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चंद्रमोहन एस : अंग्रेजी दलित कविता का उभरता सितारा

चंद्रमोहन एस. की कविताएं, उनकी मेधा और उनके अंदर के विद्रोही को प्रतिबिंबित करती हैं। उन्होंने जितने विविध मुद्दों पर लेखन किया है, उससे यह स्पष्ट है कि वे राष्ट्र-राज्य, जाति, वर्ग, लिंग और धर्म से परे, केवल मानवीय मूल्यों के पैरोकार हैं

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चंद्रमोहन एस

आज दलित-बहुजन युवा, ब्राह्मणवादी-वर्चस्ववादी आख्यानों को चुनौती दे रहे हैं। इस अभियान में उन्हें आम्बेडकर, फुले और पेरियार जैसे चिंतकों के विचारों से तो शक्ति मिल ही रही है, वे अपने उन मित्रों से भी प्रेरणा ग्रहण कर रहे हैं जो एकाधिकार की संस्कृति और सार्वजनिक संसाधनों पर निजी नियंत्रण के खिलाफ वैश्विक स्तर पर चल रहे संघर्ष में भागीदार हैं। चंद्रमोहन एस. की कविताएं, उनकी मेधा और उनके अंदर के विद्रोही को प्रतिबिंबित करती हैं। उन्होंने जितने विविध मुद्दों पर लेखन किया है, उससे यह स्पष्ट है कि वे राष्ट्र-राज्य, जाति, वर्ग, लिंग और धर्म से परे, केवल मानवीय मूल्यों के पैरोकार हैं। केवल एक सच्चा मानवतावादी ही ऐसा हो सकता है। उन्होंने जातिगत हिंसा और छुआछूत के खिलाफ तो लिखा ही है, वे समलैंगिकों के अधिकारों और सोनी सोरी की व्यथा से भी चिंतित हैं। इरोम  शर्मिला का लंबा अनशन, मुज़फ्फरनगर दंगे और अन्यायपूर्ण वैश्वीकरण भी उनके सरोकार हैं। भारतीय साहित्य के बदलते हुए परिदृश्य पर अपने लेख में के. सत्चिदानंदन लिखते हैं, ‘‘यू आर अनंतमूर्ति जैसे लेखक, जो कुछ समय पूर्व तक यह शिकायत करते नहीं थकते थे कि अंग्रेज़ी में दलित लेखन की कोई मौजूदगी नहीं है और ना ही ऐसा होने की संभावना है, को जल्दी ही मीना कंडासामी और चंद्रमोहन एस. जैसे लेखकों ने गलत सिद्ध कर दिया। कई अन्य दलित लेखक भी अंग्रेज़ी में लिख रहे हैं और उनका लेखन जल्द ही हम सब के सामने आएगा’’।

निर्भया मामले ने पूरे देश को हिला दिया और उससे उपजे गुस्से को शांत करने के लिए सरकार ने निर्भया अधिनियम बनाया। परंतु दलित और आदिवासी लड़कियों के साथ बलात्कार और हत्या की घटनाएं हमारी अंतरआत्मा को व्यथित नहीं करतीं। उनके खिलाफ विरोध प्रदर्शन नहीं होते और ना ही धरने आयोजित किए जाते हैं। बस्तर में सुरक्षाबलों की ज्यादतियों का शिकार होने वाली आदिवासी लड़कियों की किसी को फिक्र नहीं है। उनकी कविता ‘रेप आॅफ ए ट्रायबल गर्ल’ (एक आदिवासी लड़की के साथ बलात्कार) हमारे बुद्धिजीवियों और मीडिया के दोहरे मानदंडों का पर्दाफाश करती है

किसी अखबार की वह सुर्खी नहीं बनी ना ही कहीं फोटो फीचर छपा
उठ खड़े नहीं हुए युवा विरोध में
कोई शहर रूका नहीं
संसद में हंगामा नहीं हुआ
देश की अंतरआत्मा घायल नहीं हुई
किसी प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को संबोधित नहीं किया
किसी टीवी चैनल पर वाद-विवाद नहीं हुआ
न तो किसी पुलिस अधिकारी का तबादला हुआ और ना ही किसी को निलंबित किया गया
मोमबत्ती जुलूस नहीं निकले
लाखों महिलाएं विरोध में उठ खड़ी नहीं हुईं
एक आदिवासी लड़की के साथ बलात्कार हुआ और उसकी हत्या भी।

रोेज़गार की तलाश में शहरों में पलायन करने वालों में से अधिकांश दलितबहुजन होते हैं। पलायन करने वालों की पहचान कहीं खो सी जाती है। चंद्रमोहन अपनी कविता ‘ब्लैक माईग्रेटरी’’ (काला प्रवासी) में इसका मर्मस्पर्शी विवरण देते हैं।

