सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में जाति-आधारित आरक्षण का मुद्दा विगत एक सौ तेरह सालों से विमर्श और बहस का विषय रहा है. दरअसल, आरक्षण की उत्पत्ति, उसका क्रमिक विकास, अब तक का इतिहास, संसद और विधानसभाओं में जाति-आधारित आरक्षण पर हुई बहसों आदि ने हमारे समाज और राजनीति को गहरे और व्यापक रूप से प्रभावित किया है।
1902 से शुरूआत
एक प्रकार से 1902, जब देश में पहली बार कोल्हापुर रियासत के राजा साहूजी महाराज ने अपने प्रशासन में आरक्षण लागू किया था, से लेकर आज तक का भारत का इतिहास मुख्य रूप से आरक्षण के पक्ष और विरोध में संघर्षों का इतिहास रहा है। अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन, किसान आन्दोलन, मजदूर आन्दोलन, वाम राजनीति, जेपी आन्दोलन, हिन्दू-मुस्लिम विवाद व संघर्ष आदि सब एक तरफ और आरक्षण के लिए संघर्ष एक तरफ। राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के बाद, कांग्रेस की देश की समस्याओं को हल कर पाने में विफलता से देश के कई हिस्सों में अलगाववादी आंदोलनों ने जडें ज़माना शुरू कर दीं। विविधताओं से भरे इस देश में एक ऐसे आन्दोलन की जरूरत थी, जो पूरे देश को जोडऩे की क्षमता रखता हो। आजादी के बाद कोई आन्दोलन – चाहे वह किसान आन्दोलन, मजदूर आन्दोलन व जेपी की संपूर्ण क्रांति जैसा राजनीतिक आन्दोलन हो या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ का हिन्दुत्ववादी आन्दोलन – पूरे देश में नहीं फ़ैल सका। डॉ राम मनोहर लोहिया का गैर-कांग्रेसवाद जरूर कुछ हद तक राष्ट्रीय आकार ले पाया, जब 1967 में देश के कई हिस्सों में (दक्षिण भारत समेत) गैर-कांग्रेस पार्टियों की गठबंधन सरकारें बनीं। डॉ लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद का आधार एक नारा था – मूलत: आरक्षण की मांग का नारा – ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’। सन 1968 में डॉ लोहिया की असमय मौत ने राष्ट्रीय स्तर की विपक्षी राजनीति की संभावनाओं को खत्म कर दिया। इस बीच, देश के कई राज्यों ने पिछड़ों को आरक्षण दिया।
मंडल का सूत्र
आजादी के बाद से इस महान देश को जोड़े रखने के लिए एक राष्ट्रीय धागे की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। 1990 में वह समय आया जब मंडल ने पूरे देश की लगभग साठ प्रतिशत आबादी को एक नाम, एक पहचान और एक भावना – ओबीसी – देकर आपस में जोड़ दिया। इसके बगैर हम इस महान देश की राष्ट्रीय एकता और अखंडता की रक्षा नहीं कर सकते थे। सामाजिक न्याय में किसी भी देश को जोड़े रखने की महान क्षमता है। उदहारण के लिए, संयुक्त राज्य अमरीका के इतिहास को लें, जहाँ गुलामी प्रथा के खिलाफ सामाजिक न्याय के पक्ष में खड़े होकर अब्राहम लिंकन ने अपने देश को टूटने से बचा लिया। आज अमरीका विश्व की सबसे बड़ी ताकत इसलिए है, क्योंकि इतिहास के एक नाजुक और निर्णायक मोड़ पर उस देश में एक ऐसे नेता का शासन था, जिसने सामाजिक न्याय का पक्ष लिया। लेनिन ने सामाजिक न्याय (हम समाजवाद को भी सामाजिक न्याय की संज्ञा दे सकते हैं) का पक्ष लेकर अनेकानेक राष्ट्रीयताओं को सोवियत यूनियन के झंडे तले एकत्रित कर लिया। कालांतर में, रूसियों के वर्चस्ववाद से समाजवाद कमजोर होने लगा व विभिन्न राष्ट्रीयताओं में अलगाववाद पनपा, जो अंतत: सोवियत संघ के अंत का कारण बना। 21वीं सदी में समाजवाद और साम्यवाद जैसे शब्द पुराने हो चुके हैं और उनका स्थान सामाजिक न्याय, लोकतंत्र, सस्टेनेबल विकास और ग्रीन पॉलिटिक्स ने ले लिया है।
आरक्षण की आवश्यकता
