सांप्रदायिक राजनीति अपना एजेंडा लागू करने के लिए अतीत के इस्तेमाल में सिद्धस्त होती है। भारत के मध्यकालीन इतिहास को पहले ही तोड़ा-मरोड़ा जा चुका है। मुस्लिम राजाओं को विदेशी आक्रान्ता व हिन्दुओं के पीड़क के रूप में प्रस्तुत किया जाना आम है। और अब, प्राचीन इतिहास को तोड़-मरोड़ कर ब्राह्मणवाद को बौद्ध धर्म से श्रेष्ठ सिद्ध करने का अभियान चल रहा है।
इस अभियान के अंतर्गत सांप्रदायिक ताकतों ने सम्राट अशोक पर निशाना साधा है। नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के अनुसार, हमारे देश के दो सबसे महान शासक थे अशोक और अकबर। आरएसएस के अनुषांगिक संगठन वनवासी कल्याण परिषद की राजस्थान शाखा के एक प्रकाशन के अनुसार, अशोक के बौद्ध धर्म ग्रहण करने और अहिंसा को बढ़ावा देने से विदेशी आक्रांताओं के लिए भारत पर हमला करना और उस पर विजय प्राप्त करना आसान हो गया। प्रकाशन में यह भी कहा गया है कि अशोक के नेतृत्व में बौद्ध धर्मावलंबियों ने राष्ट्रविरोधी भूमिका अदा की। उन्होंने यूनानी आक्रांताओं की मदद की ताकि वे ‘‘वैदिक धर्म’’ का नाश कर बौद्ध धर्म को उसकी खोई प्रतिष्ठा फिर से दिलवा सकें। यहां जिसे वैदिक धर्म बताया जा रहा है, वह, दरअसल, ब्राह्मणवाद है।
यह दिलचस्प है कि इस लेख में कहा गया है कि बौद्ध धर्म अपनाने के पहले तक अशोक एक महान शासक थे। इसके विपरीत, अधिकांश इतिहासविदों और चिंतकों का मानना है कि अशोक की वे मानवीय नीतियां, जिन्होंने उन्हें महान बनाया, उनके द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने के बाद ही अस्तित्व में आईं। अशोक के बारे में जो भ्रम फैलाया जा रहा है उसके कई आयाम हैं, जिन्हें ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म की राजनीतिक आवश्यकताओं के अनुरूप गढ़ा गया है। इनमें से बेसिर पैर की एक मान्यता यह है कि भारत हमेशा से राष्ट्र रहा है। तथ्य यह है कि भारत स्वाधीनता संग्राम के दौरान राष्ट्र-राज्य के रूप में उभरा। इसके पहले तक भारत में रियासतें और साम्राज्य थे। इन रियासतों और साम्राज्यों की सीमाएं निश्चित नहीं होती थीं और किसी रियासत या राज्य का आकार उसके शासक के साहस, महत्वाकांक्षा और सैन्य शक्ति सहित अन्य कारकों के आधार पर घटता बढ़ता रहता था। कई बार कुछ शासकों को अपने राज्य से पूरी तरह से हाथ धोना पड़ता था। अशोक के शासन के पहले भी सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया था। उस दौर में राजाओं द्वारा दूसरे शासकों की भूमि को हड़पने के प्रयास बहुत आम थे। प्राचीन भारत में मौर्य एक बड़ा साम्राज्य था।
भारतीय उपमहाद्वीप पर कई राजवंशों का शासन रहा है। परंतु ऐसा कोई शासक नहीं है जिसने आज के संपूर्ण भारत पर शासन किया हो। तो फिर अशोक को निशाना क्यों बनाया जा रहा है? अशोक, मौर्य वंश के शासक बिंदुसार के उत्तराधिकारी थे। चंद्रगुप्त मौर्य ने इस साम्राज्य की नींव रखी थी और अशोक ने कलिंग (आज का ओडिसा) को साम्राज्य का हिस्सा बनाया था। कलिंग के युद्ध में भारी हिंसा हुई थी और इस खून-खराबे ने अशोक पर इतना गहरा प्रभाव डाला कि उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाने का निर्णय ले लिया। इस तरह एक आक्रामक व असंवेदनशील शासक के मानवतावादी व्यक्ति में बदलने की प्रक्रिया अशोक द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने से शुरू हुई। उन्होंने लोगों की भलाई के लिए कई कदम उठाए। ब्राह्मणवादी रूढ़ियों का विरोध किया और अपने महल के दरवाज़े, अपने साम्राज्य के उन लोगों के लिए खोल दिए जिन्हें किसी भी प्रकार की कोई परेशानी थी। बुद्ध की शिक्षाओं से प्रभावित होकर उन्होंने एक ऐसे राज्य का निर्माण किया जो सहृदय और जनता का संरक्षक था।
