एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में भारत में जाति सिर्फ अपना रूप बदल रही। निर्जात (बिना जाति का) होने की कोई प्रकिया कहीं से चलती नहीं दिखती। आप किसी के बारे में कह सकते हैं कि वह आधुनिक है, उत्तर आधुनिक है- लेकिन यह नहीं कह सकते कि उसकी कोई जाति नहीं है! यह एक भयावह त्रासदी है। क्या हो जाति से मुक्ति की परियोजना? एक लेखक, एक समाजकर्मी कैसे करे जाति से संघर्ष? इन्हीं सवालों पर केन्द्रित हैं फॉरवर्ड प्रेस की लेख श्रृंखला “जाति का दंश और मुक्ति की परियोजना”। आज पढें प्रेमपाल शर्मा को – संपादक
कोई ऐसा काम है जिसे आधुनिक राज्य, राष्ट्र नहीं कर सकता? गुलामी प्रथा दूर हुई या नहीं? यह सिर्फ भारतीयों या अफ्रीकनों को दास बना कर सुरीनाम, मॉरीशस, अमेरिका आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड तक ले जाने तक सीमित नहीं थी। पहले तो इन्होंने अपने यूरोप, इंग्लैंड के गरीब, वंचितों को ही दास बना कर शुरू किया था। उपनिवेश या कहें तत्कालीन इतिहास की जरूरत थी। फिर आवाज़ उठी तो अमेरिका में ही नहीं दुनिया भर से दास प्रथा, कानूनन हट गई। लेकिन बराबरी का सपना अभी भी दुनिया भर में दूर है। हालांकि भारत में यह दूरी कुछ ज्यादा ही है।
फ्रांसीसी क्रांति ने दुनियाभर को बराबरी, अभिव्यक्ति, भाईचारे का नया दर्शन, नया पैगाम दिया। क्या पूरे यूरोप ने भी उसे तुरंत स्वीकारा था? नहीं। दशकों तक लड़ाइयां, मारकाट रही, लेकिन बराबरी आकर रही। इस बराबरी ने ही यूरोप को वहां स्थापित किया- सुख, समृद्धि में– जहां आज है। दुनियाभर को ज्ञान, विज्ञान, दर्शन दिया उसी की बदौलत हम बीसवीं और इक्कीसवीं सदी पर नाज करते हैं।
लेकिन स्त्री के संदर्भ में बराबरी का यह सपना यूरोप में सबसे बाद में आया। स्त्री को मत का अधिकार तो महज पिछले सौ वर्ष में अनेक प्रतिरोध, जनान्दोलनों के बाद मिला है। आश्चर्य कि भारत के स्वाधीनता संग्राम में स्त्री पुरूष की बराबरी की यह बात हवाई तौर पर ही सही, शुरू से रही थी। इंग्लैंड और यूरोप के देशों से भी पहले। लेकिन दुनिया में स्त्री की आजा़दी, मुस्लिम राष्ट्रों को छोड़कर, भारत से कहीं बेहतर है। भारत यहां भी पीछे-पीछे रेंग रहा है। लेकिन उम्मीद जिंदा है।
अंग्रेजी साम्राज्य की सकारात्मक भूमिका
सबसे ज्यादा श्रेय अंग्रेजी साम्राज्य को जाता है, जिसने पहली बार समानता और ज्ञान के दरवाजे खोले। औपनिवेशिक शोषण की लाखों दास्तानों से कहीं ऊपर है बराबरी का दर्शन। ज्ञान-विज्ञान, तर्क का प्रचार-प्रसार। अलोकप्रिय होने की हदों तक जाकर भी उन्होंने भारतीय समाज की क्रूरता, निशंसताओं के खिलाफ आवाज उठाई, कानून बनाए और कहें कि सभ्यता सिखाई। क्या सती प्रथा को याद कर क्रोध, भय, ग्लानि से आपके रोंगटे खड़े नहीं होते? क्या महानता थी इसमें? धर्म, झूठी शान की अफीम कितना क्रूर बना देती है। दुनिया भर में कम ही ऐसे उदाहरण मिलेंगे। क्या कर रहा था हिन्दू धर्म और उसकी मनु स्मृति, पुराण, वेद, उपनिषद और मुस्लिम शासक? सिर्फ ताजमहल या जामा मस्जिद बनाकर आप सभ्यता और संस्कृति का ढिंढोरा नहीं पीट सकते। तत्कालीन शासन और दोनों धर्मों की दुरभिसंधि का सबसे अमानवीय चेहरा था, सती प्रथा, परदा प्रथा, ठगी प्रथा, बाल विवाह या विधवा विवाह, अंग्रेजी शासन ने अपने शासन को बचाते हुए जो भी संभव था किया। शासन होता ही इसलिए है, इसलिए जाति उन्मूलन में उससे उम्मीद अपेक्षित है।