आरक्षण की राजनीति को समझने के लिए आवश्यक है कि हम यह जानें कि साहूजी महाराज ने आरक्षण आखिर लागू किया ही क्यों था? साहूजी महाराज ने 19 फरवरी, 1919 को अपने अँगरेज़ मित्र कर्नल वुडहाउस को एक पत्र में लिखा, ‘आप जानते ही हैं कि किशोरावस्था से ही ब्राह्मण अफसरशाही का अंत मेरा सपना रहा है’। एक अन्य अँगरेज़ मित्र लार्ड सिडनहम को सितम्बर, 1918 में साहूजी महाराज ने लिखा कि ‘यद्यपि देश का शासन अंग्रेजों के हाथों में है तथापि असली शासक ब्राह्मण हैं, जिनका सरकारी तंत्र के हर स्तर पर बोलबाला है – वे क्लर्क व ग्राम-स्तर पर हिसाब-किताब रखने वाले कुलकर्णी से लेकर सर्वोच्च पदों तक पर काबिज हैं; यहाँ तक कि काउंसिलों में भी। बहुत कम लोग ब्राह्मण अफसरशाही के प्रभाव को उतनी अच्छी तरह से समझ सकते हैं, जितना कि श्रीमान। सरकारी तंत्र की हर शाखा में, ऊंचे से लेकर नीचे पदों पर उनका राज है और उन्हें दूसरे समुदायों को दबाने के तरीके बहुत अच्छे से आते है। सभी को उनकी गलत-सही मांगें पूरी करने पड़ती हैं और चाहे उनके साथ कितना ही घोर अन्याय क्यों न हो रहा हो, वे इन ब्राह्मण अफसरों पर अंगुली उठाने का साहस नहीं कर पाते। कोल्हापुर के एक व्यापारी को एक ब्राह्मण वकील ने ठग लिया। जब उससे कहा गया कि वह उस वकील पर मुकदमा चलाये तो उसका जवाब था कि इससे उसे कुछ हासिल नहीं होगा। कारण यह कि पुलिसवाले ब्राह्मण हैं, जज ब्राह्मण हैं और अदालत के क्लर्क भी ब्राह्मण हैं। इसलिए उसे न्याय तो मिलेगा ही नहीं बल्कि वो ब्राह्मणों की नजऱ में आ जायेगा और वे उससे बदला लेंगे। यहाँ तक कि जब स्वयं मैंने उससे मुकदमा चलाने को कहा तो उसने क्षमायाचना करते हुए ऐसा करने से इनकार कर दिया। ब्राह्मणों की सत्ता के इस किले को धराशायी करने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि सभी समुदायों को न केवल काउंसिलों में बल्कि शासन व्यवस्था की हर शाखा में बड़े से लेकर छोटे पदों पर नियुक्त किया जाये। केवल कुछ महत्वपूर्ण पदों पर गैर-ब्राह्मणों को नियुक्त करने से काम नहीं चलने वाला। यह तो रोग को बढाने वाला इलाज होगा। सही इलाज है अधीनस्थ व लिपिकीय पदों पर भी सभी समुदायों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व देना। सबसे निचले स्तर के क्लर्कों की भरती गैर-ब्राह्मणों में से होनी चाहिए और इसके लिए इन समुदायों के योग्य उम्मीदवारों की सूची तैयार की जानी चाहिए। इस सूची के आधार पर तब तक नियुक्तियां की जानी चाहिए, जब तक कि गैर-ब्राह्मणों को उनके संख्या बल के अनुपात में प्रतिनिधित्व न मिल जाये। समुदाय के आधार पर प्रतिनिधित्व ही एकमात्र इलाज है’। साहूजी महाराज के इन दो पत्रों को पढऩे से पता चलता है कि आरक्षण की शुरुआत सामाजिक वर्चस्ववाद को तोडऩे के लिए की गयी थी। यही कारण है कि देश के जिस भी हिस्से में आरक्षण लागू किया गया, वहां सामाजिक वर्चस्ववादियों ने आरक्षण को जबर्दस्त चुनौती दी। किन्तु माननीय न्यायालयों के विचारवान न्यायधीशों और उच्च जातियों के उदार राजनीतिज्ञों ने राष्ट्रीय एकता, अखंडता और लोकतंत्र की रक्षा के लिए आरक्षण की आवश्यकता को समझते हुए आरक्षण का पक्ष लिया।
विभाजन से सशक्तिकरण
जननायक कर्पूरी ठाकुर ने 1978 में बिहार में जब पिछड़ी और अति-पिछड़ी जातियों की दो अलग-अलग सूचियाँ बनाई और उनके लिए अलग-अलग आरक्षण का प्रतिशत तय किया तो उनकी भी वही सोच थी, जो साहूजी महाराज की थी। साहूजी महाराज ने ब्राह्मणों के एकाधिकार को तोडऩे के लिए आरक्षण लागू किया था तो कर्पूरी ठाकुर ने सामाजिक न्याय के नाम पर कुछ ख़ास जातियों के वर्चस्व को कालांतर में स्थापित होने से रोकने के लिए यह व्यवस्था की थी। हालांकि पिछड़ों और अति पिछड़ों के विभाजन की जो व्यवस्था कर्पूरी ठाकुर ने लागू की थी, वह पहले से ही कई राज्यों में प्रभावशील थी। उससे सीख लेकर कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में