बाबासाहेब आंबेडकर के जीवन और उनके संघर्ष में जो तिथियां मील का पत्थर बनकर उभरीं, उन्हें याद रखने के लिए किसी को कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता-चाहे वह कोई उच्च शिक्षित आंबेडकरवादी हो या सामान्य दलित ग्रामीण। ये तारीखें उनके दिलों में दर्ज हैं। वे साल-दर-साल इन तारीखों का इंतजार करते हैं। 6 दिसंबर को ही लीजिए, जिस दिन सन 1956 में, आंबेडकर ने अपनी आखिरी सांस ली थी। दिसंबर के पहले हफ्ते में लाखों लोग मुंबई की चैत्य भूमि पहुंचकर उन्हें अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। अप्रैल में पडऩे वाली आंबेडकर जयंती के आयोजन दो महीनों तक चलते हैं। महाराष्ट्र के एक गांव की महिला, चैत्य भूमि की अपनी यात्रा की तैयारी 15 दिन पहले शुरू कर देती है। वह अपने माता-पिता से मिलने जाती है और कड़ाके की सर्दी व भारी भीड़ का सामना करते हुए, अपने बच्चे को गोद में लिए, उस स्थान पर पहुंचती है जहां आंबेडकर का अंतिम संस्कार हुआ था।
नये साल का पहला दिन भी इससे कुछ अलग नहीं है। अधिकतर लोगों के लिए यह नये संकल्प लेने का दिन होता है और वे स्वयं को नयी ऊर्जा से भरपूर पाते हैं। भारत के वंचितों और दमितों के लिए एक जनवरी सिर्फ नये संकल्प लेने का दिन नहीं है- उससे कहीं ज्यादा है। वे इसे पेशवाओं का राज समाप्त होने की जयंती के रूप में मनाते हैं और इससे उन्हें गरिमापूर्ण जीवन के लिए अपना संघर्ष जारी रखने की प्रेरणा मिलती है। पेशवाओं के राज में वे केवल अछूत ही नहीं थे, उन्हें देखना भी पाप था। पेशवा उनकी छाया से भी घृणा करते थे। पेशवाओं ने दलितों की कई पीढिय़ों को तबाह कर दिया था। सन् 1818 के पहले दिन, पेशवाओं के साम्राज्य पर ब्रिटिश झंडा फहराया और इसके पीछे थी महार सैनिकों की वीरता।
कैप्टन फ्रांसिस स्टॉटन के साथ थे 449 महार और एक मातंग, जो पेशवाओं के प्रभुत्व वाले तत्कालीन ब्राह्मणवादी समाज से बहिष्कृत थे। इन मात्र 450 सैनिकों ने पेशवाओं की विशाल सेना के दांत खट्टे कर दिए। पेशवा के सैनिक केवल पेट भरने के लिए भोजन, तन ढंकने के लिए कपड़े और अपने सिर पर छत के लिए लड़ रहे थे-उनके लिए युद्ध केवल एक काम था। इसके विपरीत, अछूत सैनिकों के लिए यह उनकी गरिमा की लड़ाई थी, पेशवाओं के राज में उनकी गुलामी के खिलाफ संघर्ष था। पेशवा के सैनिकों की बड़ी संख्या इन महार सैनिकों के नैतिक साहस के आगे ठहर न सकी। सन् 1818 के उदय के पहले, इन अछूतों ने कभी उस आनंद का अनुभव नहीं किया था जो उन्हें उस संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को पराजित कर मिला, जिसने उन्हें गुलाम बनाकर रखा था। यह इस बात का सुबूत है कि जिन लोगों की आंखों में कोई स्वप्न होता है वे उसे यथार्थ में बदलने का तरीका ढूंढ ही लेते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि समाज विभिन्न मानसिकताओं वाले लोगों का समुच्चय होता है-इनमें से कुछ अपने दिल में किसी सपने को पालते हैं और अधिकांश, दिशाहीन जीवन जीते हैं।
पेशवा के सैनिक स्वतंत्र व्यक्ति थे। अछूतों के विपरीत, उन्होंने कभी दमन और गुलामी का अनुभव नहीं किया था। अछूत यह जानते थे कि गुलामी के अंधेरे से बुरा और स्वतंत्रता की रोशनी से बेहतर कुछ नहीं होता। वे स्वार्थी और कुटिल नहीं थे और इसलिए अंग्रेज उनका सम्मान करते थे। अंग्रेजों ने उनकी मदद करने वाले इन सिपाहियों की याद में एक विजय स्तंभ का निर्माण करवाया। यह विजय स्तंभ आज भी कोरेगांव-जहां यह युद्ध हुआ था-में खड़ा है और उस पर साहसी महार और मातंग शहीदों के नाम उत्कीर्ण है।
आंबेडकर की कोरेगांव की तीर्थयात्रा
ग्यारह जनवरी 1927 को आंबेडकर पहली बार कोरेगांव पहुंचे। इसके बाद से, बाबा साहेब, जो हमेशा यह कहा करते थे कि ‘हम सियार नहीं, सिंह हैं’, लगभग हर वर्ष ‘सिंहों’ के इस स्मारक पर पहुंचने लगे। अब, हर नये साल पर उनके अनुयायी उस युद्ध भूमि के दर्शन करने जाते हैं, जहां उनके पूर्वजों ने यश अर्जन किया था।
