16 दिसंबर, 2015 को बिहार कैबिनेट की बैठक में सम्राट् अशोक का जन्म दिवस मनाने और उस दिन सरकारी छुट्टी घोषित करने का फैसला किया गया। इस घोषणा के साथ ही सम्राट् अशोक की जन्मतिथि और जाति को लेकर विवाद और बहस शुरू हो गयी है। यह संयोग है कि इस साल अशोक जयंती 14 अप्रैल को है, जो डॉ आंबेडकर का जन्मदिन भी है। ऐसे में, बिहार सरकार ने फैसला किया है कि सरकारी कैलेंडरों में इस साल यह अवकाश ‘अशोक जयंती (अशोकाष्टमी) सह आंबेडकर जयंती’ के रूप दर्ज किया जाएगा। अशोकाष्टमी की तिथि की गणना चन्द्र कैलेंडर से होगी तथा हर साल बदलेगी।
सम्राट् अशोक की जन्मतिथि को लेकर उठे विवाद पर ‘अशोक इन एनसियेंट इंडिया’ के लेखक और दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर नयनजोत लाहिडी, बिहार सरकार की इस घोषणा को काल्पनिक और मनगढंत बताते है। लाहिडी कहते है कि हम नहीं जानते कि अशोक की जन्मतिथि क्या है।
बिहार सरकार की यह घोषणा सुनकर इतिहासकार डी.एन. झा को धक्का लगा है। झा कहते है कि वे नही जानते कि बिहार सरकार को यह सलाह किसने दी। इधर पटना विश्वविद्यालय में इतिहास के पूर्व प्रोफेसर राजेश्वर प्रसाद सिंह और ओपी जायसवाल भी बिहार सरकार के घोषणा से चकित हैं। उनका कहना है कि बिहार सरकार ने इतिहासकारों से बिना सलाह-मशविरा किए यह निर्णय लिया है।
बहरहाल, उत्तर भारत में कोई घटना घटे या सरकारी स्तर पर कोई निर्णय हो और उसको जाति की नजरिए से न देखा जाय, यह संभव नहीं। सम्राट् अशोक की जाति के प्रश्न पर झा कहते हैं कि अशोक को राजनीति का मुद्दा बनाकर जाति के दायरे तकं सीमित करने की कोशिश हो रही है। इसका एक मात्र उद्देश्य कुशवाहा वोटरों को आकर्षित करना है। उधर विधानपरिषद् सदस्य और इतिहास के प्रोफेसर सूरज नंदन कुशवाहा उक्त सभी जानेमाने विद्वानों के दावे को सिरे से खारिज करते हुए कहते हैं कि हमारे पास मूर्त और प्रत्यक्ष सबूत है कि सम्राट अशोक कुशवाहा वंश से संबंधित थे। राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के अध्यक्ष और केन्द्रीय मानव संसाधन राज्य मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा भी दावे के साथ कहते हैैं कि सम्राट अशोक कुशवाहा वंश के थे।
राष्ट्रवादी कुशवाहा परिषद् का दावा है कि बिहार में निवास करने वाली कोयरी (कुशवाहा) आबादी मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य और विश्व विख्यात सम्राट अशोक की वंशज है। परिषद् ने इन्हीं प्रतीकों के माध्यम से कोयरी जाति को भाजपा से जोडऩे का अभियान चलाया था। बिहार में यादव और मुसलमान के बाद तीसरी सबसे बड़ी आबादी कोयरियों की है, जो 7-10 प्रतिशत के आसपास बताई जाती है। राष्ट्रवादी कुशवाहा परिषद की पहल पर बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा से पूर्व पटना में आयोजित एक समारोह में केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सम्राट् अशोक पर डाक टिकट जारी करते हुए कहा था कि यदि बिहार में भाजपा की सरकार बनेगी तो कुम्हरार में सम्राट् अशोक की विशाल प्रतिमा स्थापित होगी। इसी समारोह में जोर-शोर से बताया गया कि सम्राट् अशोक कुशवाहा वंश से संबंधित थे। हालांकि भाजपा और कुछ इतिहासकारों के दावों के वितरीत वास्तविकता यह है कि बिहार में मौर्यवंश व सम्राट अशोक सिर्फ कोईरी ही नहीं कुर्मी व कई अन्य हमपेशा जातियों के लिए एक उर्जावान प्रेरणाश्रोत रहे हैं। ये जातियां स्वयं को इनका वंशज मानती हैं। देश के अन्य हिस्सों में इस प्रेरणा श्रोत से जुड़ी कई अन्य हमपेशा जातियां भी हैं (सूची देखें)।
बहरहाल भाजपा की इस कवायद की चुनाव के बहुत पहले आलोचना शुरु हो गयी थी। ‘द टेलीग्राफ’ ने 9 दिसंबर 14 को और ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने अपने 14 सितम्बर 2015 के अंक में कहा कि मौर्य सम्राज्य के संस्थापकों को किसी जाति-विशेष से जोडऩा गलत है। इन टेलीग्राफ में इस विषय पर छपे लेख का खंडन करते हुए फारवर्ड प्रेस के अगस्त 2015 अंक में अरविंद कुमार का ‘मौर्यवंश और जाति अस्मिता का प्रश्न’ शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ था। अरविंद कुमार ने इन अखबारों की आलोचना करते हुए उचित सवाल उठाया था कि भारत में इतिहास लेखन के लिए ब्राह्मण साहित्य को ही एकमात्र जाति क्यों माना जाता है?