भी यह व्यवस्था लागू की। खुद एक अति पिछड़ी जाति से आने वाले कर्पूरी ठाकुर, जाति व्यवस्था के इस चरित्र से परिचित थे कि हर जाति, मौका मिलते ही, अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश करती है। कर्पूरी ठाकुर द्वारा किये गए प्रावधान का ही यह नतीजा था कि जब सामाजिक न्याय के नाम पर लालू यादव के शासनकाल में यादवों ने अपना वर्चस्व स्थापित करना शुरू किया तो अति पिछड़ों, जिनमें आरक्षण का लाभ उठाकर सामाजिक-राजनीतिक चेतना से लैस एक मध्यम वर्ग तैयार हो चुका था, ने उनकी सरकार को उखाड़ फैंका। भले ही अति पिछड़ों का बिहार में एक सशक्त नेतृत्व तैयार नहीं हो सका है किन्तु आरक्षण के चलते उनके भीतर तैयार हुआ मध्यम वर्ग अपनी सशक्त सामाजिक-राजनीतिक भूमिका निभाने से नहीं चूक रहा है।
राष्ट्रीय आयोग की सलाह
अभी कुछ दिनों पहले, समाचारपत्रों में इस आशय की खबर छपी कि ‘राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग’ की सलाह पर केंद्र की मोदी सरकार, केंद्रीय सरकार की नौकरियों और केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में ओबीसी के 27 प्रतिशत आरक्षण को दो या तीन खण्डों में विभाजित करने पर विचार कर रही है। इसके पीछे कारण यह बताया गया कि आरक्षण का ज्यादातर लाभ यादव, कोयरी, कुर्मी जैसी दो-तीन अग्रणी पिछड़ी जातियां ही उठा रहीं हैं और बाकी जातियां उपेक्षित हैं। सवाल यह है कि ‘राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग’ ने क्या इस सम्बन्ध में आंकड़े जुटाए हैं कि किन ओबीसी जातियों ने केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण से सबसे ज्यादा फायदा उठाया है? क्या इतना जानना ही पर्याप्त होगा कि वे कौन सी जातियां हैं या यह भी जानना आवश्यक होगा कि वे किन राज्यों से हैं?
राज्य स्तर पर हो विभाजन
इन पंक्तियों के लेखक का अपने अनुभवों पर यह मानना है कि उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में, जहाँ पिछड़ा और अति पिछड़ा की अलग अलग सूचियाँ नहीं बनाई गयीं हैं, वहीं ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है कि अग्रणी ओबीसी जातियां, केंद्र सरकार की नौकरियों में जगह पाने में अपने राज्य की अति पिछड़ी जातियों से आगे हैं। लेकिन बिहार जैसे राज्यों में, जहाँ पिछड़ों और अति पिछड़ों की अलग श्रेणियां बनी हुई हैं, वहां ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं हुई है। इन राज्यों के अति-पिछड़े, पिछड़ों से केंद्रीय नौकरियां पाने में पीछे नहीं हैं। राजनीति में संख्या बल का महत्व है इसलिए बिहार में यादव जाति के विधायक-सांसदों की संख्या अन्य पिछड़ी जातियों से ज्यादा है, किन्तु जहाँ तक नौकरियों का सवाल है, अति पिछड़ों के लिए अलग आरक्षण से, उनका नया उभरा मध्यम वर्ग, यादव और कुर्मियों जैसी जातियों को न केवल राज्य सरकार बल्कि केंद्र सरकार की भर्तियों में भी कड़ी टक्कर दे रहा है। बिहार और तमिलनाडु में अति-पिछड़े क्लास वन अफसरों की संख्या, उत्तरप्रदेश की अति पिछड़ी जातियों से ज्यादा है क्योंकि बिहार और तमिलनाडु में अति पिछड़ों की अलग श्रेणियां बनायी गयीं हैं। जिस समस्या के समाधान के लिए केंद्र की ओबीसी लिस्ट में विभाजन की सलाह दी जा रही है, उसका असली समाधान राज्यों की ओबीसी लिस्ट के विभाजन में छुपा हुआ है। यदि केंद्र की सूची में विभाजन किया जाता है किन्तु राज्यों में नहीं किया जाता तो हालात जस की तस बने रहेंगे। आज महादलित की बात भी खुलकर कही जा रही है। कल राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जाति की सूची में विभाजन की मांग भी उठेगी। और इसका समाधान भी राज्यों से करना होगा।
