मोदी सरकार के दो साल के कार्यकाल की समीक्षा के मुख्यतः दो पैमाने हो सकते हैं। पहला, चुनाव अभियान के दौरान किए गए वायदों में से कितने पूरे हुए और दूसरा, भारतीय संविधान में निहित बहुवाद और विविधता के मूल्यों की रक्षा के संदर्भ में सरकार का प्रदर्शन कैसा रहा। मोदी सरकार के दिल्ली में सत्ता संभालने के बाद लोगों को यह उम्मीद थी कि अच्छे दिन आएंगे, विदेशों में जमा काला धन वापिस आएगा और रोज़गार के अवसर बढ़ेंगे। इनमें से कुछ भी नहीं हुआ। आवश्यक वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे हैं और गरीबों के भोजन ‘रोटी-दाल’ में से दाल इतनी मंहगी हो गई कि मध्यम वर्ग के परिवारों के लिए भी उसे खरीदना मुश्किल हो गया है। बेरोज़गारी जस की तस है और हम सब के बैंक खातों में जो पंद्रह लाख रूपए आने थे वे कहीं दिखलाई नहीं दे रहे हैं। जहां तक बहुप्रचारित विदेश नीति का प्रश्न है, किसी को यह समझ में नहीं आ रहा है कि भारत सरकार की विदेश नीति आखिर है क्या। हां, प्रधानमंत्री नियमित रूप से विदेश जाते रहते हैं और दूसरे देशों के नेताओं के साथ उनकी तस्वीरें अखबारों की शोभा बढ़ाती रहती हैं। पाकिस्तान के मामले में सरकार कभी बहुत कड़ा रूख अपनाती है तो कभी अत्यधिक नरम। नेपाल, जिसके साथ हमारे दोस्ताना संबंध थे, भी हम से दूर हो गया है।
‘‘अधिकतम शासन-न्यूनतम सरकार’’ (मैक्सिमम गर्वनेंस-मिनिमल गर्वमेंट) का नारा खोखला साबित हुआ है। सारी शक्तियां एक व्यक्ति के हाथों में केंद्रित हो गई हैं और उस व्यक्ति में तानाशाह बनने के चिन्ह स्पष्ट नज़र आ रहे हैं। कैबिनेट व्यवस्था की सर्वमान्य परंपराओं को दरकिनार कर, प्रधानमंत्री ने सब कुछ अपने नियंत्रण में ले लिया है। देश में सांप्रदायिक द्वेष बढ़ा है, सौहार्द कम हुआ है और शैक्षणिक संस्थाओं की स्वायत्तता भी घटी है।
यह पहली बार है कि जब भाजपा, लोकसभा में सामान्य बहुमत के साथ केंद्र में सत्ता में आई है। और यह साफ है कि वह अपने हिंदुत्ववादी एजेंडे को लागू करने पर आमादा है। मोदी के सत्ता संभालते ही संघ परिवार के विभिन्न अनुषांगिक संगठन अतिसक्रिय हो गए। पुणे में मोहसिन शेख नामक एक सूचना प्रोद्योगिकी कर्मी की हिंदू राष्ट्रसेना के कार्यकर्ताओं ने खुलेआम हत्या कर दी। संघ परिवार के सदस्य संगठनों ने हर उस व्यक्ति और संस्थान को निशाना बनाना शुरू कर दिया और उसके खिलाफ घृणा फैलानी शुरू कर दी जो सत्ताधारी दल के एजेंडे से सहमत नहीं था। केंद्र में मंत्री बनने के पहले, गिरिराज सिंह ने कहा कि जो लोग मोदी को वोट देना नहीं चाहते उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए। पार्टी की एक अन्य नेता साध्वी निरंजन ज्योति ने उन लोगों को हरामजादा बताया जो उनकी पार्टी की नीतियों से सहमत नहीं थे। सत्ताधारी दल और उसके पितृसंगठन आरएसएस से जुड़े सभी व्यक्तियों ने एक स्वर में धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरूद्ध विषवमन करना शुरू कर दिया और हमारे शक्तिशाली प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहे। यह कहा गया कि प्रधानमंत्री से आखिर यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वे हर छोटी-मोटी घटना पर प्रतिक्रिया व्यक्त करें। ऐसा लगता है कि उनकी चुप्पी सोची-समझी और आरएसएस के ‘‘श्रम विभाजन’’ का भाग थी। यह बार-बार कहा जाता है कि जो लोग घृणा फैला रहे हैं वे मुट्ठीभर अतिवादी हैं जबकि सच यह है कि वे लोग शासक दल के प्रमुख नेता हैं।