उनके विचार और उनकी नीतियां उनके शिलालेखों से जानी जा सकती हैं, जो देश के कई हिस्सों में स्तंभों और चट्टानों पर उत्कीर्ण हैं। इन शिलालेखों से पता चलता है कि ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में अशोक ने ऐसी नीतियां अपनाईं जो लोगों के प्रति प्रेम और सहानुभूति से प्रेरित थीं और जिनसे कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। यह महत्वपूर्ण है कि बौद्ध धर्म अपनाने के बाद भी अशोक ने समाज की विविधता को खुले दिल से स्वीकार किया। उनका एक शिलालेख कहता है कि शासक को अपनी प्रजा की आस्थाओं में विविधता को स्वीकार करना चाहिए। उन्होंने बौद्ध धर्म को विश्व धर्म बनाया। उन्होंने अपने विचार तलवार के ज़ोर पर नहीं बल्कि शब्दों और तर्कों से फैलाए। उनका संदेश था कि दुनिया में कष्ट और दुःख कम करने के लिए हमें शांति, सहिष्णुता और खुलेपन की नीतियां अपनानी होंगी। इन कारणों से अशोक को महान बताया जाता है। इसके उलट, लेख में कहा गया है कि अशो क, बौद्ध धर्म अपनाने के पहले तक एक महान शासक थे।
भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में अशोक से बड़े साम्राज्य पर किसी ने शासन नहीं किया। उनका धम्म शासक और प्रजा दोनों के लिए नैतिक संहिता का निर्धारण करता है। अशोक अपने प्रजाजनों से यह अपेक्षा करते थे कि वे भी नैतिकता के पथ पर चलेंगे। उनके शिलालेख 12 में जो लिखा है उसकी प्रासंगिकता आज भी है और हमें उसके शब्दों को याद रखना चाहिए। इस शिलालेख में सार्वजनिक जीवन में सहिष्णुता और सभ्य व्यवहार अपनाने की बात कही गई है। यह शिलालेख ‘‘वाणी के संयम’’, ‘‘अपने धर्म की तारीफ न करने’’ और ‘‘दूसरे के धर्म की निंदा न करने’’ की बात कहता है (सुनील खिलनानी, इंकार नेशन्सः इंडिया इन 501 लाईव्स, पृ. 52)। ‘‘उन्होंने बौद्ध धर्म को अपने प्रजाजनों पर नहीं लादा। उनकी शांति, दूसरों पर आक्रमण न करने और सांस्कृतिक विजय की नीतियों के कारण वे एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक चरित्र हैं’’ (आरएस शर्मा, एन्शियेंट इंडिया, एनसीईआरटी, 1995, पृ. 104)। वे उसी सांस्कृतिक व राजनीतिक बहुवाद के प्रतीक थे जो गांधी और नेहरू की विचारधारा के केंद्र में थी। चार सिंहों का उनका प्रतीक, भारतीय मुद्रा में अंकित है और उनका चक्र, भारतीय राष्ट्रीय ध्वज का भाग है।
अशोक के शासन को कभी कोई सैन्य चुनौती नहीं मिली। वे 50 से भी अधिक वर्षों तक शासक रहे। 205 ईसा पूर्व में यूनानी सम्राट एन्टियोकस ने उत्तर-पश्चिम से आक्रमण किया और पंजाब व अफगानिस्तान सहित कुछ उत्तर-पश्चिम हिस्सों पर कब्ज़ा कर लिया। अशोक को असली चुनौती बाहरी आक्रांताओं से नहीं बल्कि उनके साम्राज्य के अंदर से मिली। बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रसार पर ब्राह्मणवादी प्रतिक्रिया उनके लिए सबसे बड़ी समस्या थी। अशोक ने धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान जानवरों की बलि देने पर प्रतिबंध लगा दिया था। इससे ब्राह्मणों की आय में कमी आई। बौद्ध धर्म के प्रसार के कारण वर्ण और जाति व्यवस्था कमज़ोर पड़ी। जिस धार्मिक धारा को सांप्रदायिक ताकतें वैदिक धर्म बता रही हैं वह दरअसल तत्समय में प्रभावकारी ब्राह्मणवाद था।
