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दलितों पर अत्याचार : दबे-कुचले वर्ग पर डर बनाए रखने का कुकृत्य

यह एक अच्छी खबर है कि बनाये जा रहे खौफ के खिलाफ दलितों ने प्रतिरोध किया है। गुजरात में दलितों ने मारी गायों को कई जिला मुख्यालयों पर लाकर रख दिया कि इन्हें अब तुम्हीं ठिकाने लगाओ, जब हमारे लोग इस तरह सरेआम पीटे जा रहे हैं। यह प्रतिरोध की अच्छी शुरुआत है

Ahmedabad: Women members of Dalit Community carry a portrait of BR Ambedkar as they block the traffic during a protest in Ahmedabad on Wednesday against the assault on dalit members by cow protectors in Rajkot district, Gujarat. PTI Photo (PTI7_20_2016_000313B) *** Local Caption ***

2014 के चुनाव में कांग्रेस विरोधी हवा और मोदी के बड़े-बड़े वादों से प्रभावित हो कर दलित समाज के पढ़े-लिखे हिस्से ने भारतीय जनता पार्टी को समर्थन दिया था। इसी से उत्साहित हो कर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के मार्गदर्शन में भाजपा ने नियोजित रूप से दलितों को अपने साथ जोड़ने की मुहीम शुरू की। सरकार के रणनीतिकारों की समझ में नहीं आ रहा है कि दलित समुदाय के भीतर भारतीय जनता पार्टी की पहुँच किस तरह बढ़ाई जाए। सरकार बनने के कुछ ही महीने बाद संघ के सरसंघचालक ने अनुसूचित जातियों को आरक्षण का खुला समर्थन किया, हिंदुत्ववादियों ने डॉ आंबेडकर को सार्वजिनक मंचों पर अपना आदर्श-पुरुष बताना भी शुरू कर दिया। संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ ने आंबेडकर के विचारों पर 100 पन्नों का विशेषांक भी निकाल डाला। दलितों पर होने वाले अत्याचारों पर शिकंजा कसने की बात बार-बार सरकार द्वारा दोहराई तो जरूर किंतु ऐसा हुआ कुछ भी नहीं किया। जाहिर है लगता है कि शायद सियासत का पहला तकाजा है कि सत्ता पर काबिज होने के बाद हर राजनीतिक दल अपने चुनावी वादों को भुला देती है।

माना कि दलितों पर अत्याचार की घटनाएं सदियों से होती आ रही हैं, किंतु केन्द्र में भाजपा की सरकार आने के बाद  पिछले दो सालों में दलितों पर अत्याचार की घटनायें बढ़ी हैं। शासन-प्रशासन की अनदेखी के चलते सभी मामले प्रकाश में नहीं आ पाते, केवल कुछ ही मामले सामने आते है, क्योंकि कई मामले में पुलिस मामले दर्ज ही नहीं करती।

कुछ महीनों/दिनों पहले की खबर है कि उड़ीसा में 8 जुलाई को दो आदिवासी महिलाओं और उनके गोद में दो साल के बच्चे को सुरक्षा बलों नें गोली से उड़ा दिया। छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बलों के ऊपर आरोप है कि उन्होंने 13 जून 2016 को आदिवासी युवती मड़कम हिड़मे से बलात्कार करने के बाद उसकी योनी में चाकू डाल कर नाभी तक चीर दिया।अक्तूबर 2015  में  फरीदाबाद के सुनपेड़ गांव में दो दलित बच्चों की हत्या कर दी गई। मीडिया ने इस घटना को गंभीरता से लिया जिसकी वजह से प्रशासन से लेकर सरकार तक, सबको तुरंत कर्रवाई करनी पड़ी। अन्यथा हमारे देश में रोज ऐसी घटनाएं होती रहती हैं, लेकिन इन घटनाओं पर न प्रशासन जागता है न ही सरकार। हरियाणा के एक गांव में तब तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई, जब कथित ऊंची जाति के कुछ लोगों ने एक दलित दूल्हे को उसकी बारात में उसे घोड़ा बग्गी पर चढ़ने से रोक दिया और बाराती और पुलिस दल पर पथराव किया।