पक्षी, प्रवासी पक्षी
अधिकांश के पंख होते हैं काले
वे अधिकतर भोजपुरी, बंगाली और उड़िया में गाती हैं
तैरते हुए बादलों की ओर उड़ती हैं
और यात्रा में गायब हो जाती हैं।

चंद्रमोहन का शब्दकोश सीमित नहीं है परंतु उनमें अपनी बात कम से कम शब्दों में कहने की असाधारण क्षमता है। एक कवि बतौर, उनकी विश्वदृष्टि बहुत व्यापक है और जागृत भारत के आम्बेडकर के सपने के अनुरूप, आधुनिक भी। वे कहते हैं कि हमें ब्राह्मणवादी आख्यानों पर प्रश्न उठाने चाहिए और उनके आसपास बुने गए मिथकों को ध्वस्त कर देना चाहिए। आश्चर्य नहीं कि उनकी कविताएं खाप पंचायतों और परंपरा व नैतिकता के नाम पर मासूम प्रेमियों की हत्या पर तीखा प्रहार करती हैं।

नैतिक पुलिस
जब वह प्रेमी युगल
एक पेड़ के नीचे छुपा हुआ था
तब उसे कुछ प्रेमपत्र मिले
कुछ अधजले थे
कुछ सदियों पुराने
और साथ में था शूर्पनखा का एक चित्र
नाक, कान और स्तनों के बगैर।

पूंजीवाद और धार्मिक कट्टरता पुराने संगी हैं और एक-दूसरे के पूरक भी। भारत में पूंजीवाद का इस्तेमाल ब्राह्मणवादियों ने बहुजनों को गुलाम बनाए रखने और हमारे संसाधनों को लूटने के लिए किया है। उनकी एक कविता ‘नियो लिबरल मिसकेरेज’ (नव उदारवादी गर्भपात) इस स्थिति का सटीक वर्णन करती है।

धरती में तेल की तलाश में
घुसने वाली हर ड्रिल
उसकी कोख में छेद करती है
रिक्तता की गेंगरीन
परमाणु के गुस्से के कुकुरमुत्तानुमा बादल
नव उदारवादी विकास का गर्भपात।

उनकी कविता ‘हिस्ट्री’ (इतिहास) कहती है कि ‘ऐतिहासिक दस्तावेज’, जो ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण से लिखे गए हैं, को चुनौती देनी होगी और बहुजन इतिहासकारों को उन्हें फिर से लिखना होगा।

इतिहास क्या है?
वक्तृता
मंच से दिया गया एक भाषण
इस मंच के तले में लगी हुई है जंग
मेरी कविताएं इस्पाती तीर हैं
जो इस मंच को नीचे से बींधती हैं।

आंबेडकरवादी रोहित वेमुला की ‘संस्थागत हत्या’ ने भारत के बहुजनों और सभी सही सोचने वालों को गहरी चोट पहुंचाई। इस घटना ने यह उजागर किया कि हमारे कैम्पस, ब्राह्मणवादियों की जकड़न में हैं। चंद्रमोहन अपनी कविता ‘किलिंग द शम्बूक्स’ (शम्बूकों की हत्या) में विद्यार्थियों की आत्महत्याओं के बारे में बात करते हैं।

जिम क्रो (अश्वेतों के साथ भेदभाव की नीति) से बंटे हुए होस्टल के कमरे
सीलिंग फैन पर एक अजीब-सा फल
किताबों पर खून, कागज़ों पर खून
सन्नाटे में झूलता हुआ एक मूक, काला शरीर
त्रिशूल से लटकते अजीब फल

कवि से बातचीत 

चंद्रमोहन एस. से  विद्याभूषण रावत की बातचीत।

बचपन और माता-पिताः मैं केरल के पालक्काड जिले में जन्मा था। यह जिला, तमिलनाडु से लगा हुआ है। परंतु पालक्काड  में मैं केवल पैदा हुआ, वहां बहुत समय तक रहा नहीं। मेरे पिता बैंक अधिकारी थे और मेरी मां गृहणी थीं। मेरे परिवार में पिछली दो पीढ़ियों से लोग अंग्रेज़ी पढ़ते-समझते आ रहे थे। मेरे दादा डाक विभाग में थे और वे अंग्रेजी पढ़ सकते थे, बोल सकते थे और लिख भी सकते थे। हम इस अर्थ में तनिक भाग्यशाली थे कि हमें शिक्षा मिली और सरकारी नौकरियां भी।

