पिछले लोकसभा चुनावों के बाद से, राज्यों के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी लगातार बेहतरीन प्रदर्शन कर रही है. आंकड़े बताते हैं कि उसे दलित-बहुजनों – जो हाल तक उससे सुरक्षित दूरी बनाये रखते थे – के वोट भी खूब मिल रहे हैं. इस परिवर्तन को केवल मोदी करिश्मा या लहर का परिणाम मानना अतिशयोक्तिपूर्ण होगा. यह भाजपा की दलित–ओबीसी नेताओं के साथ गठजोड़ बनाने की रणनीति का परिणाम ज्यादा दिखता है.
क्या इस रणनीति का लक्ष्य केवल चुनाव जीतना है या इसका कोई दीर्घगामी एजेंडा है? क्या कारण है कि दलित नेताओं को वह हासिल होता नहीं दिख रहा है, जिसे हासिल करने को, वे भाजपा/एनडीए के साथ जुड़ने का उद्द्देश्य बता रहे थे; अर्थात सत्ता की प्राप्ति. कांशीराम कहा करते थे कि सत्ता गुरुकिल्ली होती है. यह आज भी दलित राजनीति का बहुचर्चित वाक्य है. आखिर क्यों समाजशास्त्री ‘चमचा युग’ की वापसी की बात कहने लगे हैं? क्या दलित नेताओं की राजनीति, प्रभुत्वशाली जातियों के पिछलग्गू बने रहने तक सीमित रहने के लिए अभिशप्त है? क्या यह तूफ़ान के पहले की शांति है और इधर भाजपा के चतुर सुजान अपने आविष्कृत फ़ॉर्मूले को बार-बार आजमाते जा रहे हैं?
इन सवालों का उत्तर खोजने से पहले, आइये, कुछ पुराने व कुछ आज के गल्पों, किस्सों, विश्वासों और घटनाओं पर नज़र डालें और देखें कि क्या वे हमें कुछ समझने में मदद करते हैं?
बिम्बों की राजनीति
- जब्बार पटेल की फिल्म ‘डा बाबा साहेब आम्बेडकर’ में एक दृश्य है : हिन्दू महासभा के नेता डा. मुंजे आम्बेडकर के पास उन्हें यह समझाने आते हैं कि यदि वे अपना धर्म बदलना ही चाहते हैं तो हिन्दुस्तानी मिजाज और पृष्ठभूमि के धर्म में जायें, जैसे, मुंजे के अनुसार, सिख धर्म. मुंजे आम्बेडकर से यह वायदा करते हैं कि अगर वे ऐसा करेंगें तो हिन्दू महासभा, दलितों के लिए आरक्षण की उनकी मांग का समर्थन करेगी. प्रत्युत्तर में, आम्बेडकर, व्यंग्यपूर्वक हंसते हुए कहते हैं, ‘तुम चालाक बूढ़े ब्राह्मण, घुसपैठिये!’ (नोट: यह एक सच्ची घटना का नाट्य रूपांतरण है.)
- गोलमेज सम्मलेन में महात्मा गांधी स्वयं और कांग्रेस को दलितों का सबसे बड़ा हितैषी और नेता बताते हुए कहते हैं कि वे आम्बेडकर की ‘अलग निर्वाचन क्षेत्र’ की मांग का समर्थन नहीं करते.
- बिहार में २०१४ के लोकसभा चुनावों के पूर्व, भाजपा ऐसे दलित प्रतीकों की जयंती मना रही थी, जिनसे द्विज घृणा करते हैं. इनमे शामिल थे बाबा चुहड़मल, जिन्हें दुसाध जाति (रामविलास पासवान का वोट बैंक) अपना आदर्श मानती है और भूमिहार–द्विज (भाजपा का जातीय आधार) जिनसे नफरत करते हैं.
- मायावती द्वारा भाजपा को जातिवादी कहे जाने के तुरंत बाद भाजपा ने पहली बार सावित्रीबाई फुले की जयंती मनाने की घोषणा की और बाद में मनाई भी. मायावती ने अटल बिहारी वाजपयी और मदनमोहन मालवीय को भारत रत्न देने और कांशीराम एवं महात्मा जोतिबा फुले की उपेक्षा करने के संदर्भ में भाजपा को जातिवादी कहा था.
- बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के वोट बैंक (मुसहर और भुइंयाँ जाति) पर नजर गड़ाए भाजपा, मांझी को अपने पाले में लाने की पुरजोर कोशिश कर रही है.
- भाजपा, लन्दन स्थित वह भवन खरीदने की पहल कर रही है, जहां रहकर आम्बेडकर ने लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में पढाई की थी. यद्यपि इसकी शुरुआत यूपीए सरकार के दौरान ही हो गई थी, लेकिन अंतिम फैसला लेने की तैयारी भाजपा सरकार कर रही है.
जब दलित राजनेताओं ने करवट ली
इन प्रसंगों की पृष्ठभूमि में, विभिन्न मंचों पर प्रधानमंत्री और तबके भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के साथ दलित नेताओं – रामविलास पासवान, उदित राज, रामदास अठावले की युगलवंदी की तस्वीरें अभी ताजा हैं. ये नेता अपनी घोषित–अघोषित धर्मनिरपेक्ष और हिन्दू धर्म के बरअक्स छवि के लिए जाने जाते रहे हैं.
उदित राज आक्रामक हिन्दुत्व के खिलाफ मुखर रहे हैं और उन्होंने बड़ी संख्या में दलितों को बौद्ध बनाने की घोषणा की थी.
जब वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तब रामविलास पासवान ने गुजरात दंगों में तत्कालीन मोदी राज्य सरकार की प्रशासनिक विफलता के मुद्दे पर एनडीए-एक से अलग होने की घोषणा की और धर्मनिरपेक्षता के चैम्पियन बन कर उभरे. उनकी राजनीति, दलित–मुसलमान–द्विज समीकरणों को साधती रही है. पासवान एनडीए से तब अलग हुए जब बिहार में लालू-नीतीश कुमार के नेतृत्व में पिछड़ों की सत्ता का उभार हुआ और वर्चस्व बना. उनके विरोधी कहते हैं कि उनका यह फैसला तब आया जब वाजपेयी सरकार का एक-डेढ़ साल का कार्यकाल बचा था.
रामदास अठावले, धर्मनिरपेक्ष दलित (बौद्ध) नेता माने जाते रहे हैं जो हर तरह फिरकापरस्ती के खिलाफ खड़े होते हैं. मुंबई में जब-जब अल्पसंख्यकों और प्रवासियों पर हिन्दुत्ववादियों या प्रांतवादियों का हमला हुआ, वे उनके रक्षक राजनेता के रूप में सामने आये. माना जाता रहा है कि अठावले की राजनीति, मुंबई में फिरकापरस्तों के लिए अवरोधक का काम करती रही है.
एनडीए या सीधे भारतीय जनता पार्टी में इन दलित नेताओं व उपेन्द्र कुशवाहा और अनुप्रिया पटेल जैसे समाजिक न्याय के मुद्दे पर मुखर रहे ओबीसी राजनेताओं के आने से मई में भारतीय जनता पार्टी की अभूतपूर्व जीत हुई. परन्तु इस कारक की चर्चा मोदी लहर के शोर में दब गई.
उपेन्द्र कुशवाहा को यद्यपि मानव संसाधन विकास जैसे अहम मंत्रालय मे राज्य मंत्री बनाया गया है लेकिन उनके पास करने के लिए कुछ खास नहीं है. पिछले दिनों, महकमे की काबीना मंत्री स्मृति ईरानी ने एक परिपत्र जारी किया कि लोकसभा व राज्यसभा में उनके मंत्रालय से सम्बंधित प्रश्नों के उत्तर, राज्य मंत्रियों की हस्ताक्षर से नहीं जायेंगे. अपनी विवादस्पद डिग्रियों के लिए चर्चित ईरानी के अधीन और उनके अनुग्रह पर काम करना कुशवाहा जैसे काबिल नेताओं की मजबूरी है. और इसके बदले, उन्हें इस वर्ष होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव मे अपने समर्थकों के वोट भाजपा को दिलाने होंगें.
अनुप्रिया पटेल का मामला थोडा अलग है. उनके बारे में भाजपा का तर्क हो सकता है कि वे अनुभवहीन हैं. परंतु ईरानी को मिली मह्त्वपूर्ण जिम्मेवारी के मद्देनजर यह तर्क कमजोर ठहरता है. अनुप्रिया ने अपनी नेतृत्व क्षमता निर्विवाद सिद्ध की है.