दिसंबर 2015 में ही ओडिशा के दो युवकों के हाथ इसलिए काट दिए गए क्योंकि उन्होंने ईंट भट्टे पर काम करने से इनकार कर दिया था। इस मामले में नामज़द व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा कर दिया गया है, लेकिन पीड़ितों को अब भी इंसाफ़ का इंतज़ार है। लेकिन भारत में यह ऐसा पहला मामला नहीं। बंधुआ मज़दूरों की स्थिति सदा से ही दयनीय बनी रही है। यह घटना दिसम्बर 2013 में ओडिशा के एक छोटे से गांव के दियालु सहित क़रीब 12 लोगों को बिमल नामक दलाल के माध्यम से पास के एक ईंट भट्टे पर काम का लालच दिया गया। लेकिन पास के ईंट-भट्टे की जगह, इन्हें 800 किलोमीटर दूर हैदराबाद के ईंट-भट्टे के लिए ट्रेन में बैठा दिया गया। जब उन्हें लगा कि वे फंसने वाले हैं, तो वे भाग निकले। लेकिन दियालु और उसका एक दोस्त भट्टा-मालिकों के ठेकेदार की पकड़ में आ पकड़े गए और उन्हें रायपुर ले आया। इन दोनों ने जब काम करने से कतई मना कर दिया तो ठेकेदार ने उनसे पूछा कि सज़ा के तौर पर अपना एक हाथ कटवाएंगे या पैर या फिर जान देंगे। दोनों ने पुन: काम करने से मना कर दिया और अपना-अपना दांया हाथ कटवाने का फ़ैसला किया।

पहले दियालु के दोस्त का हाथ दियालु की आंखों के सामने काटा गया और फिर दियालु का। उनके हाथ काटकर उन्हें तन्हा छोड दिया गया। बहते खून और दर्द के बीच वे कटे हाथ पर प्लास्टिक बैग बांधकर पास के कस्बे में इलाज के लिए गए। जब खबर बनी तो बिमल दलाल को पुलिस ने पकड़ लिया, लेकिन उन्हें ज़मानत मिल गई। ऐसी न जाने कितनी ही घटनाएं निरंतर घटती हैं जिनमें से कुछ ही प्रकाश में आती हैं। आम राय है कि भारत सरकार बंधुआ मज़दूरों को छुड़ाने और कसूरवारों को सज़ा देने में नाकाम ही रहती है। कहने को तो 1976 से बंधुआ मज़दूरी पर प्रतिबंध है किंतु वास्तविकता इससे परे है।

भारत में व्यापार से जुड़ी मानवाधिकार हनन की समस्या बहुत गहरी है और कंपनियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई में क़ानून का पालने करवाने वाली संस्थाएं भी रुचि नहीं लेतीं। भारतीय मीडिया बेशक ऐसी घटनाओं को अपनी खबर नहीं बनाता किंतु बीबीसी (हिन्दी) ऐसी भारतीय खबरों पर अपनी तीखी नजर रखता है।