अरविंद कुमार ने अपने लेख में कहा था कि ”कुशवाहा जाति के इस दावे को एक बारगी ख़ारिज नहीं किया जा सकता है। किसी भी परिकल्पना को सिद्ध करने की सटीक एवं वैज्ञानिक पद्धति है- क्षेत्र अध्ययन। यदि हम मौर्य साम्राज्य से जुड़े प्रमुख स्थलों या बुद्ध-काल के प्रमुख स्थलों का अवलोकन करते हैं तो पाते हैं कि इन क्षेत्रों में कुशवाहा जाति का जमाव सर्वाधिक है। 1908 ईस्वी के एक सर्वे में भी यह बात सामने आई थी कि कुम्हरार (पाटलिपुत्र), जहाँ मौर्य साम्राज्य के राजप्रासाद थे, से सटे बड़े क्षेत्र में कुशवाहों के अनेक गाँव (यथा कुम्हरार खास, संदलपुर, तुलसीमंडी, रानीपुर आदि) हैं तथा इन गाँवों की 70 से 80 प्रतिशत जनसँख्या कुशवाहा है। प्राचीन काल में जिन स्थलों पर भी राजधानियाँ रहीं हैं, वहाँ इस जाति का जनसंख्या-घनत्व अधिक रहा है, यथा उदन्तपुरी (वर्तमान बिहारशरीफ शहर एवं उससे सटे विभिन्न गाँव) में सर्वाधिक जनसंख्या इसी जाति की हैै। राजगीर के आसपास कई गाँव (यथा राजगीर खास, पिलकी महदेवा, सकरी, बरनौसा, लोदीपुर आदि) इस जाति से संबंधित हैं। प्राचीन वैशाली गणराज्य की परिसीमा में भी इस जाति की जनसंख्या अधिक हैै। बुद्ध से जुड़े स्थलों पर इस जाति की अधिकता है यथा कुशीनगर, बोधगया, सारनाथ आदि। नालंदा विश्वविद्यालय के खण्डहर के आसपास भी इस जाति के अनेक गाँव हैं यथा कपटिया, जुआफर, कपटसरी, बडगाँव, मोहन बिगहा आदि। उपर्युक्त उदाहरणों से यह प्रतीत होता है कि यह जाति प्राचीन काल में शासक वर्ग से संबंधित थी तथा नगरों में रहती थी। इनके खेत प्राय: नगरों के किनारे थे। अत: नगरीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ये कालांतर में साग-सब्जी एवं फलों की कृषि करने लगे। आज भी इस जाति का मुख्य पेशा साग-सब्जी एवं फलोत्पादन माना जाता है।
बहरहाल, इतिहासकारों के दावों से इतर इस बात के पुख्ता सुबूत हैं कि मौर्यवंश के शासक साग-सब्जी उत्पादक जातियों से थे। कोई जरूरी नहीं कि वह जाति कुशवाहा ही हो। कालक्रम में अनेक जातियों ने यह कार्य किया होगा तथा उनका नामकरण भी अलग-अलग होता रहा होगा। वास्तव में इतिहासकार इस संबंध में कोई दावा कर भी नहीं रहे हैं। वे तो बस इतना कह रहे हैं कि उन्हें मौर्यवंश के संस्थापकों की न तो सामाजिक पृष्ठभूमि पता है न ही उनकी जन्मतिथियों की जानकारी है। अगर ऐसा है तो यह न सिर्फ उनकी अज्ञानता को प्रदर्शित करता है, बल्कि इतिहास की अध्ययन पद्धति पर भी प्रश्न चिन्ह लगता है।
गौरतलब है कि अशोक जयंती का असर सिर्फ बिहार तक ही सीमित नहीं रहेगा क्योंकि देश में सब्जी उत्पादक जातियों की एक बहुत बड़ी आबादी है, जो विभिन्न नामों से जानी जाती है। यह जयंती जल्दी ही देश के अन्य राज्यों में भी गैर सरकारी स्तर पर ही सही, मनायी जाने लगेगी तथा इन जातियों के राजनीतिक-सामाजिक एकीकरण का वाहक बनेगी। ये जातियां काफी समय से अपने सर्वमान्य नायक की तलाश में थीं। ऐसे में सम्राट अशोक से बेहतर नायक उनके लिए कौन होगा, जिसका एक सिरा महान बुद्ध से भी जुड़ता है। इस कारण यह जयंती इन जातियों को दलित आंदोलनों की प्रखरता के भी करीब लाएगी।
