यह सही है कि छत्रपति शाहू के लैंगिक सरोकार, वंचित वर्गों के प्रति उनके सरोकारों का एक छोटा-सा हिस्सा मात्र थे। परंतु हमें यह ध्यान में रखना होगा कि हाशिए पर पड़े वर्गों में भी 50 प्रतिशत महिलाएं थीं और पिछड़े वर्गों की बेहतरी के लिए उन्होंने जो सामाजिक व कानूनी सुधार किए, उनसे इन महिलाओं को भी लाभ हुआ होगा। जहां तक लैंगिक न्याय का प्रश्न है, उन्होंने महिलाओं की सुरक्षा के लिए अनेक कानून बनाए और उनके हितरक्षण के लिए कई आदेश व अधिसूचनाएं जारी कीं, उन्होंने महिला शिक्षा का समर्थन किया, महिलाओं के शिक्षण की व्यवस्था की और पर्दा प्रथा का विरोध व विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया। उनके इन क़दमों और निर्णयों और जिस ढंग से उन्होंने उन पर लगे नैतिक अधमता के आरोप का मुकाबला किया, से उनका स्त्रीवादी परिप्रेक्ष्य जाहिर होता है।
सन 1919 में छत्रपति शाहू ने विवाह पंजीकरण अधिनियम लागू किया, जिसके अंतर्गत अंतर्जातीय व अंतर्धामिक विवाहों और विधवा पुनर्विवाह को वैधता प्रदत्त की गई। इस नए कानून से उन महिलाओं को विशेष लाभ हुआ जो जाति और धर्म की जंज़ीरें तोड़कर अपनी पसंद के व्यक्ति को अपना जीवनसाथी बनाने की चाह और साहस रखती थीं। ऐसी महिलाएं अब धार्मिक रीतिरिवाजों से विवाह करने की बजाए, कानूनी ढंग से विवाह कर सकती थीं। महिलाओं के विवाह की न्यूनतम आयु 14 वर्ष किया जाना भी उनका एक साहसिक कदम था क्योंकि उन दिनों लड़कियों की शादी दस वर्ष की उम्र से पहले ही कर दी जाती थी। उनका यह आदेश कि 18 वर्ष से अधिक आयु की लड़कियां वयस्क हैं और उन्हें विवाह करने के लिए अपने अभिभावकों की सहमति प्राप्त करना आवश्यक नहीं है, एक क्रांतिकारी कदम था। इसने महिलाओं को अपनी नियति का निर्माता स्वयं बनने का मौका दिया।
द प्रिवेंशन ऑफ़ क्रूएल्टी टू वूमेन एक्ट, 1919 (महिलाओं के विरूद्ध क्रूरता प्रतिषेध अधिनियम) भी एक मील का पत्थर था। शाहू ने क्रूरता को मानसिक और शारीरिक, दोनों दृष्टियों से परिभाषित किया। इस कानून में महिलाओं का अपमान करना, उन्हें भलाबुरा कहना और उनके चरित्र पर संदेह करना क्रूरता घोषित किया गया। यही नहीं, वे यह मानते थे कि ‘‘शारीरिक या मानसिक हानि पहुंचाने का डर उत्पन्न करना’’ उतना ही गंभीर अपराध है जितना कि ऐसी हानि पहुंचाना। इस प्रकार, उन्होंने महिलाओं को, उनके खिलाफ शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना की आशंका से होने वाले संत्रास को भी ध्यान में रखा। दूसरे शब्दों में, उन्हें यह अहसास था कि हिंसा की धमकी, वास्तविक हिंसा से कुछ कम नहीं होती। यह सोच महिलाओं के दमन की आधुनिक, स्त्रीवादी अवधारणा से बहुत मिलती-जुलती है, जिसे क्रांतिकारी स्त्रीवादी केट मिलेट ने अपने इन प्रसिद्ध शब्दों में व्यक्त किया था, ‘‘हर महिला बलात्कार का शिकार है’’। शाहू ने इस तथ्य को बहुत पहले समझ लिया था। उन्हें यह अहसास भी था कि महिलाओं के विरूद्ध हिंसा, निम्न वर्गों तक सीमित नहीं है-जैसा कि आम तौर पर माना जाता है-बल्कि समाज के उच्च वर्गों में भी यह आम है। इस अधिनियम में पत्नि के अलावा, विधवा, बहू और यहां तक कि सौतेली मां के साथ दुव्र्यवहार को भी अपराध घोषित किया गया था। इससे यह पता चलता है कि शाहू को पितृसत्तात्मक व्यवस्था की गहरी समझ थी और वे यह जानते थे कि सभी महिलाएं इस व्यवस्था की शिकार हैं। शाहू के शब्दों में, ‘‘…यह अधिनियम इतना व्यापक है कि वह महिलाओं के विरूद्ध हर तरह की क्रूरता और दमन का संज्ञान लेता है’’। उन्होंने महिलाओं के संदर्भ में ‘‘दमन’’ शब्द का प्रयोग, सन 1960 के दशक में, दूसरे दौर के स्त्रीवादी आंदोलन के साथ, इस शब्द के साहित्य व विमर्श में प्रयोग आम होने के दशकों पहले किया था।
यह माना जाता है कि शाहू का द प्रिवेंशन ऑफ़ क्रूएल्टी टू वूमेन एक्ट, दुनिया में इस तरह का पहला कानून था।
शाहू द्वारा लागू किया गया एक अन्य कानून-द कोल्हापुर डायवोर्स एक्ट, 1919-कहता है कि ‘‘कानून में ही पति और पत्नि के तलाक के संबंध में विशिष्ट प्रावधान करने से इस रिश्ते को मज़बूती मिलेगी’’। स्पष्टतः उनकी यह मान्यता थी कि एक अच्छे विवाह में तलाक का विकल्प उपलब्ध होना चाहिए। जहां पुरूषों को हमेशा से अपनी पत्नियों का त्याग करने का अधिकार उपलब्ध था, वहीं इस कानून ने पहली बार महिलाओं को कष्टपूर्ण विवाहों से मुक्ति पाने का रास्ता दिया। इस कानून के पीछे जो स्त्रीवादी सोच थी, उसे नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है।
‘‘धर्म के लिए समर्पित कन्याओं’’ के संबंध में 1920 में बनाए गए कानून में उन कन्याओं, जो किसी धर्म के प्रति ‘समर्पित’ थीं, के विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया गया और उन्हें उनके परिवार की सम्पत्ति में हिस्सेदार बना दिया गया। इससे माता-पिता को धर्म या परंपरा के नाम पर अपनी लड़कियों से छुटकारा पाने से होने वाला लाभ मिलना बंद हो गया। इस कानून में लड़कियों के अपने परिवार की सम्पत्ति में हिस्से के अधिकार को मान्यता दी गई। इस कानून को यदि हम स़्त्रीवादी नहीं तो क्या कहेंगे?