परंतु एक जनवरी 1927 को कोरेगांव में बोलते हुए बाबा साहेब ने केवल महार सैनिकों की वीरता की चर्चा नहीं की। उन्होंने ब्रिटिश सरकार की कृतघ्नता पर भी निशाना साधा। उन अछूतों, जिनके पूर्वजों ने ब्रिटिश राज की स्थापना के लिए अपनी जाने न्यौछावर की थी, को सेना में भर्ती नहीं किया जा रहा था। बाबा साहेब ने कहा कि यह एक तरह का छल है। महार सैनिकों ने पेशवा के खिलाफ युद्ध इसलिए लड़ा क्योंकि पेशवा और उनके पूर्ववर्ती शासकों ने उनके साथ कुत्तों से भी बुरा बर्ताव किया था। महार सैनिकों ने अंग्रेजों का साथ इसलिए दिया ताकि पेशवाओं का अमानवीय शासन समाप्त हो सके। परंतु इसके लिए उनका आभारी होने की बजाए अंग्रेजों ने उनसे उनके हथियार और सेना में भर्ती होने का अधिकार छीन लिया।
इसके कुछ समय बाद, 14 फरवरी 1927 को ब्रिटिश सरकार ने बाबा साहेब को बंबई विधानमंडल का सदस्य नियुक्त किया। तत्पश्चात, 19-20 मार्च को उन्होंने महाड सत्याग्रह का नेतृत्व किया। बाबा साहेब अब एक सामान्य नागरिक नहीं रह गए थे और इसलिए जिला कलेक्टर और पुलिस सहित पूरे प्रशासन को मजबूर होकर उन्हें सम्मान देना पड़ा। इस तरह, कोरेगांव विजय स्तंभ की एक जनवरी 1927 की उनकी यात्रा ने नए जनांदोलनों की राह प्रशस्त की। उस दिन, जब डॉ. आंबेडकर ने स्तंभ के बगल में खड़े होकर भाषण दिया, तब हर अछूत को यह समझ में आया कि वे क्या हैं।
उस दिन से नए साल का पहला दिन सामाजिक क्रांति के लिए और उत्साह से लडऩे के संकल्प का दिन बन गया। एक जनवरी को कोरेगांव में इक्ट्ठा होने की परंपरा तब से लगातार जारी है। उसके बाद कई अन्य महत्वपूर्ण दिनों की जयंतियां मनाई जाने लगीं। 2 मार्च को कालाराम मंदिर प्रवेश, 19-20 मार्च को महाड सत्याग्रह, 14 अप्रैल को बाबा साहेब का जन्मदिन, 14 अक्टूबर को बाबा साहेब द्वारा हिंदू धर्म को खारिज कर बौद्ध धर्म अपनाना, 26 नवंबर को संविधान दिवस, 6 दिसंबर को बाबा साहेब की पुण्यतिथि व 25 दिसंबर को मनुस्मृति दहन-ये वे कुछ तारीखें हैं, जिन्हें आंबेडकरवादी आज भी नहीं भूले हैं।
आंबेडकर का अनादर
यह महत्वपूर्ण है कि इन तिथियों को याद रखना ही काफी नहीं है। हमें उन्हें इस रूप में याद रखना है, जिससे आंबेडकर और कोरेगांव के शहीदों का मान बढ़े। आंबेडकरवादी इन विभिन्न स्मारकों की यात्रा करते हैं परंतु यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वे वहां बाबा साहेब के अनुयायी के रूप में नहीं बल्कि अपनी-अपनी पार्टियों के प्रतिनिधि के रूप में पहुंचते हैं। वे सभाएं आयोजित करते हैं, जिनमें वे अपने-अपने संकीर्ण एजेण्डा को आगे बढ़ाने की बातें करते हैं। यह बाबा साहेब के ‘संगठित’ होने के आह्वान का अपमान है। चाहे कोरेगांव हो या चैत्य भूमि, अंबेडकारवादी वहां अपने नेता की विरासत को याद करने आते हैं परंतु पार्टियां उन्हें केवल अपना श्रोता मान, सभाएं आयोजित करती हैं। इससे बाबा साहेब का अनादर होता है। आंबेडकर की पिछली पुण्यतिथि 6 दिसंबर 2014 को तो दो आंबेडकरवादी पार्टियों के सदस्य आपस में लड़ पड़े थे।
हर वर्ष हम देखते हैं कि कोरेगांव स्तंभ के सामने अलग-अलग समूहों में इकट्ठा लोग अपने-अपने एजेण्डे पर चर्चा करते हैं। इससे यह साफ होता है कि हम संगठित नहीं हैं। आज से लगभग दो सदी पहले, एक जनवरी को 450 सैनिकों ने एक होकर पेशवाओं के खिलाफ युद्ध लड़ा था। उनका एक ही एजेण्डा था। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम सब साथ आएं, ‘संगठित’ हों और बाबा साहेब और उनकी विरासत को सच्चा सम्मान दें।
(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2015 अंक में प्रकाशित)
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