शिक्षा : चूंकि मेरे पिता का एक स्थान से दूसरे स्थान पर तबादला होता रहता था, इसलिए मेरी स्कूली शिक्षा अंग्रेज़ी माध्यम के केन्द्रीय विद्यालयों में हुई। बाद में, जैसी की उन दिनों भेड़चाल थी, मैंने एक इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला ले लिया। परंतु इस संस्थागत शिक्षा ने मेरी आत्मा को जगाने में बहुत कम भूमिका अदा की और ना ही इसने मुझे यह प्रेरणा दी कि मैं उन लोगों के लिए कुछ करूं, जो समाज के हाशिए पर हैं। हमारे पाठ्यक्रम में आम्बेडकर, मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला आदि की चर्चा तक नहीं होती। दूसरी ओर, गांधी का इस हद तक स्तुतिगान किया जाता है कि वह कुछ असहज सा लगता है।

मेरे एक मित्र ने मुझे सलाह दी कि मैं रोल्फ एलिसन की पुस्तक ‘द इनविज़िबल मैन’ पढूं। इस पुस्तक ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला। लगभग उसी समय मैंने पहली बार अपने एक अध्यापक से ‘दलित साहित्य’ शब्द सुना। कविता सहित, दलित साहित्य, केरल में हाशिए पर है।

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मीना कंडासामी

प्रेरणा : अब तक मेरे लिए सबसे बड़ी प्रेरणा मीना कंडासामी हैं। उन्होंने हम अंग्रेज़ी-भाषी दलित-बहुजनों को भाषा की विध्वंसकारी शक्ति से परिचित करवाया। उन्होंने हमें बताया कि किस तरह कविता हमारे जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती है। उनके यू-ट्यूब पेज पर एक शब्द है ‘कास्ट प्रवोकेटर’ (जातिगत दुरूत्साहक)। मेरी समझ में वे एकमात्र ऐसी रचनाकार हैं, जो अंग्रेज़ी में दलितों और अन्य दमित लोगों के मुद्दों पर लिखती हैं और जिनकी जातिगत पितरावली मेरी जैसी ही है।

केरल में अंग्रेज़ी जानने वाले मध्यमवर्गीय दलितों की कोई कमी नहीं है परंतु केवल मीना ने ही अंग्रेज़ी में अय्यनकली की जीवनी लिखने के बारे में सोचा। वे सत्ताधारियों के विरूद्ध – चाहे विरोध करने वाले दलित हों, श्रमिक वर्ग हों या महिलाएं – अभियान की मुखर प्रवक्ता हैं।

केरल में रहने वाले युवा सांस्कृतिक आलोचक और शिक्षक अजय एस शेखर के कुछ चित्रों और लेखन ने भी मेरी साहित्यिक सक्रियता में इज़ाफा किया। वे संस्कृति के क्षेत्र में भगवा फासीवादी वर्चस्व का पर्दाफाश करने में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।
मुझे के. सत्चिदानंदन, जयदीप सारंगी, नीरव पटेल, अनन्य एस गुहा और सुबोध सरकार जैसे वरिष्ठ कवियों से भी प्रोत्साहन और प्रशंसा मिली।
भारत में नव उदारवाद के खिलाफ संघर्ष कर रही ताकतें, मुझे एक मित्र की तरह देखती हैं। आस्ट्रेलिया की एक प्रतिष्ठित पत्रिका ‘ग्रीन लेफ्ट वीकली’ ने गाज़ा संघर्ष पर लिखी मेरी युद्ध-विरोधी कविता को प्रकाशित किया था।

आदर्श : भारत में अंग्रेज़ी में कविता लिखने वालों में मेरे आदर्श विवेक नारायणन, मिशेल कहालिल और मीरा कंडासामी हैं। उन्हें कविता के शिल्प पर तो महारत हासिल है ही, उनका लेखन उद्देश्यपरक भी है। मैं मिशेल कहालिल की कविता ‘विश्वरूपा’ का घोर प्रशंसक हूं। नामदेव ढसाल का रोष भी मुझे गहरे तक प्रभावित करता है। भारत के बाहर, अफ्रीकी अश्वेत आंदोलन के कवि मेरे नायक हैं। मुझे निकोलस गिलेन की कविताएं और अपनी बात को बिना लागलपेट के कहने के उनके अंदाज़ से बहुत प्रेरणा मिली। मुझे लगता है कि उनके जैसे लेखक, आम लोगों में कविता की समझ विकसित करने में मददगार होते हैं।

पहली कविता : मेरी सबसे पहली कविता केरल के वामपंथी आख्यानों पर व्यंग्य थीः
मज़दूरों और मालिकों के बारे में ज़रूर बात करो
जाति के बारे में बात मत करो
अमीरों और गरीबों के बारे में ज़रूर बात करो
जाति के बारे में बात मत करो।

