”महात्मा फुले, जिन्होंने आधुनिक भारत में पहली बार ब्राह्मणवादी मिथकों का विखंडन किया, के पदचिह्नों पर चलते हुए…’’-यह मेरे पिछले संपादकीय की अंतिम पंक्ति थी। तब मुझे यह अंदाजा नहीं था कि हमारे अगले ही अंक की आवरणकथा, फुले पर होगी। यद्यपि अपने साढ़े छह वर्ष के प्रकाशनकाल में, फारवर्ड प्रेस ने फुले दंपत्ति पर किसी भी अन्य पत्रिका से कहीं अधिक सामग्री प्रकाशित की है, परंतु भारत में स्त्रीवाद के जनक बतौर उनकी भूमिका को रेखांकित करने में हम भी असफल थे।
ऐसा नहीं था कि हम जोतिबा के विचारों और आंदोलनों के इस पक्ष से अनभिज्ञ थे। परंतु अधिकांश दलितबहुजन लेखक, फुले दंपत्ति के स्त्रीवादी सुधारों का संपूर्ण या कम से कम अधिकांश श्रेय सावित्रीबाई को देते आ रहे थे। इसलिए ललिता धारा की इस अंक की आवरणकथा, हवा के एक ताजा झोंके की तरह है। महाराष्ट्र की स्त्रीवादी महिला अध्येता ललिता ने फुले दंपत्ति के और उन पर केन्द्रित लेखन का गहन अध्ययन कर, जोतिबा को वह श्रेय दिया है, जिसके वे अधिकारी हैं। और वह भी सावित्रीबाई के योगदान को किसी प्रकार से कम करके प्रस्तुत किए बगैर।
यह लेख, उनके इस निष्कर्ष को पूरी तरह औचित्यपूर्ण सिद्ध करता है कि ”फुले दंपत्ति की कथनी और करनी, सिद्धांत और व्यवहार में कोई फर्क नहीं था। उनके मन में एक-दूसरे के प्रति बहुत प्रेम और सम्मान था। फुले के स्त्रीवादी विचार, उनके समय से बहुत आगे थे। उन्होंने समालोचना भी की और रचनात्मक कार्य भी। उन्होंने केवल कहा नहीं, किया भी। इसलिए यह न्यायोचित होगा कि हम उन्हें भारत की लैंगिक क्रांति के पितामह के रूप में स्वीकार करें।’’
मेरी बात कुछ दलितबहुजनों को बुरी लग सकती है परंतु मैं फिर भी यह कहना चाहूंगा कि जहां तक अपने स्त्रीवादी विचारों को जीवन में उतारने का प्रश्न है, जोतिबा फुले गांधी और आम्बेडकर सहित सभी भारतीय सुधारकों से कहीं आगे थे। मुझे एक भी ऐसे नेता का नाम बताईए जिसने अपनी अशिक्षित पत्नी को शिक्षित कर समाजसुधार के कार्य में अपना जोड़ीदार बनाया हो। जोतिबा का क्रांतिकारी स्त्रीवाद, उनके घर से शुरू होता था।
आपकी यह अपेक्षा रही होगी कि इस बार एफपी, बिहार चुनाव पर अवश्य नजर डालेगी। बिहार में इन दिनों मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए और नीतीश-लालू महागठबंधन के बीच महाभारत चल रहा है। भाजपा चाहे विकास की कितनी ही बातें क्यों न कर ले, बिहार में जाति का गणित ही चलता है। हमारी पत्रिका के नियमित लेखक अभय कुमार ने चुनाव के दौरान बिहार का दौरा किया। लक्ष्मणपुर बाथे के जातिगत समीकरणों पर उनकी चश्मदीद रपट, बिहार में जाति की केन्द्रीयता को रेखांकित करती है।
चुनाव केमध्य तक आते-आते दोनों गठबंधनों के बीच का मुकाबला और कड़ा होता गया। यहां तक कि मतदान के एक दौर से दूसरे दौर के बीच भी स्थितियों में बदलाव आया। इस बार बिहार में महिलाओं ने पुरूषों से भी ज्यादा मतदान किया है। ऐसी संभावना है कि महिलाएं ही यह तय करेंगी कि बिहार में अगले पांच सालों तक किसका शासन होगा। ”पहले मतदान फिर जलपान’’ के नारे के साथ महिलाओं ने मतदान को अपनी पहली प्राथमिकता घोषित की। उन्हें मालूम है कि नीतीश कुमार ने महिलाओं को पंचायतों में 50 प्रतिशत आरक्षण दिया और स्कूली छात्राओं को नि:शुल्क साईकिलें उपलब्ध करवाई। परंतु शायद उन्हें यह नहीं मालूम कि महिलाओं-विशेषकर पिछड़ी जाति की महिलाओं-के सशक्तिकरण की जड़ें, फुले दंपत्ति की लैंगिक क्रांति में हैं।
आम्बेडकर और अन्यों ने तो केवल फुले के कार्य को आगे बढ़ाया और विस्तार दिया। याद रहे कि आम्बेडकर ने भारत के प्रथम विधिमंत्री के पद से इस्तीफा इसलिए दिया था क्योंकि उनके हिन्दू कोड बिल – जिसके जरिए वे बहुसंख्यक भारतीय महिलाओं को मुक्ति दिलवाना चाहते थे – को आवश्यक समर्थन नहीं मिला।
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी एफपी का दिसंबर अंक, आम्बेडकर पर केन्द्रित होगा। अगर आप हमारे ग्राहक नहीं हैं तो अपने नजदीकी बुकस्टाल से अपनी प्रति अभी से आरक्षित करवा लें। अगले अंक में हम सेन्टर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज के निदेशक और बिहार के धरतीपुत्र संजय कुमार की कलम से चुनाव नतीजों का विश्लेषण प्रकाशित करेंगे।
फारवर्ड प्रेस के नवंबर 2015 अंक में प्रकाशित