इन कारकों के चलते अशोक के साम्राज्य में प्रतिक्रांति हुई। प्रतिक्रांति का नेतृत्व किया अशोक के पोते बृहद्रथ के सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने, जो कि एक ब्राह्मण था। उसने सम्राट को मौत के घाट उतार दिया और अशोक के साम्राज्य के सिंध के हिस्से में शुंग वंश के शासन की स्थापना की। इस प्रतिक्रांति के परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म उसके मूल देश से गायब हो गया। अंबेडकर लिखते हैं, ‘‘सम्राट अशोक ने जानवरों की बलि देने पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया। इसके कारण लोगों ने धार्मिक कर्मकांड संपन्न करवाने के लिए ब्राह्मणों को बुलाना बंद कर दिया। ब्राह्मण पुरोहित बेरोज़गार हो गए। उनका महत्व और सम्मान भी कम हो गया। इसलिए ब्राह्मणों ने मौर्य सम्राट बृहद्रथ के विरूद्ध पुष्यमित्र शुंग के नेतृत्व में विद्रोह किया। शुंग एक सामवेदी ब्राह्मण था और बृहद्रथ की सेना का सेनापति भी’’ (राइटिंग एंड स्पीचेस, खंड-3, पृ. 167)।
आठवीं शताब्दी के बाद से शंकर ने बुद्ध की विचारधारा के खिलाफ वैचारिक लड़ाई जारी रखी। बुद्ध कहते थे कि यही दुनिया असली दुनिया है और हमें इसी पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। शंकर कहते थे कि यह दुनिया एक माया है। शंकर की विचारधारा ने अंततः ब्राह्मणवाद को देश में पुनर्स्थापित कर दिया और 1200 ई. के बाद बौद्ध धर्म यहां से पूरी तरह गायब हो गया। फिर अशोक के शासनकाल को आलोचना का विषय क्यों बनाया जा रहा है? अशोक के बौद्ध धर्म अपनाने से ब्राह्मणवाद को बहुत बड़ा धक्का लगा। ब्राह्मणवाद, हिंदू धर्म पर हावी था। अशोक, अहिंसा और बहुवाद में विश्वास करते थे। ये दोनो ही मूल्य हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे के खिलाफ हैं, जिसकी राजनीति का हिंसा अभिन्न भाग होती है। हिंदू राष्ट्रवादी भी ब्राह्मणवादी मूल्यों को बढ़ावा देना चाहते हैं। तो जहां एक ओर दलितों को संघ परिवार के झंडे तले लाने के प्रयास हो रहे हैं, वहीं बौद्ध धर्म पर हल्ला बोला जा रहा है और सामाजिक पदक्रम को बनाए रखने के सघन प्रयास हो रहे हैं। बौद्ध धर्म जातिविहीन समाज का प्रतीक था। वह बहुवाद और शांति का पैरोकार था। हिंदू राष्ट्रवादियों द्वारा अशोक पर हमला, दरअसल, इन्हीं मूल्यों पर हमला है। यह कहा जा रहा है कि अशोक के बौद्ध धर्म ग्रहण करने से ‘भारत’ कमज़ोर हुआ। सच यह है कि उस समय भारत अस्तित्व में ही नहीं था। मौर्य एक साम्राज्य था राष्ट्र-राज्य नहीं। साम्राज्य बनते-बिगड़ते रहते हैं। अहिंसा की नीति अपनाने के बाद भी मौर्य साम्राज्य 50 वर्षों तक बना रहा। उसे कमज़ोर किया ब्राह्मणवादियों ने। प्राचीन भारत के इतिहास के लेखन के काम में संघी इतिहासविदों की घुसपैठ का लक्ष्य अशोक और उन जैसे अन्य शासकों के महत्व को कम करना और उन्हें बदनाम करना है। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
अशोक सम्राट,उनकी शासन निति व भारतीय संविधान
‘हर युग हर राष्ट्र में ऐसे सम्राट पैदा नहीं होते । विश्व के महानतम इतिहास में सम्राट अशोक जैसे महान प्रतापी सम्राट अन्यत्र नहीं
(प्रसिद्ध इतिहासकार एच जी वेल्स)
दिव्यावदान के अनुसार अशोक की माँ का नाम सुभद्रागी(धर्मा) है। वह अंग की राजधानी चम्पा के एक द्रोण की कन्या थी। वह अत्यन्त सुन्दर,शील-प्रज्ञा सम्पन्न थी, इसलिए महाराज बिन्दूसार ने अपनी महारानी बना लिया ।
===अशोक का जन्म===
चेत्तमासे सुक्क-अष्टमी दिवसे उप्पज्जित्वा,
यस्सेसो दुल्लभो लोकों,पातुभावो अभिण्हसो ।
असोको आसि तेसं तु पुयातेजबलोद्धिको ।। (उत्तरविहारट्टकथायं-थेरमहिंद)
युवराज पुत्र अशोक का जन्म लगभग 305 र्इ0पू0 चैत्रमास, शुक्ल पक्ष अष्टमी को हुआ था। संसार में जिनका प्रादुर्भाव सदा दुर्लभ है, जिनमें राजकुमार अशोक पुण्य तेज बल ऋद्धि सम्पन्न है । इसी वर्ष 305 र्इ0पू0 उनके दादा-सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने सीरिया के राजा सेल्युकस को हराकर सीरिया के अधीन चार, राज्य (हेरात, कदहार, वलुचिस्तान, हिमप्रदेश) को जीत कर भारत में मिला लिया। यह राजकुमार अशोक के जन्म की मंगल घटना थी।
===अशोक का साम्राज्य===
