पेरिस की हालिया घटनाओं ने एक बार फिर इस तथ्य को रेखांकित किया है कि हम उथलपुथल और घृणा से भरी अंधेरी दुनिया में रह रहे हैं।
भारत में एक व्यक्ति की जान सिर्फ इसलिए ले ली जाती है क्योंकि यह संदेह था कि उसके घर के रेफ्रिजिरेटर में एक विशेष मांस रखा है। हमारी बुद्धि इतनी विकृत हो गई है कि एक मनुष्य, जो ईश्वर की छवि होता है, की जिंदगी की कीमत हम एक जानवर से भी कम आंक रहे हैं। मासूम दलित बच्चों को जिन्दा जलाया जा रहा है। क्या घृणा से भरी इस दुनिया में आशा की कोई किरण है?
इस माह हम बाबासाहेब आंबेडकर का महापरिनिर्वाण दिवस मना रहे हैं। वे एक क्रांतिकारी विचारक थे, जिन्हें भारतीय संविधान के निर्माता के रूप में हमेशा याद रखा जाएगा।
परंतु हम एक दूसरे क्रांतिकारी को भी नहीं भुला सकते, जिसका जन्मदिवस दिसंबर में मनाया जाता है और जिसकी शिक्षाओं से दुनिया के कई संविधान- और परोक्ष रूप से हमारा भी- प्रेरित हैं।
हां, मैं ईसा मसीह की बात कर रही हूं। वे एक क्रांतिकारी थे क्योंकि उन्होंने हमें तत्कालीन समय में वैकल्पिक संस्कृति अपनाने का संदेश दिया।
जिस दुनिया में शत्रुओं से घृणा करना स्वाभाविक माना जाता था, वहां उन्होंने हमसे अपने शत्रुओं को क्षमा करने के लिए कहा। बल्कि और आगे बढ़कर, उन्होंने हमें सिखाया कि हम अपने शत्रुओं को शुभकामनाएं दें और हम पर जुल्म करने वालों के लिए प्रार्थना करें।
भारत जैसे देश में, जहां जाति के नाम पर अत्याचार किए जाते हैं, दूसरों से घृणा करना और प्रतिशोध की इच्छा रखना आसान है। परंतु जैसा कि ईसा मसीह के एक अनुयायी, डॉ मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा था ”अंधेरा, अंधेरे को दूर नहीं भगा सकता। केवल प्रकाश यह कर सकता है। घृणा, घृणा को नहीं मिटा सकती, केवल प्रेम मिटा सकता है”।
अगर सारे जाति-आधारित अन्याय समाप्त भी हो जाएं परंतु हम अपने मन में, जो कुछ गलत हुआ था, उसके प्रति कटुता, घृणा और द्वेष का भाव पाले रहेंगे तो घृणा का चक्र कभी नहीं टूटेगा। जब हम अपने मन में घृणा को पालते हैं तब हम अपनी भावनाओं के गुलाम बन जाते हैं। यह एक प्रकार की गुलामी को दूसरे प्रकार की गुलामी में बदल लेने जैसा है। यह दूसरी गुलामी पहले प्रकार की गुलामी से कहीं ज्यादा खतरनाक है और इससे हमारे शारीरिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। अगर हम अपने देश को एक ऐसा स्थान बनाना चाहते हैं, जहां हमारे बच्चे सुरक्षित रहकर फल-फूल सकें तो हमें विभिन्न जातियों के बीच मेल-मिलाप का प्रयास करना चाहिए।
सन् 2014 के अक्टूबर माह में फारवर्ड प्रेस पर हमला हुआ। इसके संपादक, मेरे पति, पर विभिन्न जातियों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने का आरोप लगाया गया। उन्हें सिर्फ ईसाई होने के कारण भला-बुरा कहा गया, मानो ईसा का अनुयायी होना कोई बुरी बात है। हां, हम ईसा मसीह के अनुयायी हैं और हमारी ईसा में आस्था के कारण ही, नफरत भड़काने की बजाए, हम विभिन्न जातियों के बीच प्रेम, सद्भाव और मेलमिलाप को बढावा देना चाहते हैं। ईसा मसीह की शिक्षाओं के कारण ही हम यह चाहते हैं कि सामाजिक न्याय हो और वे बहुजन, जिनकी आवाज को लंबे समय से दबाया जा रहा है, ऊपर उठ सकें।
फारवर्ड प्रेस में प्रकाशित सामग्री का फैसला सिर्फ हमारे निजी धर्म और विश्वास के आधार पर नहीं होता है। फारवर्ड प्रेस में प्रकाशित सामग्री का फैसला संपादकीय टीम स्वतंत्र रूप से लेती है। पत्रिका में कई ऐसी चीजें प्रकाशित होती हैं, जो हमारे विभिन्न निजी विश्वासों से इतर होती हैं। जैसा कि मेरे पति कहते हैं कि किसी पत्रिका का सौंदर्य विचारों की विविधता में ही होता है।
अपने व्यक्तिगत अनुभव से मैं यह जानती हूं कि किसी को क्षमा करना सबसे कठिन कामों में से एक है। अगर मैं उन लोगों को क्षमा कर सकी हूं जिन्होंने मुझे चोट पहुंचाई है तो वह इसलिए क्योंकि मुझमे ईसा की आत्मा का वास है।
इस दिसंबर में जब हम पूरी दुनिया में क्रिसमस मनाएंगे, मैं यह प्रार्थना करती हूं कि आप में से अनेक पहला कदम उठाकर ऊँची या नीची जातियों के उन लोगों को क्षमा कर दें, जिन्होंने आपको या आपके परिवार को दु:ख दिया हो-चाहे आज या पीढिय़ों से।
आप और अधिक स्वतंत्र हों, भारत और बेहतर देश बने! जय हिन्द।
फारवर्ड प्रेस के दिसंबर, 2015 अंक में प्रकाशित