भारतीय समाज, विशेषकर हिन्दू समाज की सबसे बड़ी बुराई, व्याधि, जाति प्रथा के विरोध का श्रेय भी अंग्रेजी साम्राज्य को है। यों भक्तिकालीन संत कबीर, रैदास ,नानक आदि भी जाति ,धर्म के खिलाफ आवाज उठाते रहे थे, लेकिन इनकी आवाजें नक्कारखाने में तूती से आगे नहीं बढ़ पायीं। कुछ-कुछ शुरुआत राजा राम मोहन रॉय आदि करते हैं। लेकिन वह भी ब्रिटिश व्यवस्था तर्क के आलोक में। असली शुरुआत होती है महात्मा फुले और सावित्री फुले से। क्यों? कैसे? दोनों ने जाति प्रथा के दंश, अपमान झेले थे। लेकिन तभी उन्हें इसाई मिशनरी स्कूल का अनुभव हुआ। मानो उनको ज्ञान प्राप्ति हो गई। आखिर यह असमानता क्यों- मनुष्य-मनुष्य के बीच जाति की, धर्म की, स्त्री पुरुष के बीच अधिकारों की? यह संभव हुआ अंग्रेजी ज्ञान और उनके बराबरी के दर्शन से। आगे चलकर सर सैयद अहमद खान, जिन्हें मुसलमानों को शिक्षित, आधुनिक बनाने की शुरुआत का श्रेय जाता है, उनकी आंखें भी, इंग्लैंड जाकर खुली –वर्ष 1870 के आसपास। वे अंग्रेजों की प्रगति, सुख शांति पर चकित हुए और बार-बार अपनी कौम की जाहिली, धर्मांधता, अशिक्षा को धिक्कारते हैं। अंग्रेजो की उन्होंने मन से प्रशंसा की ओर अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की नींव डाली। हॉलांकि स्त्री शिक्षा के वे वैसे हिमायती नहीं थे, जैसे महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्री फुले।
क्या आंबेडकर, भारत रत्न बाबा साहेब आंबेडकर बन पाते यदि अमेरिका, इंग्लैंड में पढ़कर उस समाज की बराबरी से प्रभावित नहीं होते? आजा़दी की लडा़ई के सभी सूरमाओं- गाँधी, नेहरू, नौरोजी, सुभाष, भगतसिंह ने लोकतंत्र की शिक्षा यूरोप, अमेरिका,रूस से पाई। आज भारत जहां है, यह सबकी साझी विरासत का नाम है। कुछ सफल, ज्यादातर असफल।
लेकिन जातिप्रथा का नासूर खत्म होने के बजाए बढ़ता क्यों गया? क्यों तमिलनाडु के लेखक को जाति दंश में जीते जी अपने को मृत घोषित करना पड़ता है? क्यों रोज-रोज दलितों पर अत्याचार की घटनाएं सामने आती हैं? क्यों मई 2016 में भी महाराष्ट्र के गांव का सवर्ण दलित मजदूर को अपने कुएं से पानी पीने से मना कर देता है? क्यों सत्तर साल के बाद अभी भी मैला सिर पर रखकर ढोने की प्रथा चली हुई है?
जिम्मेदारी हम सब की है। कोई भी दूध का धुला नहीं है। न सरकारें, न राजनीतिक दल, न धर्म के पंडे पुजारी, न बुद्धिजीवी और न नये दलित नौकरशाह, या पार्टियों के भोंपू।
नेहरू की भूल
आजादी मिलने तक गांधी जी की वजह से सब ठीक-ठाक चलता है। बाबा साहेब को भी केबिनेट में जगह मिलती है। थोड़ा ठहरकर सोचें तो नेहरू में जिन्ना और आंबेडकर दोनों से मुक्ति की छटपटाहट है, लेकिन गांधी जी को जीते जी नजर अंदाज नहीं कर सकते। लेकिन गांधी जी की हत्या के बाद कांग्रेस नेहरू के नेतृत्व में उन्हीं सत्ता के हथकंडों को अपनाती है, जैसा दुनिया भर की सत्ताएं- डिवाइड एंड रूल! लोकतंत्र यहीं से भीड़तंत्र या वोट बैंक की राजनीति के कुंए में धंसता जाता है। आजादी के संघर्ष के सब सपने, आदर्श सूखते जाते हैं। इसका प्रमाण है पहले आंबेडकर की विदाई फिर श्यामा प्रसाद मुखर्जी, कृपलानी, लोहिया, जय प्रकाश……….। सत्ता का फार्मूला सामने है- कांग्रेस का आजा़दी में योगदान का रातदिन गुणगान, मुसलमानों को भयभीत रखना, हिन्दू सम्प्रदायवादियों के खिलाफ निरंतर प्रचार केन्द्र खोलकर दलित आदिवासियों को आरक्षण की वैशाखी और सवर्ण पंडितों के लिए अपने पंडित, ब्राह्मण होने की चुपचाप छिपी राजनीति। सामाजिक बराबरी, परिवर्तन, समानता, समाजवाद सब गए भाड़ में। ये तो सिर्फ मुखौटे भर बने रहे। फार्मूला हिट ! कांग्रेसी वंशवाद की नींव इतनी मजबूती से इस मुखौटे में आज तक कायम है। दूसरे दल भी इसी के चूजे साबित हुए .
