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बहुजन हितों कुठाराघात करेगा व्याख्याता नियुक्ति का क्षेत्रवाद

भारत राज्यों का एक संघ है। अपवादों को छोड़कर यहाँ का नागरिक भारत के किसी भी हिस्से में जाकर अपना जीवन यापन कर सकता है। यानी किसी भी राज्य में जाकर सरकारी या प्राइवेट नौकरी करने को स्वतंत्र है। डोमिसाईल जैसी नीति, जो अन्य प्रदेशों के छात्रों के साथ भेदभाव पूर्ण रवैय्या अपनाता है, भारतीय संघवाद की आत्मा के खिलाफ है। बिहार में डोमिसाईल नीति लागू होने का असर अन्य राज्यों पर भी पड़ सकता है

lalu_nitishराजद प्रमुख लालू प्रसाद द्वारा बिहार में डोमिसाईल नीति की मांग और विपक्षी दल भाजपा द्वारा इसे समर्थन करने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी बिहार में इसे लागू करने का मन बना लिया है। इसके कारण बिहार में चल रही 3564 (तीन हज़ार पांच सौ चौंसठ) असिस्टेंट प्रोफेसर पद के लिए हो रही नियुक्ति पर असमंजस की स्थिति है। पिछले 12 अगस्त को चल रही नियुक्तियों पर रोक लगा दी थी, जबकि पटना उच्च नयायालय ने 6 सितंबर को सरकार के रोक के आदेश पर ही रोक लगा दी। मालूम हो कि सहायक प्राचार्यों के लिए सितम्बर 2014 में बीपीएससी द्वारा विज्ञापन प्रकाशित किया गया था। नियुक्त्‍िा पर रोक लगाने से पहले आयोग  मैथिली, अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शनशास्त्र, भौतिकी, रसायन शास्‍त्र, मनोविज्ञान आदि  विषयों के 1609 पदों के लिए साक्षात्कार सम्पन्न करवा चुका है। इसमें चयनित मैथिली विषय के सहायक प्राध्‍यापकों ने तो अध्यापन का कार्य भी आरम्भ कर दिया हैं। अंग्रेजी विषय के लिए 170 रिजल्ट का प्रकाशन भी किया जा चुका है। यानी मात्र 1755 सीटें की नियुक्ति प्रक्रिया बाकी है, जिसे सरकार डोमिसाईल मुद्दे के बहाने रोकने की कोशिश कर रही है। परन्तु, क्या कानूनन किसी नियुक्ति प्रक्रिया को अलग-अलग नियमों और प्रावधानों के आधार पर सम्पन्न कराया जा सकता है? यह प्रश्न तो उम्‍मीदवारों द्वारा न्यायलय के समक्ष उठाया जाना तय है और वहां सरकार को इसका उत्तर भी मिल जाने की संभावना है। फिलहाल नियुक्ति रोकने के लिए सरकार द्वारा दिये जा रहे तर्कों में डोमिसाइल मुद्दे के अलावा 2009 से पूर्व पीएचडी किये छात्रों को भी शामिल करना बताया जा रहा है। मालूम हो कि पूर्व के यूजीसी अधिनियम 2009 के तहत सिर्फ नेट पास या इस नियम के तहत पीएचडी किये विद्यार्थी ही असिस्टेंट प्रोफ़ेसर की अहर्ता रखते थे। बिहार में इस कारण हजारों विद्यार्थी असिस्टेंट प्रोफेसर की नियुक्ति प्रक्रिया में शामिल होने से वंचित हो गए अब जब इस वर्ष मानव संसाधन मंत्रालय के निर्देश पर यूजीसी ने इस नियम में शिथिलता बरती तो ऐसे छात्र जो इस प्रक्रिया से बाहर हो गए थे उन्हें भी एक बार फिर से शामिल होने की उम्मीद जगी। हालांकि यूजीसी  के नए नियम में भी 2009 से पूर्व पीएचडी किये छात्रों को कम से कम एक रेफर्ड जर्नल में अपने शोध से समन्धित पेपर का प्रकाशन अनिवार्य है। परन्तु, भारत और खासकर बिहार में ऐसे रेफर्ड जर्नल की गुणवत्ता पर प्रश्न चिन्ह लगते रहे हैं। खैर, इन सब मुद्दों के अलावा बिहार में चल रही नियुक्ति प्रक्रिया को बीच में रोकने के कारण संभावित कानूनी अडचनों को भी नकारा नहीं जा सकता। और इसके कारण पहले से ही धीमी चल रही नियुक्ति प्रक्रिया का देर होना स्वाभाविक है। इसका सीधा असर विश्वविद्यालयों में पठन-पाठन पर पड़ेगा। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ बिहार के विश्वविद्यालयों में सहायक प्राचार्यों की लगभग 50 प्रतिशत सीटें खाली हैं। लेकिन इन सब मुद्दे को ताक पर रख सरकारी नौकरियों में बिहारियों के आरक्षण के नाम पर चल रही नियुक्ति प्रक्रिया को रोक दिया गया है। तो क्या यह वास्तव में बिहारी छात्रों के हित को ध्यान में रख ऐसा किया गया है? या इसकी आड़ में राजनीति कुछ और है?