पिछले लोकसभा चुनाव में लालू यादव के विश्वस्त रामकृपाल यादव की मोदी रथ में सवारी ने काफी सुर्खियां बटोरी और भाजपा को मनोवैज्ञानिक लाभ दिया. रामकृपाल अनुभवी नेता हैं और लोकसभा व राज्यसभा के वर्षों सदस्य रहे हैं. उन्हें पेयजल व स्वच्छता राज्यमंत्री जैसी मामूली ज़िम्मेदारी दी गयी और वह भी देरी से.
दरअसल, इन नेताओं को इनकी घोषित राजनीति से समझौते की ओर अग्रसर करते हुए अपने मंच पर लाना भाजपा की रणनीति का हिस्सा है. लेकिन उसकी दीर्घकालिक राजनीति में इन नेताओं के लिए कोई स्थान नहीं है. पार्टी का लक्ष्य इन दलित-बहुजन नेताओं की मध्यस्थता के बिना, दलित-बहुजन मतदाताओं का विश्वास हासिल करना है.
नौ महीनों में हाशिये पर
भाजपा की सरकार नौ महीने भी इन नेताओं को अपने गर्भ में नहीं रख सकी और वे अपने हाल पर छोड़ दिये गये. दलित नेताओं का तनाव और टकराव
के संभावनाएं साफ दिख रहा है. पिछले 8 दिसंबर को दिल्ली में भाजपा का दलित चेहरा उदित राज के नेतृत्व में ‘आल इंडिया कन्फेडरेशन ऑफ़ एससी,एसटी ऑर्गनाइजेशन्स’ के बैनर तले रामलीला मैदान में एक सभा हुई, जिसमे भाजपा के बड़े नेता नितिन गडकरी तो आये लेकिन चर्चा बटोर ले गई पूर्व घोषणा और स्वीकृति के बावजूद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की अनुपस्थिति. इसके पहले, ३ दिसंबर को अखिल भारतीय दलित महासभा के बैनर तले दिल्ली में हुई रैली में अमित शाह सहित दिल्ली भाजपा के नेता सतीश उपाध्याय मौजूद थे लेकिन उदित राज नहीं पहुंचे. कहा जाता है कि उन्हें उस रैली में बुलाया ही नहीं गया था. उदित राज इस मसले पर भले ही सफाई दे रहे हों लेकिन मंत्री बनने की उनकी इच्छा और मांग को देखते हुए, ये परस्पर अनुपस्थितियाँ तनाव का संकेत जरूर देती हैं.
इस बीच, मोदी के जादू का मिथक कायम रखने के लिए, भाजपा किरण बेदी को अपने साथ लेकर अन्ना आन्दोलन के लाभ को आम आदमी पार्टी के साथ बांटना चाह रही है. कांग्रेस की कद्दावर दलित नेता कृष्णा तीरथ को शामिल कर पार्टी ने यह संकेत दे दिया है कि वह दलित मतों के मामले में कोई जोखिम उठाने को तैयार नहीं है. इससे उदित राज के लिए मुश्किलें पैदा हो सकती हैं क्योंकि दिल्ली की दलित राजनीति को साधने के लिए अब भाजपा की बिसात पर दो मोहरे होंगे.
आरपीआई नेता रामदास अठावले के हाल तो और बुरे हैं. दो बार उन्हें मंत्री बनाने की खबरें राजनीतिक गलियारों और मीडिया में उमड़–घुमड़ कर रह गई. अठावले सत्ता में 15 प्रतिशत हिस्सेदारी के तर्क के साथ भाजपा के साथ गये लेकिन वे न तो केंद्र में मंत्री बनाये गये और ना ही भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार में उनकी पार्टी को सत्ता में कोई हिस्सेदारी मिली. वे खुलकर नाराज़गी तो व्यक्त नहीं करते लेकिन यह बताने से भी नहीं चूकते कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान, भाजपा ने उन्हें केंद्र में काबीना मंत्री बनाने का लिखित समझौता किया था. राजनीति के पंडित आर पी आई के वोट प्रतिशत में गिरावट – २००९ में ०.८% से २०१४ में ०.२ % – को इस रूप में विश्लेषित करते हैं कि आरपीआई ने अपने मतदाताओं का समर्थन भाजपा को जरूर दिलाया लेकिन भाजपा अपने समर्थकों को आरपीआई उम्मीदवारों को मत देने के लिए राजी नहीं कर सकी. इसके प्रमाण के तौर पर आरपीआई के नेता सिद्धनाथ धेंडे बताते हैं कि पिंपरी सुरक्षित सीट से जहां पार्टी का उम्मीदवार महज ३००० मतों से पीछे रहा वहीं शिवसेना का प्रत्याशी, एनसीपी के उम्मीदवार से दो हजार मत ज्यादा पाकर विजयी रहा. इससे स्पष्ट है कि भाजपा के समर्थक आरपीआई के साथ नहीं गये. अठावले की पार्टी, विदर्भ में उसकी ताकत के बावजूद एक भी सीट पर चुनाव नहीं लड़ सकी परन्तु भाजपा की इस इलाके में निर्णायक जीत में मददगार सिद्ध हुई.