dalit-men-thrashed-in-unaअभी 11 जुलाई को गुजरात में मरी गाय का चमड़ा छीलने वाले दलितों की गोरक्षकों नें मार-मार कर चमड़ी उतार दी। गुजरात के गीर-सोमनाथ ज़िले में उना कस्बे में तथाकथित गौ-सेवकों ने चार दलित युवकों की लाठी-डंडों से जमकर पिटाई कर दी। बताया जाता है कि ये युवक समढ़ियाला गांव से एक मरी हुई गाय का चमड़ा लेकर लौट रहे थे। इसके समानांतर यह खबर आई कि ये चारों युवक मरी हुई गायों की खाल उतार रहे थे। उन पर आरोप लगाया कि वो जीवित गायों की हत्या कर रहे थे। इनकी खूब पिटाई करने के बाद इन युवकों को गाड़ी से बांधा गया और नंगा करके फिर जमकर इनकी पिटाई की गई और इसी हालत में उन्हें पुलिस थाने तक ले गए। पीटने वालों ने ख़ुद ही इस घिनौने कृत्य का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर इसे वायरल भी कर दिया, तब कहीं प्रशासन हरकत में आया। लेकिन अफसोस कि इस घटना को न तो ब्राह्मणवादी मीडिया ने इसे अपनी खबरों का हिस्सा बनाया और न ही प्रिंट मीडिया ने अपने अखबारों में प्रकाशित किया। इन चारों पीड़ित युवकों में से दो गंभीर रूप से जख्मी हुए हैं, पुलिस द्वारा उन्हें जूनागढ़ के अस्पताल में भर्ती कराया गया है। उना पुलिस ने इस मामले में अपने आपको शिवसेना का जिला अध्यक्ष बताने वाले प्रमोदगिरी गोस्वामी समेत 6 लोगों पर मामला दर्ज कर उन्हें पकड़ने की कारवाई शरू कर दी है। अभी तक 3 आरोपियों को गिरफ्तार भी किया जा चुका है। बताया तो ये जाता है कि अगले दिन कुछ आंबेडकरवादियों ने गुजरात के ऊना शहर को तीन घंटों तक जाम रखा, सड़क और बाजार बंद कराया, तब कहीं सरकार को मजबूरी में तीन गौ-आतंकवादियों को गिरफ्तार करना पड़ा।

यहाँ सवाल उठता है कि क्या मोदी सरकार ऐसे गुण्डों को खुला लायसेंस दे रखा कि वो किसी भी प्रकार की हरकत कर सकते हैं और शासन–प्रशासन उनके ऐसे कृत्यों पर आँख बन्द किए रहेगा। फिर गुजरात तो मोदी जी का गृह-प्रदेश है, वहां उनकी पार्टी की सरकार है।

भारतीय संस्कृति और धार्मिक वातावरण में निरंतर घटती घटनाओं से एक बात तो साफ हो जाती है कि भारत का तथाकथित ब्राह्मणवादी तबके द्वारा किए जाने वाले ऐसे तमाम घिनौनें कृत्यों का मकसद सिर्फ और सिर्फ समाज के दबे-कुचले वर्ग पर डर बनाए रखना है। इस नाते ब्राह्मणवादी सोच वाला तबका न केवल समानता का  दुश्मन हैं अपितु मानवता का संहारक है। इससे भी गंभीर समस्या यह है कि इस प्रकार के हमलों/वीभत्स घटनओं में ग़िरफ्तार होने वाले आरोपी अक्सर रिहा हो जाते हैं।

मई 2016 में प्रकाशित NCRB की एक रिपोर्ट/ आंकडों के अनुसार 2014 में करीब 47,000 औरतें हिंसा की शिकार हुई हैं। रोज़ दलितों के साथ ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। समाज के सामने ऐसी घटनाएं होती रहती हैं लेकिन सब चुप रहते हैं। यह चुप्पी कब तक?

हालांकि यह एक अच्छी खबर है कि बनाये जा रहे खौफ के खिलाफ दलितों ने प्रतिरोध किया है। गुजरात में दलितों ने मारी गायों को कई जिला मुख्यालयों पर लाकर रख दिया कि इन्हें अब तुम्हीं ठिकाने लगाओ, जब हमारे लोग इस तरह सरेआम पीटे जा रहे हैं। यह प्रतिरोध की अच्छी शुरुआत है।

लेखक के बारे में

तेजपाल सिंह तेज

लेखक तेजपाल सिंह तेज (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार की कई किताबें प्रकाशित हैं- दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है आदि ( गजल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि ( कविता संग्रह), रुन-झुन, चल मेरे घोड़े आदि ( बालगीत), कहाँ गई वो दिल्ली वाली ( शब्द चित्र) और अन्य। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता के साहित्य संपादक और चर्चित पत्रिका अपेक्षा के उपसंपादक रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर इन दिनों अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक का संपादन कर रहे हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित।

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