“अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे
तोडऩे ही होंगे मठ और गढ़ सब।”
मुक्तिबोध की ये पंक्तियां आज बेहद प्रासंगिक हैं। सत्ता पर काबिज होते ही हिन्दुत्ववादी शक्तियों ने उन विचारों और अभिव्यक्तियों, जिनसे वे सहमत नहीं हैं, का जिस तरह से दमन शुरू किया है, वह भत्सर्ना और निन्दा की सीमा से भी परे है। फारवर्ड प्रेस पर की गई कार्रवाई संविधान के खिलाफ है। चूंकि हिन्दुत्ववादी शक्तियों का मूलभूत चरित्र ही संविधान और बहुजन विरोधी है, अत: उनसे और अपेक्षा भी क्या की जा सकती थी। भाजपा सरकार के बहुमत में आते ही जातिवादी, फासीवादी तत्त्व अपने-अपने खोलों से बाहर आ गए हैं। भाजपा और संघ परिवार का इतिहास अपने विचारधारात्मक विरोधियों के विरुद्ध हिंसा के ऐसे कृत्यों से भरा पड़ा है।
आम्बेडकरवादी लेखक-आलोचक प्रो. तेज सिंह ने ‘अपेक्षा के जनवरी-मार्च 2004 अंक के संपादकीय ‘हिन्दुत्व का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ में जो विचार व्यक्त किये थे, वे पुन: प्रासंगिक हो चले हैं। वे लिखते हैं, ”पहले हम गुजरात में मोदी के नेतृत्त्व में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का फासीवादी कहर देख चुके हैं। अब वह प्रक्रिया उत्तर भारत के दो राज्यों, मध्यप्रदेश और राजस्थान में दुहराई जा रही है। इन तीनों प्रदेशों में संघ परिवार की सरकारें हैं, जो सांस्कृतिक आतंकवाद के द्वारा लेखकों को डरा-धमका रही हैं। लेखकों-कलाकारों पर हुए हमलों को ठीक ही सांस्कृतिक आंतकवादी हमला बताया गया है। संस्कृति के पैरोकारों को किसी बहाने की जरुरत होती है और हमेशा की तरह, यह बहाना उन्हें सांस्कृतिक आयोजनों में मिल ही जाता है।” दस वर्ष पूर्व लिखा यह संपादकीय आज लिखा प्रतीत हो रहा है।
भविष्य में इस तरह की घटनाएँ नहीं होंगी, इसकी कोई गांरटी पुलिस-प्रशासन लेने को तैयार नहीं है। ऐसे में, जब भाजपा व संघ की विचारधारा, सरकार की विचारधारा बनती जा रही है, तब दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों तथा बुद्धिजीवी वर्ग की स्वतंत्रता पर खतरा बढ़ता जायेगा। ऐसा होना अनिवार्य भी है क्योंकि बहुजन संस्कृति पर ब्राह्मणवादी संस्कृति के हमलों का लम्बा इतिहास रहा है।
अपने उक्त संपादकीय में प्रो. तेज सिंह स्पष्ट करते हैं कि ”श्रमण-संस्कृति, भारत की मूल संस्कृति है, जो यहां के मूलनिवासी दलित-पिछड़े वर्ग की संस्कृति रही है। जबकि ब्राह्मणवादी संस्कृति विदेश से आए हमलावर आर्यों की संस्कृति है। वैसे भी, बर्बर और असभ्य लोगों की कोई संस्कृति नहीं होती। वे मूलत: हमलावर ही होते हैं, और हमलावरों की संस्कृति नहीं केवल कुछ बर्बर और असभ्य आचार-विचार होते हैं, जो दूसरी संस्कृति के सम्पर्क में आने पर कुछ-कुछ सुसंस्कृत होने लगते हैं। बर्बर, हिंसक और असभ्य आर्यनस्ल, भारत के मूल निवासियों की श्रमण संस्कृति के सम्पर्क में आने पर कुछ-कुछ सभ्य हुई थी पर वह अपनी हिंसक-प्रवृत्तियों को आज तक नहीं छोड़ पाई है।” जाहिर है कि जब उनकी हिंसक प्रवृत्तियाँ आज तक नहीं छूट पाई हैं, तो भविष्य में बहुजन समाज को प्रतिरोध के लिए तैयार रहना होगा। जैसे-जैसे भाजपा, नए-नए राज्यों में सत्ता में आती जा रही है, खतरा बढ़ता जा रहा है।