भाजपा के अनुसूचित जाति-जनजाति के राष्ट्रीय अध्यक्ष संजय पासवान की कथा भी कम निराशाजनक नहीं है. वे इन दिनों उपेक्षा का दंश झेल रहे हैं. उनका गुनाह यह था कि वे अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीट से लड़ना नहीं चाहते थे. वाजपेयी सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्रालय में राज्य मंत्री रहे पासवान अपनी नाराजगी के सवाल को सिरे से खारिज करते हुए कहते हैं कि ‘जब पार्टी के पास मेरे लड़ने लायक सामान्य सीट होगी तो जरूर लडूंगा’. पासवान यद्यपि अपनी नाराजगी जाहिर नहीं करते लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री पर लिखित एक किताब ‘बहुजन राजनीति की नई उम्मीद – जीतन राम मांझी’ के विमोचन का कार्यक्रम आयोजित कर उन्होंने अपनी नाराज़गी का संकेत तो अपनी पार्टी नेतृत्व को दे ही दिया है वे कहते हैं “मैं पार्टी में हूँ और दलित हित के मुद्दों के लिए सक्रिय हूँ. मेरी मांग है कि मेरी सरकार मनरेगा को मजबूत करे और अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए निर्धारित राशि का दुरुपयोग रोकने के लिए क़ानून लाये. मांझी पर किताब लाना मेरा पार्टी से बाहर जाने का संकेत नहीं है. आप ऐसा क्यों नहीं सोचते की अपने नेताओं से उपेक्षा का दंश झेलते मांझी जी को मैं भाजपा में लाने की चाह रखता हूँ?”
रामविलास पासवान जैसा कद्दावर और वरिष्ठ दलित नेता भी आजकल अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण मंत्रालय में रहते हुए अपना राजनीतिक तेज खोते हुए दिख रहे हैं और बहुत चाहते हुए भी अपने बेटे चिराग पासवान को वे मंत्रीपद दिलवाने में विफल रहे हैं .
भाजपा की रणनीति का दूसरा दौर
ये दलित नेता न तो कहीं जा सकते हैं और ना ही फिलहाल राजनीति के नये प्रयोग कर सकते हैं. इधर भाजपा इनके मतदाताओं में सीधे पैठ बनाने की रणनीति पर चल पडी है. आरएसएस के अलग–अलग घटक, दलित जातियों को अल्पसंख्यकों के खिलाफ खडा करके उन्हें हिन्दू भावना से भर रहे हैं ताकि, उनके अनुसार, सैकड़ों वर्ष बाद मोदी सरकार के रूप में आई हिन्दू सरकार, को स्थायित्व मिल सके. वहीं दलित –बहुजन प्रतीकों के प्रति अपनी श्रद्धा दिखाकर वह इस जमात को भावनात्मक रूप से सहलाने में भी लगी है. ऐसा भी नहीं है कि इस दूसरी रणनीति के साथ दलित नेताओं पर डोरे डालने की उसकी रणनीति शिथिल पड़ गई हो. वह लगातार बिहार में मांझी को संकेत भेज रही है.