अशोक का साम्राज्य उत्तर में हिमालय की पर्वत श्रेणीयों से दक्षिण में गोदावरी तक, पूर्व में बगाल से, पशिचम में आफगानिस्तान तक विस्तृत होना, जो भारत में अब तक सबसे बड़ा साम्राज्य माना जाता है। यह अशोक की वीरता और पराक्रम का पर्याय था।
विश्व विजेता अशोक का मौर्यसाम्राज्य ।
2300 वर्षो से अधिक वर्ष पहले भारत के उस महान सम्राट ने उस प्राकृतिक सीमा को प्राप्त किया जिसके लिए अंग्रेज तरसते रहे और जिसे मुगल सम्राट भी प्राप्त करने में असमर्थ रहे । कहा जाता है,कि सम्राट अशोक के समय ‘मौर्य साम्राज्य का सूर्य कभी अस्त न हुआ। इतने बड़े भू-भाग पर राज्य करने के कारण सम्राट अशोक को विश्वविजेता के रूप में देखा जाता है ।
‘===कलिग युद्ध===’
कुछ भारतीय इतिहासकारों का मत है कि कलिग युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने भगवान बुद्ध की शिक्षा के अनुसार शासन किया इस लिए उनके साम्राज्य का पतन हो गया, लेकिन यह सब कल्पना व कलुषित मानसिकता की बाते है। जिन इतिहासकारो ने अशोक के बारे में यह सब लिखा है, तो उन तमाम इतिहासकारो को उनके अभिलेखो का ध्यान से अध्ययन करना चाहिए।
राज्याभिषेक से सम्बनिधत ‘मास्की के लघु शिला लेख’ में
अशोक ने अपने को ‘बुद्धशाक्य कहा और वह इस मौर्य वंश का महान व प्रतापी सम्राट होने की इच्छा जाहिर की है। अशोक का विधिवत राज्यभिषेक 269 र्इ0पू0 में हुआ । जब कि राज्याभिषेक के 8वे वर्ष 261 र्इ0पू0 में अशोक द्वारा कलिग युद्ध किया गया । अर्थात एक ‘अरियधम्मिकोसम्राट होते हुए अशोक ने कलिग विजय की ।
(गौणशिला प्रज्ञापन-।)
कुछ ना समझ लोगों ने यह बात फैलानी शुरू कर दी है, कि बुद्ध की अहिसापरक शिक्षा से भारत देश दुर्बल हो गया। वस्तुत: यह मिथ्या बात तब प्रचलित हुइ जब कि देश से बुद्ध की मूल वाणी का नामोनिशान मिटाया गया था । भगवान बुद्ध ने किसी राज्य या देश को अजय रहने के लिए ‘सात अपरिहार्य नियम बताये । जिसका पालन करते हुए लिच्छवीय गणराज्य बहुत समय तक अजय बना रहा । (महापरिनिब्बानसुत्त)
===अशोक भगवान बुद्ध की शिक्षा का वास्तविक अनुयायी===
कलिग-युद्ध के उपरान्त अशोक भगवान बुद्ध की शिक्षा का वास्तविक अनुयायी वन चुके थे । वह भला सेना व शस्त्रों को कैसे त्याग सकते थे ? उलटें भगवान बुद्ध की शिक्षा के अनुसार उन्होंने प्रबल सेना रखी परन्तु उसका उपयोग अपने देश की भितरी व बाहरी सुरक्षा के लिए किया न कि पड़ोसी देशों पर आक्रमण करने के लिए । अपने देश की अखण्डता एवं स्वतंत्रता पूर्ण रूप से कायम रखी । कलिग युद्ध के बाद वह मृत्यु पर्यन्त 40 वर्ष तक राज्य करते रहे । इतने लम्बे समय तक कोर्इ विदेशी दुश्मन देश की एक इंच भुमि न ले सका ।अशोक ने देश की स्वतंत्रता पर जरा भी आच नहीं आने दी । क्या यह सब सेना व शस्त्र त्याग करने से सम्भव होता ? यही नहीं उन्होंने अपने शिलालेख में आने वाली पिढि़यों को यही संदेश दिया। देवताओं के प्रिय राजा अशोक ने कहा-ऐ मेरे पुत्रो, पोतो, परपोतो और आने वाली पीढि़या ‘आर्यधम्म शासन का पालन करे । यदि वे ऐसा करते है, तो कल्प के अन्त तक पुण्य को प्राप्त करेगे ।
(शिलालेख मानसेहरा-पाकिस्तान)
अब यदि कोर्इ शिक्षा का पालन ठीक प्रकार से ना करे तो इसके लिए शिक्षा को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। सम्राट अशोक इस बात को अच्छी तरह समझाते थे कि हमारे न रहने पर हमारे नितियों व शिक्षाओं को दुषित व भुला दिया जायेगा । इसलिए उन्होंने ने वृहद पैमाने पर अभिलेख लिखवाये जो कार्य उन्होंने जनता व विश्व के कल्याण के लिए किया । यही अभिलेख साहित्य संविधान है और उनकी आचार सहिता भी । जो आज 2300 वर्षों बाद जीवन्त है ।
अब सवाल उठता है कि भगवान बुद्ध की यह अहिसापरक शिक्षा है क्या ?
