बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के मधुबनी के एकमंदिर में पूजा के बाद मंदिर को धुलवाये जाने से इस बात पर बहस शुरू हो गयी है कि क्या मुख्यमंत्री छुआछूत के शिकार हो गए।
वहीं उत्तरप्रदेश में बसपा के राष्ट्रीय महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्या ने यह कहकर हलचल मचा दी कि शादियों में गौरी-गणेश की पूजा नहीं करनी चाहिए। उनके इस बयान की अखबारों में खूब चर्चा रही। लेकिन जल्दी ही बसपा सुप्रीमो मायावती ने मौर्या के इस बयान को उनकी निजी राय कहते हुए उससे अपना पल्ला झाड़ लिया।
धार्मिक पाखंड के विरोध का यह विचार न यहां से शुरु होता है और न खत्म। भारतीय समाज में इन सवालों पर बहसें ही नहीं बल्कि आंदोलन भी हुए हैं। आम्बेडकर से पहले और पेरियार के बाद न सिर्फ यह सिलसिला कायम है बल्कि मायावती, जो आज भले ही इस सवाल से कन्नी काट रही हों, की यूपी में सत्ता कायम होने की नींव में यही वैचारिकी रही है।
अब सवाल यह है किआज इन सवालों से, इन्हीं सवालों को उठाने वाले, अपना नाता क्यों तोड़ रहे हैं? यह राजनीतिक भटकाव हैं या फिर समाहित होने की प्रक्रिया या वे समाहित हो जाने में ही अपना हित देखते हैं।
दरअसल, जो राजनीति जाति या अस्मिता आधारित होती है, उसके धर्म में समाहित हो जाने का खतरा हमेशा रहता है। यह अनायास नहीं है कि ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ का नारा लगाने वाले ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ कहने लगे। यह हिंदू धर्म के देवी-देवताओं के प्रति आकर्षण मात्र नहीं था बल्कि यह नर्म हिन्दुत्व के प्रति झुकाव था। ‘हाथी आगे बढ़ता जाएगा, ब्राह्मण शंख बजाएगा’ कहते-कहते ‘हाथी’ उसी मनुवादी अहाते में चला गया, जहां से निकलने केलिए वह संघर्षरत था। यह हिन्दुत्वादी रणनीति थी, जो अस्मिता आधारित जातिवादी राजनिति को ‘नर्म हिन्दुत्वादी’ राजनीति की तरफ ले गई।
ऐसे में कर्पूरी ठाकुर भागीदारी महासम्मेलन में बसपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्या की बातों का विश्लेषण निहायत जरुरी हो जाता है। आईये हम समझें कि वे भागीदारी की क्या रुपरेखा खींच रहे थे। उन्होंने कहा कि मनुवादी व्यवस्था के लोगों ने शूद्रों का दिमाग नापने के लिए गोबर, गणेश का सहारा लिया। ऐसे डॉक्टर, इंजीनियर होने से क्या मतलब जो यह दिमाग न लगाए कि क्या गोबर का टुकड़ा भगवान के रूप में हमारा कल्याण कर सकता है? क्या पान-सुपारी खा सकता है? क्या पैसे ले सकता है। क्या पत्थर की मूर्ति दूध पी सकती है? उन्होंने ऐसा करवाकर हमारी बुद्धि नाप ली और मान लिया कि इनसे जो चाहो कराया जा सकता है। मौर्या ने कहा किआज सिर्फ वैचारिक बात करने की जरूरत नहीं है, उसे व्यवहारिक रूप में जीवन में उतारने की भी जरूरत है।
हमें उन भावनाओं, जो किसी दलित के मंदिर में जाने के बाद उसके शुद्धिकरण से आहत होतीं हैं, से दूर हटकर सोचना होगा। और यह सिर्फ दलितों-पिछड़ों से जुड़ा सवाल नहीं है बल्कि यह राष्ट्र निर्माण का सवाल है, जो वैज्ञानिकता के बगैर अपूर्ण है।
