‘जोहार साहेब’ मई महीने की तपती गर्मी में झारखण्ड के सारंडा जंगल में विचरण करते समय अचानक ही कुछ लोगों की आवाजें सुनाईं पडीं। जंगल के बीचों-बीच तीर-कमान, बरछा, कुल्हाड़ी और गुलेल से लैस कुछ आदिवासी दिखाई पड़े। ये लोग शिकार पर निकले थे। इसमें कुछ भी असामान्य नहीं था- असामान्य तो यह था कि वे भारतीय नागरिक नहीं थे। हमें देखते ही अपना ‘मिशन शिकार’ भूलकर इस उम्मीद से हमें अपनी समस्या सुनाने लगे कि शायद उन्हें भी देश की नागरिकता और नागरिक अधिकार मिल जाये। उन्होंने बताया कि उनके पास ऐसा एक भी सरकारी दस्तावेज नहीं है, जिससे वे यह साबित कर सकें कि वे भारत के नागरिक हैं।
हम सभी के लिए नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार अति आवश्यक व महत्वपूर्ण हैं लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस महान लोकतंत्र में इन आदिवासियों को आज भी नागरिकता एवं वोट देने का अधिकार हासिल नहीं है। ये लोग आशंकित हैं कि अगर उन्हें वन अधिकार कानून के तहत पट्टा नहीं मिला तो उन्हें कभी भी अतिक्रमणकारी बताकर जंगल से खदेड़ दिया जायेगा और प्रतिकार करने पर घुसपैठिया या नक्सली बताकर सलाखों के पीछे डाल दिया जायेगा। सन 1960 के दशक में, महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन से प्रेरित होकर मार्टिन लूथर किंग ‘जूनियर’ के नेतृत्व में अमेरिका के अफ्रीकी-अमरीकियों ने नागरिक आंदोलन से मताधिकार हासिल किया था। क्या इन आदिवासियों को भी नागरिक अधिकार हासिल करने के लिए ऐसा ही आंदोलन छेडऩा होगा?
बेदखली का खेल
हाथों में तीर-कमान लिये, पसीने से लथपथ, विजय केराई बताते हैं कि 1980 के दशक में जंगल आंदोलन के समय उन्होंने जोजोडेरा गांव बसाया था, जिसमें 20 आदिवासी परिवारों के 105 लोग रहते हैं। जनवरी, 2008 में वन अधिकार कानून लागू होने के बाद गांव के लोगों ने मनोहरपुर अंचल कार्यालय में ज़मीन पर मालिकाना हक़ पाने के लिए आवेदन दिया लेकिन उनका आवेदन खारिज कर दिया गया। वे यह भी बताते हैं कि गांव के पास ही करमपदा में मित्तल कंपनी को लौह अयस्क का खनन करने के लिए ज़मीन लीज पर दी गयी है और सरकार उन्हें वनभूमि का पट्टा इसलिए नहीं दे रही है ताकि कंपनी को वन व पर्यावरणीय अनुमतियां लेने में परेशानी न हो।
सारंडा में वन विभाग, जंगल की रखवाली का अपना काम छोड़कर, ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपना रहा है। कुछ बाहरी लोगों को इस क्षेत्र में भेजा जा रहा है, जिसका स्थानीय निवासी विरोध कर रहे हैं। दोनों के बीच झगड़ा कराकर उन्हें जंगल से बेदखल करने की कोशिश चल रही है। वहीं, वन माफिया और वन विभाग की मिलीभगत से सारंडा जंगल से प्रतिदिन हजारों की संख्या में लोग सखुआ के पेड़ की बोटी साईकिल पर लादकर ठेकेदारों को पहुंचा रहे हैं। इतना ही नहीं नक्सल-विरोधी अभियान के नाम पर सीआरपीएफ ने सड़कों के दोनों ओर हजारो एकड़ जंगल को जलाकर राख कर दिया है।
मनोहरपुर के आंदोलनकारी सुशील बारला ने जमीनी हकीकत का पता लगाने के लिए सारंडा जंगल के बिहांड़ में स्थित 17 वनग्रामों का नमूना सर्वेक्षण किया। इन गांवों में 431 आदिवासी परिवारों के 1,918 लोगों निवास करते है, जिनके पास अपनी नागरिकता साबित करने के लिए मतदाता पहचानपत्र, राशन कार्ड या आधार कार्ड जैसा कोई दस्तावेज़ नहीं है। स्पष्ट है कि कानूनी तौर पर वे इस देश के नागरिक नहीं हैं और उन्हें किसी भी समय सारंडा जंगल से बेदखल किया जा सकता है। जोजोडेरा के सलुका जोजो सवाल पूछते है, ”क्या हम भारतीय हैं? हमें अब तक नागरिकता का कोई प्रमाण क्यों नहीं दिया जा गया है? हमने झारखंड आंदोलन में भाग लियाए बावजूद इसके हमें न्याय क्यों नहीं मिला? क्या हमने जंगल में रहकर कोई अपराध किया है? सरकार हमारे साथ ऐसा भेदभाव क्यों कर रही है? क्या यह इसलिए क्योंकि हम आदिवासी हैं?