धर्मराजा अशोक कहते है उनका शिलालेख कहता है कि मुझसे पहले इस देश में बहुत से राजा हुए और सभी राजा चाहते थे कि मेरी प्रजा सुखी रहे, निर्भय रहे (अकारण प्राणी हिसा ना हो), झुठ (ठग) ना हो व्यभीचार -दुराचार ना हो, चोरी नाशाखोरी ना हो, मेरी प्रजा में धर्म हो,मेरी प्रजा शानित से रहे, बड़ो का सम्मान हो, छोटों से प्यार हो, परस्पर लड़ार्इ-झगड़े न हो । ऐसा सब चाहते थे । (स्वभाबिक है आज के भारत में भी ऐसा सभी विद्वान लोग चाहते है । हमारा भारतीय संविधान चाहता है।) शिलालेख कहता है कोर्इ सफल नहीं हुआ फिर कहते है मैं सफल हुआ । शिलालेख का लेख है, इतिहास साक्षी है। कैसे सफल हुआ ? उनका भाग्य जागा भगवान बुद्ध की शिक्षा विपश्यना विधा के सम्पर्क में आये, एक संत भिक्खु ‘मोग्गलिपुत्ततिस्स के सम्पर्क में आये । विपश्यना करते-करते गहराइयों में पहुँचने पर धर्म का एक स्वभाव प्रकट होने लगता है ‘ऐहिपासिसको- ऐहिपासिसको आओ तुम भी करके देखो-आओ तुम भी करके देखो शुद्ध वैज्ञानिक बात है ।शिक्षा का यह व्यवहारिक स्वभाव इस सम्राट में जागा तो उन्होंने कहा-
कोअरिन यदा पयया पस्सतित ।
तेन होति कोअरियानं, सब्बदुक्खापमुच्चति ।। (उत्तरविहारट्टकथायं-थेरमहिंद)
कौन शस्त्रु (हिसा, चोरी, झुठ, व्यभीचार, आसक्ति ) ऐसा प्रज्ञा से देखाने वाला ‘कोअरि है, वह सभी दुक्खों से मुक्त हो जाता है । तब ऐसी अवस्था में अपने आपको ‘कोअरिय(जो आर्य हो) कहा आज वहीं अपभ्रस होकर ‘कोइरी हो गया । उन्होंने गहरार्इ से राज धर्म को समझा कि राजा की सन्तान होती है प्रजा । अरे इनको ये शिक्षा (धर्म) मिल जाये इनको ये विपश्यना विधा मिल जाये तो कितना बड़ा लोक कल्याण हो जायेगा । देश में मनुष्य-मनुष्य में भेद चलता है, सम्प्रादय-सम्प्रदाय में झगड़े चलते हैं, दूर हो जायेगे । यदि ये शुद्ध शिक्षा, धर्म विपश्यना विधा सारे लोक में फैले । तो शिलालेख कहता है कि मैं क्यों सफल हुआ । एक तो उन्होंने आमात्य बनाये और उनका कार्य था देश में घुम-घुम कर बुद्ध की कल्याणकारी शिक्षा को प्रचार करे और विपश्यना-साधना सिखाये । उसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा-
मुनिसानं….धम्मवढि़ता…..अकालेहि धम्मनियमेन
तत चु लहु से धम्मनियमेन निझतिया च व भुये । (शिलालेख-देल्ही सप्तम)
अर्थात-मनुष्यों में जो धर्म की बढ़ोतरी हुर्इ है, वे दो प्रकार से है। इस समय धर्म के नियम पालन से दूसरा ध्यान (विपश्यना ) से कही ज्यादा दिखार्इ पढ़ता है । समाज में फैली तमाम बुरार्इया अपने आप खत्म होती गर्इ । बड़े पैमाने पर विहार, स्कुल विश्वविधालय, सड़क अस्पताल, आदि की स्थापना कर मानवीय सवेदनाओं से आते-प्रोत जितने भी कार्य थे सब उन्होंने अपने कार्यकाल में लागु किया । आज उन्हीं का अनुसरण हमारा भारतीय संविधान व सयुक्त राष्ट्र संघ कर रहे हैं ।
इस भारत देश से मौर्यसाम्रज्य और बुद्ध धम्म संघ का विनाश का मुख्य कारण मनुवादी सदिश के तहत भारतीय धर्म संसकृति पर मेसोपोटामिया की सभ्यता से आये विदेशी विदिको का आक्रमण था …………….. जिसने मौर्यसाम्रज्य को आतारिक संयन्त्र के तहत भारतीय आतारिक सुरक्षा को भेद कर राष्ट्र द्रोह का घृणित कार्य किया …………….
इतिहासकारों ने मौर्य वंश के पतन के लिए तो बौद्ध – धर्म को जिम्मेवार बताया है ,और ये विदेशी वैदिको बनाम ब्राह्मण ने मौर्य राजाओ की पिठ पिच्छे हत्या करवाई और मूल भारतीय संस्कृति को नष्ट कर दिया …
बाद के शुंगवंश, गुप्त वंश,पंडय,चोल,राजपूत के पतन के लिए विदेशी वैदिक धर्म को जिम्मेवार नहीं बताया है । ये तो बौद्ध नहीं थे………
भाई ! राष्ट्रीय एकता की जगह जाति – पाँति फैलाइएगा , अश्वमेध यज्ञ रचाइएगा , सती के नाम पर स्त्रियों को जलाइएगा और इमारत के नाम पर सिर्फ मंदिर बनाइएगा तो साम्राज्य का पतन तो होगा ही ।
इसके लिए विदेशी वैदिक – धर्म न जिम्मेवार है ?
विदेशी वैदिक बनाम आरएसएस बनाम बीजेपी ………..आज वाही तांडव मचा रहे ……..इनकी सकता अगर फिर आएगी …….देश को गुलाम होने से कोई रोक नहीं सकता …………..इसका असर इतिहास साक्षी है .की….sc st obc पर होता ……….
ये सदियों से हमें भरमाते आये है और हमारे भोले भाले लोग इनकी चंगुल में फसकर आपना अमंगल कर लेते है ……..मेरी यही मगल कामना है की हमारे लोगो में ज्ञान जगे प्रज्ञा जगे ……..जिससे उनका मगल हो …..सबका मंगल हो………….जय भारत ………….
