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दलितों को भूमिहीन बनाते समाजवादी

कहाँ मांग हो रही थी कि सभी भूमिहीनों को जमीन दी जाय और कहाँ भूमि कानून में फेरबदल कर उत्तरप्रदेश सरकार हाशिये पर पड़े करोड़ो दलितों को और पीछे धकेल रही है

पिछले 4 अगस्त को उत्तरप्रदेश विधानसभा ने एक संशोधन विधेयक पारित किया, जिसके लागू हो जाने के बाद अनुसूचित जाति के किसी व्यक्ति की जमीन गैर-अनुसूचित जाति का सदस्य भी खरीद सकेगा। अभी उत्तरप्रदेश जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950 की धारा 157-क के अंतर्गत अनुसूचित जाति के जमीन मालिकों को कलेक्टर की पूर्व स्वीकृति के बिना अनुसूचित जाति के सदस्य के अलावा अन्य किसी व्यक्ति को विक्रय, दान, बंधक अथवा पट्टा द्वारा अंतरित करने का अधिकार नही है। अधिनियम में प्रावधान है कि ऐसी स्वीकृति कलेक्टर द्वारा उस दशा में नहीं दी जाएगी, जब प्रार्थनापत्र देने की तारीख पर उत्तरप्रदेश में जमीन मालिक दलित व्यक्ति की धारित भूमि 1.26 हेक्टेयर से कम हो अथवा उक्त तारीख पर ऐसा अन्तरण करने के पश्चात् 1.26 हेक्टेयर से कम हो जाने की संभावना हो।

UP_Dalit_landविधानसभा ने इस प्रावधान को समाप्त कर दिया है। सरकार के इस निर्णय का दलित समुदाय पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसे समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950’ में दलितों की सुरक्षा के लिए कई महत्वपूर्ण प्रावधान होने के बावजूद भी आज तक आधे से अधिक दलित आबादी अपनी जमीनों पर काबिज/दाखिल होने के लिए जद्दोजहद कर रही है और दबंगों के हाथों हिंसा का शिकार हो रही है। उनकी जमीनों पर उन्हें कब्जा दिलाने में सरकारें असफल रही हैं।

प्रस्तावित संशोधन 66 उपजातियों में बंटीं प्रदेश की अनुसूचित जातियों को वापस उन्हीं हालातों में ढकेल देगा, जिनसे निकलने में उन्हें सदियाँ लग गईं। दलित प्रदेश की कुल आबादी का एक चैथाई हैं। अधिकांश दलित ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों की अपनी अलग सत्ता संरचना है, जहाँ आज भी ऊँचनीच, भेदभाव, शोषण, अत्याचार, उत्पीडऩ, जोर-जबरदस्ती और दबंगई का बोलबाला है। यह संशोधन विधेयक ऐसी खतरनाक स्थितियों को जन्म देगा, जिनसे दलितों का उबर पाना संभव नहीं होगा। भूमिहीनता की स्थिति, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रा में कितनी तरह से पीड़ा पहुंचाती है, इसे दलित समुदाय के लोग ही जानते हैं। ग्रामीण समाज में जिनके पास जमीन नहीं है, उनका कोई वजूद ही नहीं है।