bihar-womenमहागठबंधन सरकार बनने के बाद बिहार में लिए गए महत्वपूर्ण फैसले शराबबंदी और सरकारी नौकरियों में महिलाओं को 35 प्रतिशत आरक्षण लिया गया। चूँकि यह दोनों मुद्दे नीतीश कुमार के चुनावी वायदे में थे, इसीलिए इसका राजनीतिक लाभ भी नीतीश को मिलेगा ऐसा समझा जा रहा है। पूर्व में भी भाजप–जदयू सरकार द्वारा महिलाओं को पंचायती राज संस्थान में 50 प्रतिशत आरक्षण का राजनितिक लाभ  नीतीश को मिला न कि भाजपा को। लालू यादव की राजद भी मौजूदा सरकार में शामिल है, परन्तु उसे सरकार द्वारा किये जा रहे फैसले का वैसा राजनीतिक लाभ नहीं मिल रहा, सारा श्रेय नीतीश कुमार के हिस्‍से में चला जा रहा है। इस बात को ध्यान में रख लालू यादव नें बिना नीतीश कुमार को विश्वास में लिए ही एकतरफा डोमिसाइल मुद्दा उठायाI युवाओं में बेरोजगारी के आलम के मद्देनज़र डोमिसाइल का मुद्दा लोकप्रिय हो सकता है। बिहार में युवाओं के पास सरकारी नौकरियों के अलावा अपने करियर में करने को बहुत कुछ नहीं है। प्रदेश में कल कारखाने का नहीं होना। प्राइवेट इन्वेस्टमेंट नहीं होने के कारण सरकारी नौकरी ही यहाँ के युवाओं के लिए एक मात्र उम्मीद है। और शायद इसी कारण को भांप नीतीश कुमार नें भी बिना समय गंवाए इस मुद्दे पर अपनी सहमति देते हुए वर्तमान में चल रही कालेज व्याख्याताओं की नियुक्ति प्रक्रिया पर रोक लगा दी। यानी डोमिसाईल का मुद्दे को महागठबंधन में चल रहा आपसी राजनीतिक दावपेंच के रूप में भी देखा जा सकता है।

नीतीश की प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी और डोमिसाईल मुद्दा

जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद से नीतीश कुमार मिशन 2019 के तहत दिल्ली, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल समेत अन्य राज्यों का दौरा कर रहे हैं। ये बात सही है कि इन प्रदेशों में जदयू का कोई राजनीतिक जनाधार नहीं है, परन्तु नीतीश कुमार के चेहरे और शराबबंदी के मुद्दे को लेकर पार्टी आशान्वित जरूर है। हालांकि राजनीतिक जानकारों का मानना है कि इन प्रदेशों में जदयू को खास चुनावी लाभ नहीं मिलेगा। परन्तु अन्य प्रदेशों में लोकप्रियता का लाभ सांकेतिक ही सही नीतीश कुमार को एक मजबूत प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में जरूर मिल सकता है। लेकिन डोमिसाईल का मुद्दा नीतीश की छवि को एक राष्ट्रीय नेता की बजाय एक संकीर्ण और प्रादेशिक नेता के रूप में स्थापित करने का ही काम करेगा। और ऐसी छवि के साथ नीतीश कुमार के लिए मिशन 2019 कठिन प्रतीत होता है हो जाएगा।

डोमिसाईल का मुद्दा और भारतीय संघवाद

भारत राज्यों का एक संघ है।अपवादों को छोड़कर यहाँ का नागरिक भारत के किसी भी हिस्से में जाकर अपना जीवन यापन कर सकता है।यानी किसी भी राज्य में जाकर सरकारी या प्राइवेट नौकरी करने को स्वतंत्र है। डोमिसाईल जैसी नीति, जो अन्य प्रदेशों के छात्रों के साथ भेदभाव पूर्ण रवैय्या अपनाता है, भारतीय संघवाद की आत्मा के खिलाफ है। बिहार में डोमिसाईल नीति लागू होने का असर अन्य राज्यों पर भी पड़ सकता है। पहले से ही महाराष्ट्र और दक्षिण के कुछ राज्यों में उत्तर भारतीयों को लेकर समय समय पर राजनीति होती रही है। बिहार में डोमिसाईल नीति लागू होने के बाद इन प्रदेशों में ऐसे कानून को और सख्ती से लागू करने की बात हो सकती है और जिसका सीधा असर भारतीय संघवादी ढाँचे पर पड़ेगा।

