h n

जाति जनगणना से सच्चाई सामने आएगी : लालू प्रसाद

लालू प्रसाद के साथ बातचीत: 'हालात तो बदले। लोग पेट काटकर भी अपने बच्चों को पढ़ाने लगे हैं। हमने गरीब-गुरबों को राजनीतिक आवाज दी तो विपक्षियों ने उसे जंगलराज कहा'

2 copyलालू जी, यह बतायें कि जाति जनगणना के आंकड़े जारी करने के लिए आपने जो आंदोलन छेड़ा है, उसके आयाम और राजनीतिक मायने क्या हैं?

देखिए, जाति व्यवस्था भारतीय सामाजिक ढांचे की सच्चाई है। संसाधनों में हिस्सेदारी भी जाति व्यवस्था पर आधारित है – फिऱ चाहे वह जमीन पर मालिकाना हक़ का मामला हो या नौकरियों आदि का। बाबा साहेब आंबेडकर इस बात को समझते थे। इसलिए उन्होंने आरक्षण की बात की थी। वंचित समाज को आरक्षण मिला तो स्थिति बदली। लेकिन पिछड़े वर्ग को यह अधिकार तब मिला जब देश में मंडल आयोग की अनुशंसायें लागू की गयीं। अब समाज में इसका असर कोई भी आसानी से देख सकता है। वंचित तबका अब हर क्षेत्र में आगे आ रहा है। इसलिए मैं कहता हूं कि जब देश में जाति जनगणना की रिपोर्ट सामने आयेगी, तब देश की सामाजिक व्यवस्था की सच्चाई सामने आयेगी। यह समझ में आयेगा कि किस समाज को कितनी हिस्सेदारी मिलनी चाहिए। अभी तक जो व्यवस्था है, वह 1931 में हुई जाति जनगणना पर आधारित है। तब से लेकर अब तक दुनिया बहुत आगे बढ़ चुकी है।

यह सही है कि मंडल कमीशन के लागू होने के बाद पिछड़ों की स्थिति बदली है, लेकिन क्या आप इससे संतुष्ट हैं?

देखिये, इसमें संतुष्टि या असंतुष्टि वाली कोई बात नहीं है। सामाजिक और राजनीतिक बदलाव एक सतत प्रक्रिया है। यह एक झटके में नहीं हो जाता है। जिन दिनों मैं बिहार का मुख्यमंत्री था, उन दिनों हालात बिल्कुल अलग थे। सामाजिक अंतद्र्वंद्व खुलकर सामने आ गया था। समाज में परस्पर संघर्ष भी इसकी एक वजह थी। लेकिन हालात तो बदले। आप 1991 और 2001 की जनगणना की रपटों की तुलना करें। दोनों का अंतर आपको सामाजिक बदलाव का प्रमाण देगा। पहले बिहार में साक्षरता पचास फ़ीसदी से कम थी लेकिन केवल एक दशक में ही यह साठ फ़ीसदी के पार हो गयी थी। उसके बाद से इसमें और सुधार हुआ है। इसका मतलब यह हुआ कि समाज ने आगे बढऩा सीख लिया है। लोग अपना पेट काटकर भी अपने बच्चों को पढ़ाने लगे हैं। यही राजनीति में भी हुआ है। हमने गरीब-गुरबों को आवाज दी तो विपक्षियों ने उसे जंगल राज कहा। लेकिन उनके कहने से वंचित समाज को अपनी हिस्सेदारी लेने से कौन रोक सकता है।

 

लेकिन क्या आपने पिछड़ों और दलितों का उतना भला किया, जितना कि आप कर सकते थे?

मैंने पहले ही कहा कि विकास सरल रेखा में नहीं होता है। समाज में बदलाव भी विकास है। मेरे समय में एक ऐसा बिहार था, जिसमें राजनीतिक अस्थिरता थी। सामाजिक विद्वेष चरम पर था। मंडल आयोग की अनुशंसाओं के लागू होने के बाद इसमें और बढ़ोत्तरी हुई। फिऱ भी हमने हार नहीं मानी। गरीबों के लिये हर तरह की योजनायें चलायी ताकि उनका विकास हो सके। बड़ी संख्या में लोगों के पास अपने घर नहीं थे। मैंने विशेष अभियान चलाकर लोगों के घर बनवाये। मेरा मानना है कि अपना घर होने के बाद ही कोई आगे बढऩे की सोच सकता है। मुझे लगा कि स्कूलों की संख्या कम है और हर गांव में एक प्राइमरी स्कूल और हर प्रखंड में एक हाईस्कूल होना ही चाहिए। मैंने इसके लिए हरसंभव प्रयास किया। शिक्षकों की कमी थी। नये सिरे से शिक्षकों की बहालियां निकाली गयीं। शिक्षक बहाल हुए। आर्थिक मोर्चे पर भी लोगों को सक्षम बनाने का अभियान चलाया गया।