दरअसल, दलित राजनीति, जिसके मूल में मनुवादी-ब्राह्मणवादी व्यवस्था का विरोध था, ने ही अपने समाज के लोगों में मनुष्य से मनुष्य के बीच भेद करने वाले इस विभाजनकारी विचार को चिन्हित करवाया था। उस राजनीति के भटकाव के बाद उस समाज का भटकाव कोई आश्चर्यजनक नहीं है। यह तो होना ही था। मौजूदा दलित राजनीति यह भांप रही है कि कोरी वैचारिकबात करने से इस समस्या का हल नहीं होगा, बल्कि व्यवहारिकता में इसका क्रियान्वयन करना होगा क्योंकि उससे दूर हुआ वर्ग, जो ‘पत्थर को दूध पिलाने वालों’ के साथ चला गया है, को वापस लाए बगैर वह अपना अस्तित्व को नहीं बचा सकती। दलित राजनीति, दलित समाज में उभरे मध्यवर्ग के भ्रमित हो जाने को एक खतरे केरुप में देख रही है। लोकसभा चुनावों में इसी वर्ग ने भाजपा के पक्ष में माहौल बनाया। ठीक यही प्रवृत्ति पिछड़ी जातियों में भी रही। मध्यम वर्ग ने भाजपा के प्रभाव में दरअसल उस हिन्दुत्वादी राजनीति की प्रक्रिया के तहत आया है, जो उसकी अस्मिता के सवाल को हल करने का दावा करती है। तो फिर ऐसे में वह दलित-पिछड़ा, जो किसी वैचारिकता के कारण नहीं बल्कि अस्मिता के सवाल पर किसी माया-मुलायम के साथ गया था, वह क्यों उनके साथ रहेगा?
रही बात मायावती की तो पहले भी वे पेरियार की मूर्ति केसवाल पर भाजपा के सामने घुटने टेक चुकी हैं। 2002 में भाजपा के सहयोग सेे चल रही बसपा सरकार ने जब लखनऊ के आंबेडकर पार्क में पेरियार की मूर्ति लगवाने का निर्णय लिया तो भाजपा, बजरंगदल व अन्य हिन्दुत्वादी संगठनों ने इसका विरोध किया और अंतत: मूर्ति नहीं लग पाई। भाजपा और उसके साथियों के लिए, पेरियार की मूर्ति एक व्यक्ति का प्रतिनिधित्व नहीं करती बल्कि उस सशक्त विचार का प्रतिनिधित्व करती है, जो इन संगठनों की दृष्टि में, भारतीय समाज के अस्तित्व के लिए खतरा है। इसीलिए इस विचार से आतंकित संगठनों ने 2007 में ‘तीसरी आजादी’ नाम की एकसीडी का भी विरोध किया था।
बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी, जो स्वयं को महादलित होने की वजह से, समाज में व्याप्त अस्पृश्यता व पूर्वाग्रह का शिकार बता रहे हैं, से भी पूछा जा सकता है कि वे उस मंदिर में क्या करने गए थे? मांझी जब कहते है कि सोचिए हम कहां खड़े हैं, हम जातिवाद के घिर गए हैं तो उन्हें भी यह सोचना चाहिए कि वह मंदिर, जहां वे गए थे, भारतीय लोकतंत्र का मंदिर नहीं, बल्कि मनुवादी व्यस्था के तहत संचालित वह सदन है, जिसमें दलितों का प्रवेश वर्जित है। मांझी के इस बयान के बाद यह भी कहा जा रहा है कि उनके आने की वजह से मंदिर नहीं धोया गया, बल्कि उन्होंने मंत्रोचार के साथ पूरे विधि विधान से पूजा की। मांझी को इस बात पर विचार करना चाहिए किवे वहां गए ही क्यों। उनका यह कहना कि वे महादलित हैं, इसलिए उनके साथ ऐसा हुआ, झूठ नहीं है परन्तु यह उन्हें एक अपरिपक्व वैचारिक नेता के रुप में स्थापित करता है।
(फारवर्ड प्रेस के नवम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)
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