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और भी सांस्कृतिक हस्तक्षेप शेष

फारवर्ड प्रेस ने उन अँधेरे कोनों की पड़ताल की, जहां श्रेष्ठ वर्ग की वर्चस्ववादी संस्कृति ने वंचित समूहों के सरोकारों के धकेल दिया था। उसने दलित-बहुजनों की दुनिया, उनके इतिहास, उनके सरोकारों और उनके समक्ष प्रस्तुत चुनौतियों को दुनिया के सामने लाया। यह एक ऐतिहासिक योगदान था

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फारवर्ड प्रेस के मुद्रित संस्करण को बंद करने का निर्णय, आर्थिक मजबूरियों के चलते लिया गया होगा। अभी कुछ समय पूर्व, पत्रकारिता के उच्च सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध और अत्यंत सामयिक पत्रिका ‘कम्युनलिज्म कॉम्बैट’ का प्रकाशन बंद हो गया। पत्रिका के संपादक द्वय ने उसे जीवित रखने की भरसक कोशिश की परंतु बाज़ार की शक्तियों के सामने उनकी एक न चली। ‘कम्युनलिज्म कॉम्बैट’ ने अपना मुद्रित संस्करण बंद कर दिया और ‘सबरंगइंडिया डॉट इन’ के रूप में इंटरनेट की दुनिया में पुनर्जन्म लिया।

यद्यपि यह दलित-बहुजन आंदोलनों के लिए मुश्किल दौर है परंतु इस अँधेरे में आशा की एक किरण भी है – और वह है सोशल मीडिया, वेब पोर्टलों और वेबसाईटों का विस्तार और उनकी बढ़ती पहुँच। महत्वपूर्ण यह है कि ये सब बहुभाषी भी हो सकते हैं।

फारवर्ड प्रेस ने दमितों की आवाज़ को दो अनूठे तरीकों से बल दिया। पहला, उसने ब्राह्मणवादी संस्कृति के वर्चस्ववादी चरित्र को उजागर किया और सैद्धांतिक स्तर पर उससे कड़ा मुकाबला किया। दूसरे, उसने ऐसे मुद्दे उठाए, जो आज प्रतिरोध की संस्कृति की नींव बन रहे हैं और यही संस्कृति, वर्चस्ववादी शक्तियों से राजनीतिक स्तर पर मुकाबला करने का आधार बनेगी। उसने उन अँधेरे कोनों की पड़ताल की, जहाँ श्रेष्ठि वर्ग की वर्चस्ववादी संस्कृति ने वंचित समूहों के सरोकारों को धकेल दिया था। उसने दलित-बहुजनों की दुनिया, उनके इतिहास, उनके सरोकारों और उनके समक्ष प्रस्तुत चुनौतियों को दुनिया के सामने लाया। यह ब्राह्मणवादी विचारधारा के प्राधान्य के विरुद्ध चल रहे संघर्ष में फारवर्ड प्रेस का ऐतिहासिक योगदान था।

जिन मुद्दों को पत्रिका ने प्रमुखता से उठाया, वे पद-दलितों के संघर्षों की व्यापक एकता के निर्माण के लिए महत्वपूर्ण हैं। पत्रिका में प्रकाशित लेख आदि बहुजनों की गरिमा और उनके अधिकारों की पुनर्स्थापना के आंदोलन को रास्ता दिखाने का काम करेंगे। फुले, आंबेडकर और पेरियार की राह पर चलते हुए, पत्रिका ने पौराणिक कथाओं की पुनर्व्याख्या की और बहुजनों की एकता का एक व्यापक मंच बनाने का प्रयास किया। ये प्रयास सभी के लिए गरिमापूर्ण जीवन सुनिश्चित करने की राह में महत्वपूर्ण कदम हैं।

आज हिंदुत्व के वेश में ब्राह्मणवादी राजनीति, उन वैश्विक वर्चस्ववादी ताकतों से हाथ मिला रही है, जो दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मानवाधिकारों को कुचल रही हैं। ब्राह्मणवादी पौराणिकता को विभिन्न स्वरूपों में बढ़ावा दिया जा रहा है और इसका इस्तेमाल, समाज के दमित वर्गों के अधिकारों को कुचलने के लिए हो रहा है। इस पत्रिका ने जो नींव रखी है, उसे और मज़बूत किया जाना होगा। इसके लिए वेब पोर्टलों, फेसबुक व अन्य मंचों का इस्तेमाल कर लेखकों व पाठकों को अनौपचारिक रूप से एक दूसरे से जोड़कर सामाजिक क्षेत्र में प्रभावकारी हस्तक्षेप करना होगा। वे सभी लोग जो फारवर्ड प्रेस परिवार से जुड़े हुए थे, उन्हें एक रहकर इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनवरत कार्य करना होगा।

फारवर्ड प्रेस का मुद्रित संस्करण एक अन्य दृष्टि से भी अनूठा था। इसका द्विभाषीय स्वरूप भारत के विविधवर्णी समाज के साथ प्रभावकारी संवाद स्थापित करने में सहायक था। मुझे उम्मीद है कि इसके वेब अवतार में अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का भी समावेश होगा। पत्रिका के आखिरी अंक को एक अपील के रूप में देखा जाना चाहिए – लोगों से इस अपील के रूप में कि वे इसे भाषायी दृष्टि से समृद्ध मंच बनाएं। निश्चित रूप से पत्रिका के मुद्रित संस्करण की कमी मुझे खलेगी परंतु मुझे आशा है कि इसके वेब संस्करण से मेरा जुड़ाव बना रहेगा।

(फॉरवर्ड प्रेस के अंतिम प्रिंट संस्करण, जून, 2016 में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

राम पुनियानी

राम पुनियानी लेखक आई.आई.टी बंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।

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