 

आपके विरोधी कह रहे हैं कि जातिगत जनगणना की रिपोर्ट से सबसे अधिक नुकसान आपको होगा। उनका इशारा विभिन्न जातियों की संख्या में होने वाले बदलाव से है।

नुकसान! कैसा नुकसान? भाई, जब जाति जनगणना की रिपोर्ट सामने आयेगी तब उसमें हर जाति-समाज के लोगों के बारे में जानकारी होगी। यही तो भविष्य में होने वाले बदलाव की शुरुआत होगी। लोगों को तो यह पता ही नहीं है कि किस जाति की कितनी आबादी है। जब यह सामने आ जायेगा तब समझ में आयेगा कि किस जाति-समाज को कितनी हिस्सेदारी मिलनी चाहिए। जो लोग मेरे नुकसान की चिंता कर रहे हैं वे पहले अपनी चिंता करें।

 

आपकी नजर में केंद्र सरकार इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने में आनाकानी क्यों कर रही है?

देखिए, मतलब तो बिल्कुल साफ़ है। वे बहुसंख्यक समाज को उसके हक से वंचित रखने की साजिश रच रहे हैं। वे नहीं चाहते हैं कि बहुसंख्यक दलित-पिछड़े अपनी हिस्सेदारी की मांग अपनी बढ़ी हुई आबादी के हिसाब से करें। लेकिन मैंने भी ठान लिया है। जब तक यह रिपोर्ट सामने नहीं आ जाती है, तब तक मैं चुप नहीं बैठूंगा। अब बिहार के हर हिस्से में लोग इस आंदोलन को समझ चुके हैं। 27 जुलाई के बिहार बंद के दौरान बिहार की जनता ने यह दिखा भी दिया है।

 

आखिरी सवाल, आपके इस आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन मिलता नहीं दिख रहा है। इसकी कोई वजह?

यह आपसे किसने कह दिया? राष्ट्रीय स्तर पर हम लोगों ने मिलकर मनमोहन सिंह जी से मांग की कि जाति जनगणना हो। इस मांग में राष्ट्रीय स्तर पर सभी शामिल थे। इसे लेकर उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत के नेताओं ने अपनी सहमति दी थी और मांग का समर्थन किया था। अब जाति जनगणना की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने को लेकर भी दिल्ली से लेकर यूपी और बिहार तक सवाल उठाये जा रहे हैं। आने वाले समय में यह आंदोलन और व्यापक होगा।

फारवर्ड प्रेस के सितंबर, 2015 अंक में प्रकाशित

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

संबंधित आलेख

लोकसभा चुनाव : भाजपा को क्यों चाहिए चार सौ से अधिक सीटें?
आगामी 19 अप्रैल से लेकर 1 जून तक कुल सात चरणों में लाेकसभा चुनाव की अधिसूचना चुनाव आयोग द्वारा जारी कर दी गई है।...
ऊंची जातियों के लोग क्यों चाहते हैं भारत से लोकतंत्र की विदाई?
कंवल भारती बता रहे हैं भारत सरकार के सीएए कानून का दलित-पसमांदा संदर्भ। उनके मुताबिक, इस कानून से गरीब-पसमांदा मुसलमानों की एक बड़ी आबादी...
1857 के विद्रोह का दलित पाठ
सिपाही विद्रोह को भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहने वाले और अखंड हिंदू भारत का स्वप्न देखने वाले ब्राह्मण लेखकों ने यह देखने के...
मायावती आख़िर किधर जा सकती हैं?
समाजवादी पार्टी के पास अभी भी तीस सीट हैं, जिनपर वह मोलभाव कर सकती है। सियासी जानकारों का मानना है कि अखिलेश यादव इन...
आंकड़ों में बिहार के पसमांदा (पहला भाग, संदर्भ : नौकरी, शिक्षा, खेती और स्वरोजगार )
बीते दिनों दिल्ली के कंस्टीट्यूशन क्लब में ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज की एक रिपोर्ट ‘बिहार जाति गणना 2022-23 और पसमांदा एजेंडा’ पूर्व राज्यसभा...