(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2016 अंक में प्रकाशित )
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भारत मे लिच्छिवी व शाक्य नाम के दो प्रसिद्ध क्षत्रिय वंश हुये। शाक्य वंश मे गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था। डॉ नवल वियोगी अपनी पुस्तक “प्राचिन भारत के शासक नाग उनकी उत्पत्ति और इतिहास” मे लिच्छिवि वंश व वैशाली वंश को चरवाहे (धनगर) बताया है। लिच्छिवि व शाक्यो के बीच मे वैवाहिक समन्ध थे। अपनी इसी पुस्तक मे वियोगी जी ने बी जी गोखले के हवाले से बताया है कि शाक्य अपने को खत्ती पुकारते थे। कुछ लोगो का मानना है कि खत्ती हट्टी (Hitites) का प्राकृत रुप है। हट्टी को भारत मे हटकर कहा जाता है जो भारत मे स्वतन्त्र व धनगरो की उपजाति के रुप मे विद्यमान है। भारतीय संसद के गेट नम्बर 5 पर चन्द्रगुप्त मौर्य का एक स्टेचु रखा है (जो इण्टरनेट पर भी आसानी से मिल जायेगा)। उस स्टेचु पर स्पष्ट लिखा है कि- बालक अजापाल चन्द्रगुप्त मौर्य भावी भारत के निर्माण की कल्पना मे। The Shepherd Boy Chandra Gupta Maurya in Dreaming of India He was to Create अजा माने बकरी होती है। लेकिन अंग्रेजी मे लिखे Shepherd शब्द ने सभी शंकाओ का समाधान कर दिया है। यही नही मौर्य टाईटल धनगरो आज भी पाया जाता है। मोरे मौर्य का मराठी वर्जन है जो महाराष्ट्र के धनगरो मे पाया जाता है। शाक्य व लिच्छिवि वंशो का धनगर (गडेरिया) मूल:
शाक्य व लिच्छिवि वंशो की उत्पत्ति एक समान है। नेपाल के राजपरिवार की वंशावली के अनुसार लिच्छिवि लोग इक्ष्वाकुओ की एक शाखा थी। रामचन्द्र इक्ष्वाकु वंशी थे। इतिहासकारो ने इक्ष्वाकु का संबन्ध हाइकसोस से होने की संभावना व्यक्त की है। हाइकसोस सेमेटिक लोग थे जिन्होने 1750 ई. पू. मे मिश्र पर आक्रमण किया था। हाइकसोस शब्द दो अन्य शब्दो (हाइक व सोन्स) से मिलकर बना है। मिश्रि (मिश्र की भाषा) मे हाइक का मतलब “राजा” व सोन्स का मतलब “गडेरिया होता है।” हाइकसोस अथवा अक्काकू (संस्कृत मे इक्ष्वाकु) संभवत: 2100 ई. पू. मे सिन्धु घाटी सभ्यता के उत्थान काल मे भारत पहुंचे। 2400 ई. पू. से पहले सेमाइटस लोगो के लिये हाइक्सोस नाम प्रयुक्त होता था। हाइक्सोस अथवा सेमाइटस लोगो के प्रमुख देवता बल/बाल का वर्णन धनगर लोगो के प्रमुख देवता के रुप मे ॠग्वेद मे बार बार आया है। बल देवता को सूर्य देवता का प्रतिनिधि माना जाता है। ॠग्वैदिक वर्णन के अनुसार धनगर भारत के पूर्व आदिवासी थे, जिनका इन्द्र के साथ टकराव हुआ था। वैसे वर्तमान मे मुराव जाति जो अपने को मौर्य बताती है, का सम्बन्ध कृषि से है जबकि धनगरो का सम्बन्ध पशुपालन से है। हम उपर भी जिक्र कर आये है कि लिच्छिवि पशुपालक वंश था जबकि शाक्य कृषक वंश था। इन दोनो वंशो/गणो मे शादि समबन्ध होते थे। अब इस बात से इनकार नही किया जा सकता कि पशुपालको (धनगर) व कृषको (वर्तमान मुराव) का मूल एक रहा होगा।