हिंदुत्व की राजनीति, पहचान से जुड़े मुद्दों पर फलती-फूलती है। इस बार गौमाता और गौमांस भक्षण को बड़ा मुद्दा बनाया गया और इसके आसपास एक जुनून खड़ा कर दिया गया। इसी जुनून के चलते, दादरी में मोहम्मद अख़लाक की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई और देश के अन्य कई स्थानों पर हिंसा हुई। उसके पहले, दाभोलकर, पंसारे और कलबुर्गी की हत्या कर दी गई थी। दादरी की घटना ने पूरे देश का ध्यान बढ़ती हुई असहिष्णुता की ओर खींचा और कई जानेमाने लेखकों, वैज्ञानिकों और फिल्म निर्माताओं ने उन्हें मिले पुरस्कार लौटा दिए। इसे गंभीरता से लेकर देश में तनाव को कम करने के प्रयास करने की बजाए, पुरस्कार लौटाने वालों को ही कटघरे में खड़ा किया गया। यह कहा गया कि वे राजनीति से प्रेरित हैं या पैसे के लिए ऐसा कर रहे हैं।
जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि यह सरकार शैक्षणिक संस्थाओं में घुसपैठ करना चाहती है। प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थाओं में चुन-चुनकर ऐसे लोगों की नियुक्तियां की गईं जो भगवा रंग में रंगे हुए थे। गजेन्द्र चैहान को भारतीय फिल्म व टेलीविजन संस्थान का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। उनकी नियुक्ति का विद्यार्थियों ने कड़ा विरोध किया परंतु उसे नज़रअंदाज कर दिया गया। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन को निशाना बनाया गया। स्थानीय भाजपा सांसद बंगारू दत्तात्रेय ने केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री से यह शिकायत की कि विश्वविद्यालय में राष्ट्रविरोधी और जातिवादी गतिविधियां चल रही हैं। मंत्रालय के दबाव में विश्वविद्यालय ने रोहित वेमूला और उनके साथियों को होस्टल से निष्कासित कर दिया और उनकी छात्रवृत्ति बंद कर दी। इसी के कारण रोहित ने आत्महत्या कर ली।
शैक्षणिक संस्थाओं के संबंध में सरकार की नीति का देशव्यापी विरोध हुआ। फिर जेएनयू को निशाना बनाया गया और कन्हैया कुमार और उनके साथियों पर देशद्रोह का झूठा आरोप मढ़ दिया गया। जिन लोगों ने राष्ट्रविरोधी नारे लगाए थे उन्हें गिरफ्तार तक नहीं किया गया। इस तथ्य को नज़रअंदाज़ किया गया कि केवल नारे लगाना देशद्रोह नहीं है। एक छेड़छाड़ की गई सीडी का इस्तेमाल जेएनयू के शोधार्थियों को फंसाने के लिए किया गया। उन पर देशद्रोह का आरोप लगाए जाने से राष्ट्रवाद की परिभाषा पर पूरे देश में बहस छिड़ गई।
आरएसएस के मुखिया ने एक दूसरा भावनात्मक मुद्दा उठाते हुए कहा कि युवाओं को भारत माता की जय का नारा लगाना चाहिए। इसके उत्तर में एमआईएम के असादुद्दीन ओवैसी ने कहा कि अगर उनके गले पर छुरी भी अड़ा दी जाए तब भी वे यह नारा नहीं लगाएंगे। आरएसएस के एक अन्य साथी बाबा रामदेव ने आग में घी डालते हुए यह कहा कि अगर संविधान नहीं होता तो अब तक लाखों लोगों के गले काट दिए गए होते। यह समझना मुश्किल नहीं है कि यह कितनी भयावह धमकी थी।
कुल मिलाकर, पिछले दो सालों में संघ के प्रचारक मोदी ने देश को हिंदू राष्ट्र बनने की ओर धकेला है और भारतीय राष्ट्रवाद को गंभीर क्षति पहुंचाई है। सच्चा भारतीय राष्ट्रवाद उदार है और उसमें अलग-अलग धर्मों और जातियों व अलग-अलग विचारधाराओं के लोगों के लिए स्थान है। इसके विपरीत, सांप्रदायिक राजनीति भावनात्मक मुद्दों को उछालने में विश्वास रखती है जिनमें गौमांस, राष्ट्रवाद और भारत माता की जय जैसे मुद्दे शामिल हैं। इस सरकार के कार्यकाल के अभी दो साल बाकी हैं। अभी से यह स्पष्ट दिखलाई पड़ रहा है कि सरकार का एजेंडा विघटनकारी है और इसकी नीतियां आम लोगों के हित में नहीं हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि भारत, समावेशी प्रगति की राह पर चले और लोगों के बीच सद्भाव और प्रेम हो। परंतु ऐसा होता नहीं दिख रहा है। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)