जब साहित्य होता है तब आरक्षण नहीं होता। जब आरक्षण होता है तो साहित्य नहीं होता। साहित्य सिर्फ साहित्य होता है। उसमें किसी तरह का आरक्षण नहीं हो सकता। अगर कोई आरक्षण की मांग करता है तो साहित्य को बांटना चाहता है। बताइए, साहित्य क्या बांटा जा सकता है।
साहित्य जाति, लिंग, धर्म से ऊपर होता है। न उसमें स्थान भेद होता है, न काल भेद, न भाषा भेद न मानव भेद। हम आजीवन प्रगतिशील रहे। जीवनभर अपने बंदों का प्रगतिशील शैली में रक्षण करते रहे। कहां-कहां अपने रक्षितों को सुरक्षित जगहें दीं। रोटी-पानी का जुगाड़ कराया। कईयों को साहित्य में जमाया। अकादमी किया। कमाऊ कमेटियों में रखा। हमारी कीर्ति बढी। हर शहर में हमारा थैला उठाने वाले पहले हाजिर रहते। ऐसे परमादरणीय हम जब सहस्त्र रक्षण लीलाएं कर चुके और करने को कुछ न रहा, तो एक शाम उक्त सत्यवचन कह ही उठे।
साहित्य में आरक्षण निहायत गलत बात है। साहित्य, साहित्य है, यहां आरक्षण कहां। देशकाल विधानानुसार एक दिन हम ओबीसीवादी भी हो लिए। प्रगतिशील योनि में जब तक रहे, अपने प्रगतिशीलों का रक्षण करते रहे। रक्षण के आगे आ लगाया, तो मजा आ गया। बड़ा मैदान मिल गया। काम वही पुराना था, यानी रक्षण करना। अब आरक्षण करने लगे। हम रक्षण और आरक्षदृष्टि से ही देखते रहे। रक्षितों का साहित्य में आरक्षण करते गए। जब साहित्य में दलित आरक्षण को अभेद मांगने लगे, तो हमने आरक्षण पर पुनर्विचार किया। अचानक विचार पलट गए। हम ठसके। कहने लगे-आरक्षण न करियो-साहित्य में भला कहीं आरक्षण हुआ करता है। साहित्य की कोई जाति नहीं होती। धर्म नहीं होता। न कोई शर्मा होता है, न वर्मा होता है, न सिंह होता है, न यादव, न अग्रवाल, न गुप्त। न कोई दलित होता है , न ओबीसी। उसमें न औरत होती है, न मर्द होता है, न नपुंसक लिंग होता है। हमने जाति तोडऩे की प्रेरणा बहुत पहले ले ली थी। फिर हम आए मार्क्सवादी गली में। तब से उसी मार्क्सवादी मुहल्ले में रहते हैं। हमने जाति की जगह वर्ग लिख दिया। वर्ग की सोचते रहते लेकिन जाति की करते रहते। हर लेखक के नाम से पहले जाति का पता करते। वही लेखक सही होता, जो जाति में होता है। चेला या चेले का चेला जो काम का हो, कुलगोत्र बढ़ाए। नाम के पहले प्रसिद्ध मार्क्सवादी की नेमप्लेट हमेशा लगाकर रखी। मार्क्सवादी ने हमारी लाज रखी। जाति छिपा ली। जाति चेतना की जगह वर्गीय चेतना लिखा-दिखता रहा। अंदर की बात यही कि जाति में गतिशील कहलाए। प्रगतिशील होना जातिशील से टकराता न था। बातें वर्ग की करते रहो, जीवन में जाति चलाते रहो। बुरा हो कमबख्त रघुवीर सहाय का, जो एक घटिया कविता लिखकर हमारी लंका ढहा गया। यह भी कोई कविता है, जो कहती है-कुछ भी लिखूंगा वैसा नहीं दिखूंगा/दिखूंगा/ या तो रिरियाता हुआ या गरजता हुआ/ किसी को पुचकारता हुआ/ किसी को बरजता हुआ/ बनिया बनिया रहे/ बाम्हन बाम्हन और कायस्थ कायस्थ रहे/ पर जब कविता लिखे तो आधुनिक हो जाए/ खीसें बा दे जब कहो गा दे/ सच कहा है, घर का भेदी लंका ढाए।
(साहित्य में आरक्षण नहीं चलेगा जैसे विचार पर उनकी यह व्यंग्यात्मक टिप्पणी दैनिक हिन्दुस्तान के 24 फरवरी, 2013 के अंक में प्रकाशित हुई थी। फारवर्ड प्रेस उनकी इस टिप्पणी को उनकी अनुमति से साभार प्रकाशित कर रहा है)
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