही तरह, ‘मेक इन इंडिया’ के समर्थक हैं। लेकिन, नेहरु ही की तरह, उन्हें इस बात की भनक भी नहीं कि चरित्रवान भारतीयों का निर्माण किस तरह किया जाए – उन्हें किस प्रकार उत्पानशील बनाया जाए, बिना उनकी लोकतांत्रिक आज़ादी का हनन किए। नेहरु एक महान व्यक्ति थे। उन्होंने भारत के पहले प्रधानमंत्री होने का हक हासिल किया क्योंकि अँग्रेज़-मुक्त भारत का निर्माण करने के लिए नेहरु दस दफ़ा जेल गए और अपने जीवन के कुल मिलाकर साढ़े-नौ साल जेल में गुज़ारे। जो कोई नेहरु की धरोहर को आगे ले जाना चाहता है उसे ‘भारत में निर्मित’ तीन समस्याओं को सफलतापूर्वक संबोधित और परास्त करना होगा, जिन पर खुद नेहरु ने बहुत ध्यान नहीं दिया और जिन्हें मोदी शायद हल नहीं कर सकते – जाति, संस्कृति और चरित्र।

(फारवर्ड प्रेस के नवम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

विशाल मंगलवादी

विशाल मंगलवादी ट्रूथ एंड ट्राँसफॉर्मेशन : ए मेनीफेस्टो फॉर एलिंग नेशन्स के लेखक हैं। इस लेख का पूर्ण संस्करण जल्द ही ऑनलाइन उपलब्ध होगा।

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