सन 1921 में जारी एक आदेश में शाहू ने पुरूषों को होली जैसे सार्वजनिक त्यौहारों के अवसर पर महिलाओं के विरूद्ध अश्लील भाषा का इस्तेमाल करने के विरूद्ध चेतावनी दी। यह आदेश आधुनिक मानकों से भी क्रांतिकारी था।
शाहू, महिला शिक्षा के पुरज़ोर समर्थक थे। उनके पुत्र की एक दुर्घटना में त्रासद मौत के बाद उन्होंने अपनी 11 वर्षीय बहू इन्दुमति को शिक्षित करने के लिए सभी विरोधों का सामना किया। उन्होंने अपनी विधवा बहू की आर्थिक सुरक्षा के लिए यह सुनिश्चित किया कि उसे एक नियमित मासिक आमदनी होती रहे। उनकी यह इच्छा थी कि वह चिकित्साशास्त्र का अध्ययन करे। परंतु उनकी असामयिक मृत्यु के कारण उनका यह स्वप्न पूरा न हो सका।
उन्होंने डा. कृष्णा बाई केलावकर की विदेश में चिकित्साशास्त्र में शिक्षा का खर्च उठाया और उनके लिए सरकारी अस्पताल में एक पद निर्मित किया। उनका यह मानना था कि महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए उनका शिक्षित होना आवश्यक है। वे सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी के हामी थे। उन्होंने अपने राज्य के एक कस्बे का नाम अपनी लड़की राधा के नाम पर रखा। इससे महिलाओं के प्रति उनके सकारात्मक दृष्टिकोण का खुलासा होता है।
वे पर्दा प्रथा के सख्त विरोधी थे और विधवा पुनर्विवाह के पुरज़ोर समर्थक। अप्रैल 1919 में कुर्मी क्षत्रियों के तेरहवें अखिल भारतीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा ‘‘…मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि कुर्मियों में विधवा पुनर्विवाह की प्रथा है। मेरा यह विश्वास है कि इससे यह समाज विवाहेत्तर यौन संबंधों और शिशु हत्या जैसी बुराईयों से बच सकेगा।’’ इसी भाषण में उन्होंने कहा कि ‘‘पर्दा जैसी प्रथाएं, महिलाओं में साहस व अन्य गुणों को नष्ट कर देती हैं।’’ यह साफ है कि इन सामाजिक बुराईयों के महिलाओं पर पड़ने वाले कुप्रभाव से वे अच्छी तरह वाकिफ थे।
जब उन पर उनके जातिगत व राजनीतिक शत्रुओं ने नैतिक अधमता का आरोप लगाया तो उन्होंने इस आरोप की स्वतंत्र जांच करवाना स्वीकार किया। उन्होंने जांचकर्ताओं से पूरा सहयोग किया और यह प्रस्ताव भी किया कि जांच पूरी होने तक वे छुट्टी पर चले जाएं। उन्होंने यह सब इसलिए किया ताकि वे अपने ऊपर लगे आरोपों से बाइज्ज़त बरी हो सकें। अगर वे चाहते तो बहुत आसानी से इस जांच को प्रभावित कर सकते थे।
छत्रपति शाहू ने महिलाओं के मुद्दे को वहां से उठाया, जहां फुले दम्पत्ति ने उसे छोड़ा था। उनकी सोच अनूठी और क्रांतिकारी थी और उनके कार्यों पर उनकी स्त्रीवादी संवेदनशीलता की मुहर स्पष्ट दिखलाई देती है। स्त्रीवाद के प्रति उनका यह योगदान हमेशा याद रखा जाएगा।
यह लेख “फॉरवर्ड प्रेस बुक्स से शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘ओबीसी नायक’ में संकलित है। अग्रिम आर्डर के लिए संपर्क करें ईमेल themarginalisedpublication@