उत्तरप्रदेश में दलित समुदाय ऐतिहासिक रूप से भूमिहीन रहा है। किन्तु आज लगभग 23 प्रतिशत लोगों के पास खेती की जमीनें हैं। जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950’ लागू होने के साथ ही भूमि सम्बन्धी कुछ प्रगतिशील कानून बनाये गये और दलितों को जमीनों के पट्टे आवंटित किये गये। इसके अतिरिक्त सरकारों द्वारा अन्य तरीकों से भी भूमिहीन दलितों को ज़मीनें दी गईं। जैसे कि दलित समुदाय के जो लोग लम्बे समय से किसी भूमि पर काबिज थे, उन्हें उस भूमि का मालिक बना दिया गया। उत्तर प्रदेश भूदान यज्ञ अधिनियम 1952’ के तहत प्रावधान किया गया था कि 50 प्रतिशत ज़मीनें सिर्फ अनुसूचित जाति एवं जनजाति के सदस्यों को आवंटित की जाएँ। किन्तु इस मामले में वास्तविक वितरण कम और खानापूर्ति ज्यादा हुआ। इस तरह अगर देखा जाए तो आज दलितों के पास जितनी भी जमीनें हैं, उनमें से ज्यादातर उन्हें पट्टों के आवंटन के ज़रिये मिली हैं। आज दलितों के सामने एक बड़ी चुनौती यह भी है कि विभिन्न तरीकों से उन्हें मिली जमीनों मे सें अधिकांश विवादों में हैं और आये दिन उन्हें कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटने पड़ते हैं।

बिनोवा भावे के भूदान आन्दोलन से कुल कितनी जमीन मिली, कितनी का वितरण हुआ और बची हुई जमीन का क्या हुआ, इसे न कोई पूछने वाला है और ना बताने वाला। जमीनों से सम्बन्धित जाने कितने मामले वर्षों से न्यायालयों में लटके हैं। इसी तरहए हजारों एकड़ जमीन मठों-मन्दिरों व दूसरी धार्मिक संस्थाओं के नाम है, जो अनुपयोगी पड़ी हुई हैं। मगर सरकार की यह इच्छाशक्ति नहीं है कि इसे मुक्त करा कर वास्तविक रूप से खेती करने वाले लोगों में इसका वितरण कर दे।

सरकार का कुतर्क

सरकार का यह तर्क है कि संशोधन से दलितों को अपनी जमीन बेचते समय लाभ होगा! गोया कि हर दलित अपनी जमीन बेचने पर आमादा है और सरकार नया कानून ला कर उनकी मदद कर रही है। यदि प्रदेश सरकार दलितों के विकास एवं उनके अधिकारों की रक्षा को लेकर इतना ही चिंतित है तो फिर वह सीलिंग एक्ट को सख्ती से क्यों लागू नहीं करती, जिससे सभी भूमिहीनों को जमीन दी जा सके। एक अनुमान के मुताबिक प्रदेश में 70 प्रतिशत दलित भूमिहीन हैं और 50 प्रतिशत के पास घर बनाने के लिए भी जमीन नहीं है।

विधानसभा से यह विधेयक पारित होने के बावजूद, विधानपरिषद में सरकार के अल्पमत में होने के कारण पारित नहीं हो सका। फिलहाल मामला प्रवर समिति के पास है। संभावना जताई जा रही है कि पंचायत चुनाव के बाद जनवरी तक सरकार विधानपरिषद में बहुमत में आ जायेगी।

दलितों की एक बड़ी आबादी के पास आवास बनाने के लिए भी जमीन नहीं है और सरकारों ने इनके लिए कुछ नहीं किया। इस क़ानून से गिनती के भूमिधारक दलितों के भी पुन: भूमिहीन हो जाने की पूरी संभावना है। अधिकांश दलित महिलायें खेतों में काम करती हैं। जमीन न होने की दशा में उनका क्या हाल होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। जिस समुदाय को शौच के लिए भी दूसरों की जमीन का उपयोग करने की विवशता हो, उस पर कितने तरह के जुल्म और अत्याचार बढेंगें, क्या इसका हिसाब लगाया जा सकता है? कहाँ मांग हो रही थी कि सभी भूमिहीनों को जमीन दी जाय और कहाँ भूमि कानून में फेरबदल कर उत्तरप्रदेश सरकार हाशिये पर पड़े करोड़ों दलितों को और पीछे धकेल रही है।

 

लेखक के बारे में

अजय शर्मा

सामाजिक कार्यकर्ता अजय शर्मा जन पैरवी मंच (People's Advocacy Forum) से जुडे हैं

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