लोकतंत्र को संस्थाओं के खेल से ऊपर उठना होगा। संख्या लोकतंत्र बनाती है तो उसे बरबाद भी करती है। मत भूलिए हिटलर और स्टालिन को। देश का मौजूदा लोकतंत्र जाति को जितना मजबूत कर रहा है, देश को उतना ही कमजोर। मात्र जाति, धर्म की गिनती के खेल से लोकतंत्र परिभाषित नहीं हो सकता। क्या केंद्र सरकार में सभी राज्यों की समानुपातिक हिस्सेदारी है? जितना वहां बिहार, उत्त्र प्रदेश, दिल्ली है उतना गुजरात, कर्नाटक या नागालैंड क्यों नहीं ? उससे भी बड़ा प्रश्न—आधी आबादी महिलाओं की, वे तो सौ वर्ष में भी अपना हिस्सा नहीं पाएंगी- आरक्षण समर्थक हर समय संख्या की डुगडुगी बजाना बंद करें और पूरे समाज के विकास के लिए सकारात्मक क़दमों की बात करें।
जब बाबा साहेब के बनाए संविधान में अस्पृश्यता के खिलाफ इतना स्पष्ट प्रावधान है, बची खुची बातें नीतिनिर्देशक तत्वों में है तो फिर जातिवाद फैलता क्यों गया? जब जातिसूचक नाम लेना भर कानूनन अपराध है, तो स्कूलों के सरकारी नौकरियों में जातिसूचक सरनेम क्यों आज तक लगे हुए हैं? क्यों दंड व्यवस्था ऐसी लचर बनाई गई कि चोर भी चोरी करते रहे और साहूकारों को भी भ्रम बना रहे। प्रोफेसर इम्तियाज अहमद के शब्दों में ‘हम संविधान में सेक्युलर, जातिविहीन हो गए, समाज में तो अभी उतनी ही दूरी पर हैं‘’ तमिलनाडु में दलित राजनीतिक नेतृत्व के बावजूद, समाज में जातिवाद उतना ही कायम है। यही हाल उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों का है। पूजाभाव, ब्राह्मणवादी संस्कार नयी वैज्ञानिक चेतना से ही नष्ट होंगे।
लेकिन इस फार्मूले से केवल नेहरू वंश को ही सत्ता नहीं मिली, देश भर के राजनीतिक दल, क्षेत्रिय पार्टियां, संगठनों ने इसी फार्मूले को और बढ़ाया। यानि कि जाति अस्मिता जितनी गहरी, संगठित, दृश्य होगी, सत्ता हथियाना उतना ही आसान। लोहिया जैसों ने सरनाम आदि हटाने के कुछ कदम उठाए भी, लेकिन जल्दी ही वे भी नेहरू के फार्मूले में समाहित हो गए। यह फार्मूला इनता धांसू है कि वी.पी.सिंह जैसा कांग्रेसी अपने दल से विद्रोह करके मंडल फार्मूला की बदौलत मसीहा बनने की कौशिश करता है, जिसे कांग्रसी वंश की इन्दिरा गांधी भी लागू करने में हिचकिचा रही थी। अर्जुन सिंह, हेमवती नंदन, बहुगुणा, लालू प्रसाद, मुलायम, मायावती से लेकर मौजूदा नरेन्द्र मोदी सरकार उसी फार्मूले की बदौलत सत्ता पर कायम हैं लेकिन जनता में समाज परिवर्तन का भ्रम भी बनाए हुए हैं।
क्या नेहरू को 1947 से 1964 तक मिला सत्रह वर्ष का समय कम था? सामाजिक परिवर्तन की तैयारी तो महात्मा फूले, आंबेडकर, आयंगर, जस्टिस पार्टी, गांधी और ऐसे समानधर्मों राजनेताओं, सुधारकों ने पहले ही कर दी थी। संविधान भी आपके साथ था, पार्टी भी और आपकी अन्य प्रतिष्ठा भी। यह संभव होता यदि नेहरू में गांधी की तरह सत्ता संलिप्त लिप्सा से दूर रहते। नेहरू के सपनों में समाज परिवर्तन तो आटे में नमक बराबर मुश्किल से रहा होगा। गोरों की जगह सिर्फ काले शासक आ गए वरना समाज परिवर्तन की जो लहर आंबेडकर ने पैदा की थी, उसे नेहरू और तटवर्ती कांग्रसी सरकारों ने आरक्षण के झुनझुने में बदल दिया। इतना की भारतीय लोकतंत्र सिर्फ ‘आरक्षण’ शब्द पर सारी कलावाजियां करता रहा है और आज भी कर रहा है।