इस रिपोर्ट के प्रारम्भ में उल्लेखित बिम्बों के जरिये समझा जा सकता है कि भाजपा, गांधी के समय की कांग्रेस की तरह अपने को दलित –पिछड़ों का असली प्रतिनिधि घोषित करने में लगी है और गांधी की तरह, मोदी पहले ही अपने को पिछड़ा और चायवाला बताते हुए दलित–पिछड़े जमात का रहनुमा घोषित कर चुके हैं. आज के दलित नेताओं में आम्बेडकर की तरह न तो साहस है और ना ही सूझबूझ. आम्बेडकर, मुंजे की चालाकी को भांपते हुए और गांधी के प्रभाव की चुनौती को स्वीकारते हुए दलितों की एकता कायम करते रहे और उन्हें भविष्य की सुरक्षा की गारंटी देते रहे, उनका नेतृत्व खडा करते रहे. आज के नेताओं में साम्प्रदायिक तनाव, जिसमे दलित समाज अनिवार्य रूप से झोंका जा रहा है, पर सार्वजनिक चिंता व्यक्त करने का साहस भी नहीं है.
दोष इन नेताओं का नहीं है
जदयू से विधान पार्षद रहे सामाजिक और राजनीतिक चिन्तक प्रेमकुमार मणि कहते हैं कि यह सच है कि दलित नेता भाजपा और एनडीए के साथ अपेक्षा के विपरीत गये लेकिन उनके समक्ष दूसरा कोई विकल्प भी नहीं था. कांग्रेस उन्हें महत्व नहीं दे रही थी, समाजवादी नेतृत्व का पिछड़ा वर्ग इन्हें फुटबाल बनाकर खेलने की मंशा रखता था तो वामपंथी नेतृत्व और बुद्धिजीवी अपने दंभ और जातीय पूर्वग्रहों से ग्रस्त थे. मणि बताते हैं कि जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिरी तब पटना के कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों ने कहा था कि धार्मिक फासीवाद आज ख़त्म हो गया है और अब चुनौती जातिवादी फासीवाद को ख़त्म करने की है. वे भूल रहे थे कि जिसे वे जातिवादी फासीवादी बतला रहे थे, उन्हीं सामाजिक न्याय की ताकतों ने साम्प्रदायिक शक्तियों को चुनौती दी थी. मणि कहते हैं, ‘दलित नेताओं के पास कोई विकल्प नहीं रह गया था लेकिन मेरी रुचि इसमें नहीं है कि उन्हें मंत्रालय मिल रहा है या नहीं. मेरी रुचि इसमें है कि वे दलित–बहुजन हित में कितना सार्थक और गोलबंद प्रभाव पैदा कर पा रहे हैं .
क्या है आगे की राह
दलित-बहुजन वोट बैंक पर कब्ज़ा करने की भाजपा की रणनीति स्पष्ट है. वह कुछ समय के लिए दलित-बहुजन नेताओं को तरजीह देते हुए दिखती है, एक हद तक अपने द्विज कार्यकर्ताओं की नाराजगी की कीमत पर भी. यही रणनीति उत्तरप्रदेश में २०१७ के चुनाव में अपनाई जाएगी. लेकिन आला द्विज नेतृत्व आश्वस्त है कि इस उपेक्षा का मतलब उसका महत्व कम होना नहीं है. केंद्र सरकार के मंत्रिमंडल और सचिवालय में द्विज वर्चस्व उसके लिए आश्वस्तकारी है. निर्णायक अवसरों पर स्वतंत्र और आम्बेडकरवादी चेतना के दलित नेताओं की उपेक्षा से भी पार्टी संकेत दे रही है कि वह एक साथ मुंजे और गांधी, दोनो को आत्मसात कर चल रहा है, जिससे दलित राजनीति का संघ / भाजपा मॉडल खडा होता है . देखना यह है कि दलिबहुजन नेताओं की उपेक्षा से बन रहा आक्रोश कब आकार लेता है और उसकी गति क्या होती है ? अभी से चमचा युग की वापसी का विश्लेषण भी जल्दवाजी होगी. हालांकि इस कयास या विश्लेषण को गलत सिद्ध करना दलित –बहुजन नेताओं के लिए आसान नहीं है. उन्हें अपनी राजनीति का ककहरा बदलना होगा. सांस्कृतिक अस्मिता की उनकी पुरानी राजनीति की राह पर भाजपा चल पडी है. इन्हें अब ठोस आर्थिक और शैक्षणिक मुद्दों के साथ आगे आना होगा.
फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2015 अंक में प्रकाशित