बस मै आपने भाई बंधुवो से अनुरोध करूँगा की वो अपनी इतिहास .सभ्यता संस्कृति को पहचाने …..संगढ़ित होए …आपनी शासन सकता आपने हाथ में ले …. और देश समाज को ….विकाश कीओर लेजाये …….जय भारत
इतना झूठ वो भी इतनी बेशर्मी के साथ कैसे बोल लेते हो भाई ?
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आप से विनम्र निवेदन है की इस लेख को आप प्रकाशित कर सके तो आप का आभार होगा
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सिद्धार्थ वर्धन सिंह मोबाइल नो ० –09473529020
सिद्धार्थ वर्धन सिंह जी, कृपया प्रकाशनार्थ लेख फॉरवर्ड प्रेस संपादक श्री प्रमोद रंजन के नाम इस ईमेल आईडी पर भेजें : editor@forwardpress.in
अशोक ने कभी बौद्ध धर्म नहीं अपनाया, हिन्दू समाज को बांटने के लिए अंग्रेजों ने इतिहास बदला
मौर्यवंश के सभी शासक हिन्दू थे, अशोक भी| अंग्रेजों और बौद्धों की झूठी बातों पर ध्यान देने के बदले अशोक के शिलालेख पढ़े जायं, रोमिला थापर की पुस्तक में मिल जायेंगे | पेशावर का एक ग्रीक राजा मिनांदर बाद में बौद्ध बना, वरना भारत का कोई भी राजा कभी भी बौद्ध नहीं बना | किन्तु बौद्ध भिक्षुओं का भी सम्मान होता था, यही तो हिन्दुओं का स्वभाव रहा है
मिनांदर के बारे में भी बौद्ध स्रोत कहते हैं कि वह बौद्ध बन गया था , किन्तु दो इंडो-ग्रीक राजाओं (मीनराज तथा स्फुटिध्वज) ने ज्योतिष के ग्रन्थ संस्कृत में लिखे जिसका दर्शन 100% सनातनी है |
इसका कोई प्रमाण नहीं है कि अशोक ने बौद्ध धर्म को अपनाया | सनातन धर्म से घृणा करने वाले अंग्रेजों ने जानबूझकर हिन्दू समाज को बाँटने के लिए कई हथकण्डे खोजे, जिनमे एक हथकंडा यह भी था कि बौद्धमत को बढ़ावा दिया जाय और हिन्दुओं से लड़ाया जाय | मैं पुनः कहता हूँ कि अशोक के शिलालेख पढ़ लें, “बौद्ध” शब्द ही नहीं मिलेगा, सर्वत्र “ब्राह्मणों और श्रमणों” के लिए विशेष सम्मान और छूटों का उल्लेख है |
“श्रमण” का अर्थ जानबूझकर अंग्रेजों ने “बौद्ध” लगाया, जबकि ब्राह्मण का शास्त्रीय अर्थ होता है “ब्रह्म-प्राप्त ज्ञानी व्यक्ति” और श्रमण का अर्थ है श्रम अर्थात तपस्या में रत व्यक्ति जो तत्कालीन 65 सम्प्रदायों में से किसी भी सम्प्रदाय का हो सकता था |
उन 65 में से एक सम्प्रदाय बौद्धों का भी था | बौद्धमत एक पृथक religion था ही नहीं | बौद्धों के मूल ग्रन्थ हैं त्रिपिटक, उनमें भी अशोक के शिलालेखों जैसी ही भाषा है : सच्चे ब्राह्मणों की सर्वत्र प्रशंसा गौतम बुद्ध ने भी धम्मपिटक में की और लोभी ब्राह्मणों की निन्दा की, किन्तु ऐसा तो वेदव्यास जी ने भी किया |
गीता में श्रीकृष्ण भी कहते हैं कि अत्यधिक तप द्वारा शरीर को नष्ट करना पाप है, किन्तु प्राणायाम, व्रत आदि तप की बड़ाई भी की | यही तो गौतम बुद्ध का भी मध्यम मार्ग है | फिर गौतम बुद्ध ने ऐसी कौन सी नयी बात कही कि उनके मत को सनातन धर्म से पृथक religion माना जाय ?