राज्य नदियाँ हैं और केंद्र सागर। राज्यों की अलग-अलग सूचियाँ यदि केंद्र में एक हो जाती हैं तो यह सागर के चरित्र के अनुरूप है। सागर में विभाजन करना एक दुस्साहस का काम होगा। जाति आधारित आरक्षण का एक छोर सामाजिक न्याय से तो दूसरा छोर राष्ट्रीय एकता से जुड़ा हुआ है। ऐसे अति-संवेदनशील मुद्दे पर कोई भी निर्णय लेने से पहले सभी कोणों से जांच पड़ताल और इसके उपरान्त सारी सूचनाओं को जनता के समक्ष रखने की आवश्यकता है, जिससे पारदर्शिता सुनिश्चित हो सके।
अभी आरक्षण से संबंधित एक और महत्वपूर्ण घटना घटी। गुज्जरों के आन्दोलन के बाद, गुज्जरों समेत कुछ जातियों को पांच प्रतिशत और आर्थिक आधार पर चौदह प्रतिशत आरक्षण देने की राजस्थान सरकार ने घोषणा की है। भारत में आरक्षण का केवल एक ही आधार हो सकता है और वह है जाति। जाति के अलावा अन्य किसी भी आधार पर आरक्षण, सामाजिक न्याय के मूलभूत सिद्धांतो के खिलाफ होगा और इसके दूरगामी सामाजिक-राजनीतिक दुष्परिणाम हो सकते हैं। मुस्लिम आरक्षण की बात यदा-कदा उठती रहती है। यूपीए सरकार ने 2004 में धार्मिक एवं भाषाई अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने पर विचार करने के लिए रंगनाथ मिश्र की अध्यक्षता में कमेटी बनाई थी। नरसिम्हा राव सरकार ने आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण देने की अधिसूचना निकाली थी, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था।
गुज्जर अपने लिए अलग से आरक्षण की मांग करते रहे हैं। उन्हें लगता है कि आरक्षण मिलने मात्र से उनकी गरीबी दूर हो जायेगी। उच्च जातियों के गरीबों को भी आर्थिक आधार पर आरक्षण का झुनझुना बजा कर अक्सर बहलाया जाता है, जैसा कि अभी राजस्थान की वसुंधराराजे सिंधिया की सरकार ने किया। यह गलत धारणा है कि आरक्षण गरीबी दूर करने का उपाय है। आरक्षण की इस गलत समझ का प्रचार कर राजनीतिक दल कुछ वोटों का प्रबंध तो कर सकते हैं किन्तु इतिहास उन्हें समाज और राजनीति को पीछे ले जाने का दोषी ठहराएगा। आरक्षण यदि गरीबी दूर करने का साधन होता तो ब्रिटिश काल से दलितों को मिल रहे आरक्षण से उनकी गरीबी कब की दूर हो गयी होती। आरक्षण ने दलितों में एक पढ़ा-लिखा मध्यम वर्ग तैयार किया, जो आज उनकी आवाज बन रहा है। कांशीराम की राजनीति इसी आरक्षण नीति की देन थी। आरक्षण, गरीबी उन्मुलन कार्यकम नहीं है। गरीबी की समस्या के निदान अलग हैं। उन्हें आरक्षण से नहीं जोडा जा सकता। आरक्षण, सत्ताह में सामाजिक प्रतिनिधित्वी का सिद्धांत है। यह शासन, प्रशासन और लोकतंत्र की संस्थाओं में उपेक्षित जातियों की भागीदारी को सुनिश्चित करके भारतीय राष्ट्र-राज्य की जड़ों को मजबूत बनाने का काम करता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत अभी भी एक उभरता हुआ देश है। सामाजिक न्याय की कल्पना और उसका मूर्तरूपीकरण इस उभरते हुए देश की ढांचागत संरचना को भूकम्परोधी बनाता है।
बॉक्स-1
2011 में केन्द्रीय नौकरियों में ओबीसी के प्रतिनिधित्व
(भारत सरकार द्वारा राज्यसभा में पेश किया गया आंकड़ा) ।
श्रेणी संख्या प्रतिशत
समूह अ 5,357 6.9
समूह ब 13, 897 7.3
समूह स 3,46, 433 15.3
समूह द 81, 468 17
बॉक्स-2
2011 में केन्द्रीय नौकरियों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति
और ओबीसी का प्रतिनिधित्व
(भारत सरकार द्वारा राज्यसभा में पेश किया गया आंकड़ा) .
श्रेणी अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति ओ बी सी
अ 8,922 (11.5%) 3,732 (4.8%) 5,357 ( 6.9%)
ब 28,403 (14.9%) 11,357 (6%) 13,897 (7.3%)
स 3,70,557 (16.4%) 1,74,562 ( 7.7%) 3,46,433 (15.3%)
द 1,105,15 (23.0%) 32,791 (6.8%) 81,468 (17 %)
फारवर्ड प्रेस के जुलाई, 2015 अंक में प्रकाशित