आज संस्कृति, धर्मसत्ता व राजसत्ता के बीच की विभाजक रेखाएं विलुप्त होती जा रही हैं और एक खास राजनैतिक दल की विचारधारा और सरकारी नीतियां एक हो गई हैं।
जाहिर है कि यह संकट का समय है। क्योंकि, जैसा कि तेज सिंह लिखते हैं, ”जब संस्कृति, धर्म से जुड़ जाती है तो वह धार्मिक उन्माद पैदा करके सांप्रदायिकता को जन्म देती है। आज हिन्दुत्त्व की ताकतें, संस्कृति को धर्म से जोड़कर सांप्रदायिक घृणा और विद्वेष फैला रही हैं।” इससे उनके तानाशाह मकसद पूरे होते हैं। उनकी विचारधरा एकता पर नहीं समरूपता पर जोर देती है। धार्मिक व सांस्कृतिक समरूपता, लोकतंत्र और एकता के लिये बेहद खतरनाक हैं। भले ही हिंदू महासभा अपना अस्तित्व और प्रभाव खो चुकी है, लेकिन उसका उत्तराधिकारी आरएसएस आज भी ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ को ही सींच रहा है, भले ही उसने उसका नाम ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ रख दिया हो। उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा ने अपने राजनीतिक घोषणापत्र में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को ‘एक राष्ट्र, एक जन, एक संस्कृति’ के रूप में परिभाषित किया है, जो निश्चित तौर पर हिटलर के नारे ‘आइन वोक, आइन रेच, आइन फुहेरेर’ (एक जन, एक साम्राज्य, एक नेता) से उधार लिया गया है।
आज के भारत में हालात लगभग वही हैं जो गुजरात में सन 2002 में थे। यह विश्वास करने के पर्याप्त कारण हैं कि भाजपा सरकार के दौरान हुए दंगों को प्रशासनिक सहयोग से अंजाम दिया गया। तब धर्म, संस्कृति और राष्ट्रवाद का घालमेल कर दंगे भड़काए गए थे। आज आवश्यकता है कि धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और प्रगतिशील वामपंथी ताकतें एकजुट हों। देश का संवैधानिक चरित्र बना रहे, विचारों, लोकतांत्रिक बहसों तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कायम रहे, इसके लिये लगातार प्रयास करने होंगे। अज्ञेय के शब्दों में ‘स्वाधीनता कोई स्थिर अथवा स्थावर वस्तु नहीं है, ऐसी सम्पत्ति या ऐसा रत्न नहीं है, जिसे कोई एक बार प्राप्त कर के कहीं संजो कर रख सकता है। इसके विपरीत, स्वाधीनता एक ऐसी चीज है जो निरन्तर आविष्कार, शोध और संघर्ष मांगती है, यहां तक कि उस शोध और संघर्ष को ही, स्वाधीनता की अन्तहीन ललक को ही, स्वाधीनता का सारसत्व कह सकते हैं।”
वर्तमान सरकार अन्य विचारों व प्रतीकों को ‘ब्लैकहोल’ की तरह निगल रही है। वह वैचारिक तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी ग्रस रही है। बहुजन समाज तथा समान हितों वाले साथी सचेत हो जाएं। यह साझे संघर्ष का समय है। अभी नहीं तो कभी नहीं।
कवि महमूद दरवेश की कविता की ये पंक्तियां प्रासंगिक हैं
”कसता जा रहा है पृथ्वी का घेरा हमारे चारो ओर,
ढकेला जा रहा है हमें आखिऱी दरवाज़े की ओर,
बच निकलने की कोशिश में छिल रही हैं हमारी देहें,
पृथ्वी निचोड़ रही है हमें,
काश हम होते इसमें उगे गेहूँ के दाने,
ताकि हम मरकर फिर जी उठते,
काश यह पृथ्वी होती हमारी माँ,
ताकि वह हमें प्यार कर सकती…
(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2015 अंक में प्रकाशित)
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