गौतम बुद्ध ने कब कहा कि वे कोई नया धर्म या religion आरम्भ कर रहे हैं ? प्राचीन ऋषियों की भांति बुद्ध और तीर्थंकरों ने केवल “धर्म” का प्रचार किया, वैदिक धर्म या बौद्ध धर्म या जैन धर्म का नहीं |
आधुनिक काल में भी बहुत से विद्वानों ने इस तथ्य को पकड़ा है और संसार के सम्प्रदायों को दो किस्मों में बाँटा है : धार्मिक और अधार्मिक, हिन्दू(सनातन)-बौद्ध-जैन मतों को धार्मिक-सम्प्रदाय माना गया और यहूदी-ईसाई-इस्लाम आदि को अधार्मिक क्योंकि उन सम्प्रदायों में धर्म के मूल लक्षणों का कोई महत्त्व ही नहीं है (धर्म के मूल लक्षण हैं :– धैर्य, क्षमा-दम-अस्तेय-शौच-इन्द्रियनिग्रह-धी-विद्या-सत्य-अक्रोध) |
मेगास्थानीस का इन्डिका इन्टरनेट पर मुफ्त में मिल जाएगा | कलिंग के तीन भाग थे जिनमे हिमालय की तराई से दक्षिण तक के सारे गणतन्त्र थे | “क” का अर्थ यास्क ने बताया 33 व्यंजनों द्वारा प्रदर्शित 33 कोटि (किस्म) के देवताओं में प्रथम देवता परब्रह्म, जो कभी प्रकट नहीं होते किन्तु उनके तीन चिह्न (लिंग) प्रकट होते हैं : ब्रह्मा-विष्णु-महेश |
यह है त्रि-कलिंग जिसका विस्तार से वर्णन मेगास्थानीस ने किया | चाणक्य ने भारतीय गणराज्यों का महासंघ बनाया और मगध के अत्याचारी एवं देशद्रोही राजा को हटाकर मगध को भी उस संघ में ले आये, जिसे अंग्रेजों ने झूठ-मूठ मौर्य साम्राज्य कहा | चन्द्रगुप्त मौर्य साम्राज्यवादी नहीं थे | उन्होंने जीवन में तीन ही युद्ध लड़े —
(1) सिकन्दर से युद्ध जिसका उल्लेख प्राचीन भारतीय साहित्य में है किन्तु अंग्रेजों ने साफ़ अनदेखा कर दिया, क्योंकि सिकन्दर भारत में अनेकों गणराज्यों और राजाओं से युद्ध में हारकर भागा था और सिन्धुतट पर लगे घाव के कारण ही बेबीलोन पँहुचने से पहले ही रास्ते में मारा गया यह बात यूरोपियन “विद्वानों” को रास नहीं आयी जो आज भी सिकन्दर को झूठ-मूठ विश्व-विजेता कहते हैं |
(2) नन्द से युद्ध जिसमें बहुत से राजाओं और गणराज्यों ने साथ दिया, और
(3)आक्रमणकारी सेल्यूकस से युद्ध, जिस कारण मगध साम्राज्य ईरान की सीमा तक फैल गया |
चन्द्रगुप्त मौर्य या उसके पुत्र ने कभी अन्य कोई युद्ध लड़ा ही नहीं | फिर दक्षिण भारत पर मौर्यों का कब्जा कैसे और कब हो गया, जैसा कि इतिहास का कबाड़ा करने वाले कबाड़ी इतिहासकार पढ़ाते हैं ?
समाधान है मेगास्थानीस का इन्डिका : जिस कलिंग महासंघ ने चन्द्रगुप्त को गद्दी पर बिठाया, उसके विरुद्ध चन्द्रगुप्त क्यों लड़ता ? और वह महासंघ भी चन्द्रगुप्त को बाहरी व्यक्ति क्यों समझता ?
किन्तु जिस अशोक ने भाइयों को भी जिन्दा नहीं छोड़ा, वह एकछत्र अधिनायकवादी अधिनायकवादी साम्राज्य की लिप्सा में अन्धा होकर कलिंग संघ को क्यों छोड़ता ? मगध राज्य ईरान की सीमा तक फैल गया था, उसके समक्ष कलिंग टिक न सका | पहले सैनिकों को मारा | फिर सारे युवक लड़ने आये, मारे गए | फिर गुरुकुलों के गुरु और शिष्य आये, मारे गए — अनगिनत ब्रह्महत्याएं हुई |
फिर नारियाँ आयीं, कलिंगसेना के नतृत्व में (गणराज्यों के अध्यक्ष भी राजा कहलाते थे ; कलिंगसेना वैसी ही राजकुमारी थी जैसे कि सिद्धार्थ शाक्य गणराज्य के राजकुमार थे, उन्हें कोई गद्दी उत्तराधिकार में मिलने नहीं जा रही थी) | पहले तो अशोक ने ना-नुकुर किया, उसके बाद जो किया वह महिषासुर के सिवा पूरे विश्व इतिहास में किसी और ने नहीं किया, किसी राक्षस ने भी नहीं |
अंग्रेजों को केवल “अशोक” ही प्राचीन भारत में “महान” दिखा, क्योंकि सनातनी साहित्य में अशोक को महत्त्व नहीं दिया गया, अशोक कुख्यात हो चुका था | उसने बौद्धों को अपने पक्ष में करने की चाल चली – कलिंग युद्ध के दो साल बाद उसका हृदय “पिघला” !
किन्तु मौर्यों का वंश जनता की दृष्टि में राज करने का नैतिक अधिकार खो चुका था | यही कारण है कि पूरी सेना के समक्ष सेनापति पुष्यमित्र ने मौर्य सम्राट का वध किया तो एक भी सैनिक या नागरिक ने सम्राट की ओर से विरोध नहीं किया, किसी बौद्ध ने भी मुँह नहीं खोला, क्योंकि भारतीयों (हिन्दुओं-बौद्धों-जैनों) के हृदय से धर्म का लोप नहीं हुआ था |
महाभारत में व्यास जी ने बारम्बार कहा कि जो धर्म की रक्षा करते हैं धर्म भी उन्हीं की रक्षा करता है | मौर्यों का धर्म चुक गया था |
मैं लगभग तीस साल पहले के अध्ययन और शोध के आधार पर यह सब लिख रहा हूँ | अब इन कार्यों के लिए मेरे पास समय नहीं है | सन्देह हो तो केवल तीन चीजों का अध्ययन कर लें :– धम्मपिटक, मेगास्थानीस का इन्डिका, अशोक के शिलालेख, और सम्भव हो तो विशाखदत्त का संस्कृत नाटक “मुद्राराक्षस” भी पढ़ लें जिसका हिंदी अनुवाद 91 वर्ष पहले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने किया था |
कैसे चन्द्रगुप्त मौर्य ने अकेले सिकन्दर की लाखों की सेना में घुसकर उसे नीचा दिखाया था यह आपको सेक्युलर इतिहासकार नहीं बताएँगे, वे तो चन्द्रगुप्त मौर्य को भी हिन्दू नहीं बल्कि जैन बतायेंगे, जबकि उस काल में सनातनियों और जैनों में परस्पर पृथक religion वाली कोई भावना भी नहीं थी, और चाणक्य के आज्ञाकारी शिष्य ने कभी जैन मत अपनाया इसका प्रमाण भी नहीं है |
चन्द्रगुप्त मौर्य ने वर्णाश्रम धर्म के प्राचीन नियम का पालन करते हुए संन्यास लिया तो उसे म्लेच्छों ने जैन घोषित कर दिया !