सबसे क्षुब्ध करने वाली चीज़ : जो चीज़ मुझे सबसे क्षुब्ध करती है वह है ‘सांस्कृतिक गुलामी’। मैं यह देखकर चकित हूं कि किस तरह पढ़े-लिखे, प्रभावशाली और रईस दलित व ओबीसी, ब्राह्मणों से भी ज्यादा ब्राह्मणवादी हैं। यह हमारा अभिशाप है। हमें जागना होगा और हिन्दुत्व (जो इस समय उभार पर है) को उखाड़ फेंक एक ऐसे भारत का निर्माण करना होगा जिसमें सामाजिक ऊंच-नीच के लिए कोई जगह न हो।

जातिगत पूर्वाग्रह से सामना : मेरा अधिकांश जीवन शहरों में बीता है, जहां मेरी जाति का कोई महत्व नहीं था। परंतु यह हो सकता है कि मैं कभी न कभी, दबेछुपे ढंग से जातिगत पूर्वाग्रहों का शिकार हुआ हूं। अब मैं ‘जातिगत दुरूत्साहक’ बन गया हूूं। मेरी लड़ाई अब शुरू हुई है

दलित साहित्य पर : एक अफ्रीकी कहावत है, ‘जब तक शेरों के अपने इतिहासकार नहीं होंगे, तब तक शिकारों की कथाएं शिकारी की शान में कसीदे काढेंगी’। दलित साहित्य, ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ दलित-बहुजनों के प्रतिरोध का दस्तावेज है। यह दुनिया का सबसे पुराना संघर्ष है। दलित साहित्य का उद्देश्य पूरी दुनिया के नागरिक अधिकार आंदोलन को बढ़ावा देना है। मुझे लगता है कि हम एक बड़े परिवर्तन की कगार पर खड़े हैं। हमारी आवाज़ अब सुनी जाने लगी है।

हिन्दी दलित लेखक अजय नावरिया की कहानियों का अंग्रेज़ी अनुवाद मुझे बहुत अच्छा लगा। परंतु अधिकांश लेखक, दलित पात्रों का रूमानी चित्रण करते हैं। दलित साहित्य, शिक्षा जगत में एक फैशन सा बन गया है। बहुत से लोग इस पर पीएचडी कर स्थायी नौकरियां पा रहे हैं और दलित, झोपड़ियों में ही सड़ रहे हैं। क्या इससे हमारी अपने बारे में सोच में परिवर्तन आया है? मैं केवल उम्मीद कर सकता हूं कि दलित साहित्य अपने आप को व्यापक नागरिक अधिकार संघर्षों से अलग नहीं करेगा।

मलयालम में दलितों पर बी. जयामोहन का एक छोटा सा उपन्यास है। यह उपन्यास अपरोक्ष ढंग से हमें हिन्दुत्ववादी पाठ पढ़ाता है। अधिकांश मामलों में दलितों पर गैर-दलितों का लेखन, ‘व्यवस्था’ के अनुकूल होता है, दलितों के नहीं। उनका शिल्प तो बहुत शानदार होता है परंतु कथ्य पर वे समझौते करते हैं।

अंग्रेज़ी में लिखने के बारे में : मेरे पास कोई और विकल्प नहीं था। केंद्रीय विद्यालय अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल थे। मेरी यह मान्यता है कि अंग्रेज़ी, हमारे जैसे लोगों का सशक्तिकरण करती है। मेरे पूर्ववर्ती लेखक अपनी-अपनी भाषाओं में लिखते थे। उनका पाठक वर्ग सीमित था। उनकी तुलना में, मैं अब अपने और अपने पूर्वजों के बारे में बहुत बड़े पाठक वर्ग को बतला सकता हूं क्योंकि मैं अंग्रेज़ी में लिखता हूं।

निकट भविष्य की योजनाएं: मेरे दिमाग में कुछ योजनाएं हैंः (1) मेरी कोशिश है कि अंग्रेज़ी में लिखने वाले दलित-बहुजन कवियों, लेखकों और आलोचकों को मैं फेसबुक पर एक साथ लाऊं ताकि अश्वेत आंदोलन की तर्ज पर दक्षिण एशिया में भी आंदोलन शुरू किया जा सके। (2) मैं मलयालम में लिखित दलित कविताओं का अनुवाद करना चाहता हूं। (3) साहित्य के प्रति मेरी गंभीर प्रतिबद्धता है। मुझे उम्मीद है कि अगले कुछ महीनों में मेरी लघु कथाओं के संकलन के लिए मैं प्रकाशक ढूंढ निकालूंगा।

आम्बेडकर के बारे में : डाॅ. आम्बेडकर दलितों को श्रेष्ठता हासिल करने के लिए जीजान से कोशिश करने की प्रेरणा देते हैं। हमें इस बुद्धिजीवी की भावनाओं को समझना होगा। वे हमें यह बताते हैं कि हमें किस ओर बढ़ना चाहिए और वे हमारे और हमारे आंदोलन के लिए एक नैतिक कुतुबनुमा हैं। परंतु हमें उन्हें देवता का दर्जा देने से बचना होगा।


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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