गांवों का विवरण, जहां जनगणना नहीं हुई :
क्र.सं. गांव का नाम परिवारों की संख्या जनसंख्या
1 कुलाटुपा 47 213
2 बड़ीकुदार 21 109
3 जोजोडेरा 20 105
4 गतिगाड़ा 12 55
5 मारीडा 23 93
6 टोपकोय 19 96
7 कोयनारबेड़ा 31 108
8 जमारडीह 33 113
9 टोयबो 15 76
10 कासीगाडा 24 93
11 राटामाटी 10 57
12 नूईयागाडा 47 226
13 रोगाडा 24 109
14 गुंडीजोरा 23 118
15 छुमगदिरी 20 105
16 लैलोर 42 171
17 नुरदा 20 71
कुल 431 1918
गूंगी-बहरी सरकार
सुशील बरला की शिकायत पर कार्रवाई करते हुए राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने झारखंड सरकार के जनजाति कल्याण सचिव एवं पश्चिम सिंहभूम जिले के उपायुक्त को 17 अक्टूबर, 2014 को पत्र लिखकर कहा था कि सारंडा जंगल में 35 वनग्राम हैं, जिनमें लगभग 3,000 आदिवासी निवास करते हैं, जिन्हें अभी तक वन अधिकार कानून 2006 के तहत वनभूमि पर अधिकार नहीं दिया गया है। वे अपनी आजीविका के लिए कृषि एवं वन पर निर्भर हैं बावजूद इसके उनके पास अब भी मतदाता पहचानपत्र, राशन कार्ड एवं आधार कार्ड नहीं हैं। उन्हें शिक्षा व स्वाथ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित रखा जा रहा है।
आयोग ने संविधान की धारा 338 (क) के अधीन अपने अधिकार का उपयोग करते हुए झारखंड सरकार को आदेश दिया कि इन्हें जल्द से जल्द मतदाता पहचानपत्र, राशन कार्ड एवं आधार कार्ड जारी किये जायें। साथ ही सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा एवं स्वाथ्य जैसे बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करवाईं जायें। आयोग ने सरकार को 15 दिनों के अन्दर जवाब देने को कहा था। परन्तु सरकार ने अब तक कोई कार्रवाई नहीं की है। यहां यह भी बताना दिलचस्प होगा कि वर्ष 2011 में पश्चिम छोटानागपुर के पुलिस महानिरीक्षक ने गृह सचिव एवं पुलिस महानिदेशक को पत्र द्वारा सूचित किया था कि सारंडा जंगल में लगभग 200 वनग्राम हैं, जिनका किसी भी सरकारी दस्तावेज में जिक्र नहीं है लेकिन राज्य सरकार ने इस पर कोई ध्यान ही नहीं दिया।
विगत दिनों केन्द्र सरकार ने यह घोषणा की कि बांग्लादेश से भारत आये शरणार्थियों को देश की नागरिकता दी जायेगी। ऐसे में सारंडा जंगल के आदिवासियों को, जो सिंहभूम के मूल निवासी हैं, देश की नागरिकता से वंचित रखनाए उनके साथ अन्याय तो है ही, देश के लिए शर्मनाक भी है।
फारवर्ड प्रेस के अगस्त, 2015 अंक में प्रकाशित