कोई व्यक्ति बौद्ध बन जाए किन्तु भिक्षु न बनकर सिंहासन से चिपका रहे, या कोई व्यक्ति जैन बन जाय किन्तु दिगम्बर या श्वेताम्बर साधु न बनकर दूकानदारी चलाता रहे या राजा बना रहे — प्राचीन भारत में यह अकल्पनीय था, यह भी अकल्पनीय था कि कोई ब्राह्मण खेती करे या दूकान खोल ले |
प्राचीन भारत में कोई राजा बौद्ध या जैन हो ही नहीं सकता था | ऐसी असम्भव कल्पनाएँ दासता के युग की खोजें हैं | किन्तु ब्राह्मण को यह छूट थी कि आपातकाल में वह अन्य वर्णों के कार्य करे |
अतः पुष्यमित्र शुंग ने यवन खतरे से देश को बचाने के लिए गद्दी सम्भाली और दीर्घकाल के बाद भारत में अश्वमेध यज्ञ हुआ तो कोई अनुचित कार्य नहीं हुआ क्योंकि मौर्य राजा नालायक था, यही कारण है कि किसी ने विरोध भी नहीं किया | उनके पुत्र अग्निमित्र को कालिदास ने एक नाटक का मुख्य पात्र भी बनाया |
सेक्युलर इतिहासकार “सबूत” यह देते हैं कि श्रवण-बेलगोला में 600 ईस्वी का अभिलेख मिला जिसमे भद्रबाहु और “चन्द्रगुप्त-मुनि” का वर्णन है | बाद के भी कुछ अभिलेखों में ऐसा उल्लेख है |
किन्तु यही मुनि मौर्य-सम्राट चन्द्रगुप्त थे ऐसा स्पष्ट उल्लेख 1432 ईस्वी के अभिलेख से पहले कहीं नहीं मिलता | 1432 ईस्वी के जैन अभिलेख को उससे 1729 पहले की घटना का प्रमाण किस आधार पर माना जाय? समकालीन अभिलेख को प्रमाण माना जाता है |
आज से एक हज़ार वर्ष पहले वहाँ जैन मठ की स्थापना हुई, बाद में बाहुबली की विशाल मूर्ति स्थापित हुई, और पाँच सौ वर्ष बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के जैन मुनि होने का अभिलेख बनाया गया |
चन्द्रगुप्त मौर्य जबतक सम्राट थे तबतक “मुनि” नहीं थे, और उस युग में जैन बनने का अर्थ ही था मुनि बनना, आजकल की तरह नहीं कि जैन भी हैं और दूकान भी खोले हुए हैं | मेरी बात बुरी लगे तो मैं क्या करूँ, कई बार सत्य अप्रिय हो सकता है किन्तु सत्य कभी भी अपकार नहीं करता |
ये सेक्युलर इतिहासकार भी कहते हैं कि चन्द्रगुप्त स्वेच्छा से गद्दी त्यागते समय “सम्भवतः” जैन बन गया | यदि यह सत्य है तो भी जबतक वह राजा था तबतक सनातनी था न !
Aap ne itihash Pandito ka pada hai
Aap ek bar badiya se jankari prapt kare please
Bhai yaha par manu smriti mat likho .jo man me aaya vo likh diya brahmadwad ek jahar hai jo sanatan dharm ko hindu dharm me parivartit kr diya h.tumhare comment se a
Aisa lagta h ki dunia me sab jhuthe hai siwai brahmad ke.baudh dharm ki sthapna islea kiya gya tha kueki usme koi jati nhi hota aur sb ek saman hote h (jaisa aaj ke samvidhan me h ) sb sirf or sirf baudh kahlate hai.aur hindu me dekho brahmano ka divide and rule .ithihas gawah hai ki maximum general caste ke log hi desh drohi bane h.sirf or sirf virta ki ding hakte h vo bhi jhutha kue ki jab muslim sasako ne chaap chadhai unpar to vo apni bahu betio ko unke ghar shadi kr ke bhej diya.tb unki veerta kaha gai thi aan baan shan pr mar mitne wale ,hindu sirf ek brahmadwad hai aur kux nhi ,yadi hm ye sab describe karne lage to khatam hi nhi hoga ,islea ithas ko chhed chhad karna band karo .