पिछले कई वर्षों से लगातार यह कहा जाता रहा है कि अब भारतीय राजनीति में जाति एक (या एकमात्र) कारक नहीं रही। सन 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद, राजनैतिक पंडितों ने उद्घोषणा की कि राजनैतिक कारक के रूप में जाति का अवसान हो गया है और उसका स्थान आकांक्षाओं ने ले लिया है, जो जातिगत व अन्य पहचानों से परे है। हमारी पहली आवरणकथा ‘आकांक्षाओं की जीत’ में मैंने लिखा था कि ‘जनादेश साफ़ है : विचारधारा और/या पहचान की राजनीति से अब काम चलने वाला नहीं है। या तो विचारधारा+प्रदर्शन और/या पहचान+प्रदर्शन ज़रूरी होगा।’ राष्ट्रीय व राज्यों के चुनावों से यह मान्यता पुष्ट हुई है कि जाति, चुनाव जीतने के लिए ज़रूरी तो है, परन्तु पर्याप्त नहीं।
इसलिए, युवा आप द्वारा शक्तिशाली भाजपा की ईंट से ईंट बजा देने से एफ पी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ, यद्यपि भाजपा की जो दुर्गत हुई, उसका हमें भी अंदाज़ा नहीं था। सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार अत्यंत विनम्र व्यक्ति हैं अन्यथा वे ज़रूर कहते, ‘मैंने तो पहले ही कहा था’। दिल्ली के पहले तीन विधानसभा चुनावों के नतीजों व मतदाताओं के विश्लेषण पर आधारित उनकी पुस्तक 2013 के अंत में हुए चुनाव – जिसमें उस समय ताज़ा-ताज़ा गठित आप ने अपना खाता खोल कर बहुत लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया था – के पहले प्रकाशित हुई थी। 2013 में आप की सफलता का आधार था दिल्ली का मुख्यत: बहुजन निर्धन वर्ग सन 2015 की उसकी शानदार जीत के पीछे यह वर्ग तो है ही। इसके साथ ही आप, भाजपा और कांग्रेस के मध्यम वर्ग और यहाँ तक कि उच्च जाति वोट बैंक में सेंध लगाने में भी सफल रही। आवरणकथा में संजय कुमार इन नतीजों का जाति व वर्गवार विश्लेषण कर रहे हैं।
जब दिल्ली में चुनाव हो रहा था तब पटना में नीतीश कुमार स्वयं का रचा त्रासद स्वांग खेल रहे थे, जिसमें कि, अपेक्षानुसार, जाति की महत्वपूर्ण भूमिका थी। मैं जब भी इस नाटक और नीतीश के चेले मांझी की महादलितों की ‘अस्मिता’ और उनके ‘अपमान’ की चिंता के बारे में सोचता हूँ तो मुझे बरबस ‘फ्रैंकनस्टाइज’ (मेरी शेली का चर्चित अंग्रेजी उपन्यास) की याद हो आती है। हम कतई नहीं चाहते कि नीतीश कुमार या बिहार के भले लोग भस्म हों। और इसलिए हमें उम्मीद है कि वे और बिहारवासी, नीतीश के पूर्व सहयोगी और चिन्तक प्रेम कुमार मणि का खरी-खरी सुनाता पत्र पढ़ेगें और गुनेगें भी। मणि उन बहुत कम लोगों में से हैं जो सत्ताधारियों के सामने सच बोलने से सकुचाते नहीं।
बिहार, दलितों पर भीषण अत्याचारों के लिए जाना जाता रहा है। इस अंक में हम प्रतिष्ठित विधिवेत्ता अरविन्द कुमार जैन का स्वागत करते हैं, जो ‘शर्मनाक फैसलों की श्रंखला’ के लिए जातिवादी न्यायपालिका को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। वे इसे उच्च न्यायपालिका में दलितों के प्रवेश-निषेध का भी परिणाम मानते हैं। बिहार के एक दिग्गज पत्रकार, अतुल कुमार के नाम से, दलित नरसंहारों के अपराधियों के बरी होने के असली कारण – बदलती हुयी समाजशास्त्रीय बुनावट – से हमें परिचित करवाते हैं। वे बताते हैं कि किस प्रकार वहां बिना सामाजिक या अन्य न्याय के, सुलह हो रही है।
प्रोफेसर तुलसीराम, जाति और वर्ग दोनों के अप्रितम अध्येता थे। शिक्षाशास्त्री और साहित्यिक लेखक, तुलसीराम अपनी दो खण्डों की आत्मकथा के लिए जाने जाते है। इस दलित बुद्धिजीवी का जीवन, बुद्ध, मार्क्स व आंबेडकर की विचारधारों के समन्वय के प्रयासों को समर्पित रहा। वे यह मानते थे कि इस संलयन से जाति – जिसे वे परमाणु बम से भी अधिक विनाशक कहते थे – को निष्प्रभावी किया जा सकेगा।
(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2015 अंक में प्रकाशित )
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