क्षेत्रवाद बढ़ने और दलित प्रगतिशील राजनीति को खतरा

bpscसरकारी नौकरियों में डोमिसाईल जैसी नीति के कारण भारत में क्षेत्रवाद की राजनीति बढ़ने का खतरा है। यदि इसी तरह से भारत का हर राज्य अपने यहाँ की नौकरियों में अन्य प्रदेशों के छात्रों के साथ भेदभाव पूर्ण नीति बनाने लगे तो देश की राजनीति दलित, पिछड़े, महिलाओं के हक़ में नहीं बल्कि क्षेत्रवाद के इर्द-गिर्द ही घूमने लगेगा। इसका सबसे बड़ा नुकसान यहाँ के प्रगतिशील और दलित बहुजन राजनीति को उठाना पड़ सकता है। और ऐसी क्षेत्रवाद राजनीति का फायदा राज्यों के सभ्रांत और बुर्जुआ तबके को होगा। राज्यों के भौगोलिक सीमाओं के नाम पर की जाने वाली राजनीति का लाभ हमेशा से समाज के उच्च वर्गों को हुआ है। दुखद यह है कि बहुजन राजनीति के मसीहा माने जाने वाले  नीतीश और लालू यादव की सरकार द्वारा ही बिहार में डोमिसाईल नीति लाई जा रही है। इससे भी दिलचस्प बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी, जो राष्ट्रवाद की प्रबल समर्थक मानी जाती है, उसने भी बिहार में डोमिसाईल नीति लागू करने की मांग कर डाली। एक तरफ तो भाजपा राष्ट्रीयता की बात करती है और दूसरी तरफ राजनीति के तहत क्षेत्रवाद का सहारा ले रही है।

सवर्णों को होगा फायदा बहुजन को नुकसान

डोमिसाईल नीति को लागू करने के नाम पर चल रही असिस्टेंट प्रोफेसरों की नियुक्ति को रोकने से सबसे बड़ा नुकसान बिहार के बहुजन तबके को होगा। यूजीसी  के जिस नियम का हवाला देकर यह प्रक्रिया रोकी गयी है, उसके तहत 2009 के पूर्व भी पीएचडी किये छात्र को असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए योग्य बताया गया है। परन्तु, बिहार में पीएचडी धारक छात्रों में सवर्णों की संख्या अधिक है। इसका कारण उच्च शिक्षा में सवर्णों का एकाधिकार और दलित पिछड़े छात्रों के लिए पीएचडी जैसे कोर्स में लम्बे समय तक समय और संसाधन का न जुटा सकना। इसके उलट नेट जैसी परीक्षा उत्तीर्ण करना आम और बहुजन छात्र के लिए ज्यादा आसान है। नेट की परीक्षा में दलित और ओबीसी छात्रों के लिए अलग से रियायत भी दी गयी है। इन रियायतों के कारण बहुत सारे दलित पिछड़े छात्रों नें नेट परीक्षा पास की है। अब यदि पीएचडी  को भी न्यूनतम पात्रता बना दिया जाएगा तो इसका लाभ प्रदेश के एक ख़ास तबके को होगा। बिहार के लभग सभी विश्विद्यालयों में सवर्ण जाति के प्रोफेसरों की संख्या अधिक है। कुछ लोगों का मानना है कि यह प्रोफ़ेसर जाति के आधार पर अपने अन्दर विद्यार्थी को पीएचडी करवाते हैं। ऐसी परिस्थिति में यह सहज ही समझा जा सकता है कि पीएचडी को न्यूनतम पात्रता बनाने का लाभ किस तबके को ज्यादा होगा।

रिवर्स आरक्षण का भी खतरा

चूँकि नेट में दलित–पिछड़े छात्र को सामान्य छात्रों के मुकाबले कुछ रियायतें मिलती हैं इसीलिए इन तबकों से नेट उत्तीर्ण छात्रों की संख्यां में खासा इजाफा हुआ है। और यह छात्र आरक्षित कोटे के अलावा सामान्य कोटे में भी अच्छा प्रदर्शन कर लगातार सरकारी नौकरियों में सफल हो रहे हैं। अब जब डोमिसाईल और पीएचडी दोनों को असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के लिए न्यूनतम पात्रता के तौर पर शामिल किया जाएगा तो 50 प्रतिशत गैर आरक्षित कोटे में सवर्णों की ही नियुक्ति की संभावना बनी रहेगी।

माजूदा डोमिसाईल नीति न सिर्फ अलोकतांत्रिक है बल्कि अव्यवहारिक भी। देश के लगभग सभी राज्यों में बिहारी छात्र, शिक्षक और मजदूर कार्यरत हैं। ऐसी नीति से इन बिहारियों को भी अपने जीवन यापन में कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है। अतः बिहार सरकार द्वारा लाई जा रही डोमिसाईल नीति को दलित, पिछड़े छात्रों और संपूर्ण बिहारियों के हक़ में अविलम्ब वापस कर चल रही असिस्टेंट प्रोफ़ेसर की नियुक्ति प्रक्रिया को पुनः शुरू किया जाना चाहिए।

लेखक के बारे में

चंदन कुमार सिंह

चंदन कुमार सिंह कृष्ण उपाध्याय महिला महाविद्यालय रुद्रपुर, देवरिया, गोरखपुर, उत्तरप्रदेश में व्याख्याता हैं।

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