भाजपा और उसके साथी संगठनों के अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के कैम्पस में राजा महेन्द्र प्रताप सिंह की याद में कार्यक्रम करने के प्रयास को विश्वविद्यालय के कुलपति ने यह घोषणा कर असफल कर दिया कि विश्वविद्यालय स्वयं अपने इस पूर्व छात्र के स्वाधीनता संग्राम में योगदान पर सेमिनार आयोजित करेगा। भाजपा ने इस व्यक्तित्व को इतिहास के पन्नों से इसलिए खोज निकाला क्योंकि उनकी मृत्यु के दशकों बाद भी आम लोगों के मन में उनके प्रति बहुत सम्मान है। ठीक इसी मौके पर यह मुद्दा क्यों उठाया गया, इस प्रश्न का उत्तर दिलचस्प है।
महेन्द्र प्रताप की 29 अप्रैल 1979 को मृत्यु हो गई थी। इतने वर्ष बाद भाजपा को अचानक लगा कि उनकी जाट और हिंदू पहचान का उपयोग वह अपने राजनीतिक खेल के लिए कर सकती है। महेन्द्र प्रताप अप्रतिम स्वाधीनता सेनानी, पत्रकार और लेखक थे। वे मानवतावादी थे और धार्मिक व राष्ट्रीय सीमाओं से परे, दुनिया के सभी देशों का महासंघ बनाने के विचार से प्रेरित थे। वे मार्क्सवादी थे और सामाजिक सुधार और पंचायतों के सशक्तीकरण के पक्षधर थे। वे भारतीय स्वाधीनता संग्राम सेनानी संगठन के अध्यक्ष भी थे। उन्होंने सन 1915 में काबुल में भारत की पहली निर्वासित सरकार बनायी थी। यहां यह याद करना प्रासंगिक होगा कि इसके काफी वर्षों बाद, सन् 1929 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत की पूर्ण स्वतंत्रता को अपना लक्ष्य घोषित किया। इस निर्वासित सरकार को ‘हुकूमत-ए-मुख्तर-ए-हिंद’ कहा जाता था और इसके मुखिया महेन्द्र प्रताप थे। मौलवी बरकतउल्लाह इसके प्रधानमंत्री और मौलाना औबेदुल्ला सिंधी, आतंरिक मामलों के मंत्री थे।
झूठ और अफवाह की जाल
स्वाधीनता के बाद, महेन्द्र प्रताप ने 1957 के लोकसभा चुनाव में मथुरा से अटल बिहारी वाजपेयी को पराजित किया था। यह तथ्य कि वे तत्कालीन भारतीय जनसंघ के नेता के खिलाफ चुनाव लड़े, इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि वे सांप्रदायिक ताकतों के धुर विरोधी थे। भाजपा का दावा है कि अगर महेन्द्र प्रताप ने अपनी जमीन दान न दी होती तो एएमयू अस्तित्व में न होता। यह दावा तथ्यों के विपरीत है। एएमयू के पूर्ववर्ती मोहम्मडन एंग्लो ओरिएन्टल कॉलेज (एमएओ) की स्थापना सन् 1886 में हुई थी और इसका भवन, ब्रिटिश केन्टोनमेंट से लगभग 74 एकड़ जमीन खरीदकर बनाया गया था। इसके काफी बाद सन् 1929 में, प्रताप ने अपनी 3.04 एकड़ भूमि, जिसे तिकोनिया ग्राउण्ड कहा जाता है, एएमयू को दान दी। यहाँ अब एएमयू के सिटी हाईस्कूल का खेल के मैदान है।
महेंद्र प्रताप ने सन् 1895 में इस कॉलेज में दाखिला लिया था परन्तु अपनी स्नातक स्तर की पढ़ाई पूरी कये बिना उन्होंने 1905 में इसे छोड़ दिया था। सन् 1920 में एमएओ, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बन गया और यह आज भी महेन्द्र प्रताप सिंह को अपना पूर्व छात्र मानता है। सन् 1977 में एमएओ की स्थापना के 100 वर्ष पूरे होने पर आयोजित समारोह में एएमयू के तत्कालीन कुलपति प्रोफेसर ए.एम. खुसरो ने महेन्द्र प्रताप का सम्मान किया था।
जिस समय एएमओ की स्थापना हुई थी, उस समय महेन्द्र प्रताप का जन्म भी नहीं हुआ था। अत: उनके द्वारा इस संस्था को कोई जमीन दान दिए जाने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। हां, यह जरूर है कि महेन्द्र प्रताप के पिता मुरसान के राजा घनश्याम सिंह ने इस कॉलेज के होस्टल में एक कमरे का निर्माण करवाया था जो आज सर सैय्यद हॉल (दक्षिण) का कमरा नंबर 31 है।
भाजपा की मांग है कि एएमयू को राजा महेन्द्र प्रताप सिंह की जयंती उसी तरह मनानी चाहिए जिस तरह वह अपने संस्थापक सर सैय्यद अहमद खान की जयंती मनाता है। कुलपति का तर्क यह था कि एएमयू अपने हर पूर्व छात्र या दानदाता की जयंती नहीं मना सकता यद्यपि विश्वविद्यालय के निर्माण में उनकी भूमिका का वह सम्मान करता है। यूनिवर्सिटी में पहले से ही सर सैय्यद के चित्र के बगल में महेन्द्र प्रताप का चित्र भी लगा हुआ है।
तनाव की राजनीति
प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ने पार्टी की जिला इकाई को निर्देश दिया कि वह एएमयू के प्रांगण में महेन्द्र प्रताप की जयंती मनाये। महेन्द्र प्रताप, जाट नेता भी माने जाते हैं जबकि एएमयू की छवि एक मुस्लिम संस्थान की है। सांप्रदायिक ताकतों द्वारा जाटों और मुसलमानों के बीच विवाद पैदा कर, मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक दंगे भड़काए गए थे। अब, भाजपा, इलाके के एक सम्मानित व्यक्ति को अपनी राजनीति का अंग बना लेना चाहती थी और अगर राज्य सरकार इस समारोह पर रोक लगाती तो उस पर मुसलमानों का तुष्टीकरण करने का आरोप जड़ दिया जाता।
एएमयू के कुलपति लेफ्टिनेंट जनरल जमीरउद्दीन शाह के महेन्द्र प्रताप की जयंती पर भारत के स्वाधीनता संग्राम में उनकी भूमिका पर सेमिनार के आयोजन के प्रस्ताव से कम से कम कुछ समय के लिए विवाद टल गया है। अन्यथा भाजपा का इरादा एएमयू के मुख्य द्वार पर रैली करने का था, जिससे तनाव बढऩे की संभावना होती।
इस घटनाक्रम के कई सबक हैं। पहला तो यह कि भाजपा अपनी सांप्रदायिक राजनीति के हित साधने के लिए राष्ट्रीय नेताओं का इस्तेमाल कर रही है, फिर चाहे वे सरदार पटेल हों, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी या इस मामले में राजा महेन्द्र प्रताप। इन नेताओं के जीवन के केवल उस पक्ष को प्रचारित किया जा रहा है जिससे सांप्रदायिक ताकतों को लाभ मिले। महेन्द्र प्रताप, जो कि एक मार्क्सवादी थे और धर्म के नाम पर राजनीति के खिलाफ थे, को केवल एक जाट नेता बताया जा रहा है।
(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2015 अंक में प्रकाशित )
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