आंबेडकर का समाज परिवर्तन का आरक्षण से भी बड़ा योगदान हिन्दू कोड बिल है। सिर्फ सामाजिक बराबरी ही नहीं, स्त्री पुरुष के बीच की बराबरी भी उतनी ही जरूरी है। यहां नेहरू पूरे मन से साथ थे और डा. आंबेडकर के इस्तीफे के बाद भी नेहरू पांच सालों में इसके अधिकांश प्रावधानों का पास करा सके। पूरा हिंदू समाज इसका ऋणी है। हिन्दू समाज में गैर बराबरी की कम से कम एक जंजीर तो टूटी।
लेकिन यही एक बड़ा पेंच या कहें नेहरू की वोट-राजनीति का दागदार चेहरा सामने आता है। हिन्दू कोड बिल ठीक था, ठीक है, लेकिन मुसलमानों पर समान कोड लागू क्यों नहीं? आंबेडकर का कहना था कि शीघ्र ही ऐसा सुधार मुसलमान-महिलाओं के पक्ष में भी लाया जाएगा और यदि आंबेडकर जीवित रहते, बावजूद बौद्ध धर्म अपनाने के, वे चुप नहीं बैठते। उनकी समानता का सपना नेहरु की तरह सतही नहीं था, जिस व्यक्ति ने समानता के सपने की खातिर राजनीति छोड़ दी, धरम छोड़ दिया वे धर्म, धर्म के बीच ऐसी कुटिलता के पक्षधर कभी नहीं रहते। मुसलमान मर्द तो भारतीय संविधान से चलना चाहता है लेकिन अपनी पत्नियों को शरीयत से चलाना चाहता है। यदि दुनिया भर में हर नागरिक के लिए समान कानून है तो भारतीय मुस्लिम स्त्री को इससे वंचित क्यों रखा गया है? नेहरू की नजर सत्ता की खातिर साफ थी। मुस्लमानों को खुश रखकर सदा के लिए वोट बैंक में बदलना। इसी का परिणाम हुआ कि सवर्ण हिन्दुओं में बढ़ते आक्रोश को शांत रखने का एक उपाय यह किया गया कि जाति,वर्ण के सांप को वैसा ही सोया पड़ा रहने दो। जाति वर्ण पर चोट कहीं उन्हें कांग्रेस से दूर न कर दे। तू भी खुश, मैं भी खुश।
लेकिन क्या सारे काम फुले, साहूजी महाराज, आंबेडकर, गांधी, नेहरू, कांशीराम ही करेंगे? यदि इस जाति मुक्त समाज के लिए कोशिश नहीं करते तो क्या हम भी उतने ही बड़े अपराधी नहीं होंगे? हिन्दू धर्म के सवर्ण पंडित, पुरोहित तो सदियों से जातिप्रथा की मलाई खा रहे थे, खा रहे हैं, इसीलिए वे कभी भी जातिप्रथा का खात्मा नहीं चाहते। आरक्षण शब्द पर जरूर भड़कते रहते हैं, लेकिन जैसे ही उन्हें जाति से आज़ादी की बात की जाती है, उन्हें सांप सूंघ जाता है।
लेकिन क्या शासन इतनी कमजोर, मिमियाती बिल्ली का नाम है? क्या इन पंडित पुरोहितों ने सती प्रथा, विधवा विवाह का कम विरोध किया था? आ गए रास्ते पर रातों-रात। सत्ता की नीयत साफ हो तो यह आज भी रातों-रात संभव है।
सामाजिक न्याय का भटकाव
जाति प्रथा के नए संरक्षक सामाजिक न्याय के राजनीतिक मसीहा हैं। हों भी क्यों न, वे तो पैदा भी इसी मांद में हुए हैं। भारतीय लोकतंत्र का सबसे से सुनहरा पृष्ठ। हजारों सालों के बाद जिन्हें बराबरी का अहसास हुआ, अस्मिता मिली और सत्ता में राजा बनने के वे अधिकार लोकतंत्र ने दिए जो मानव इतिहास में भारतीय भू-भाग में तो कभी संभव ही नहीं हुए होते, यदि यूरोप में पुर्नजागरण, फ्रासींसी क्रांति नहीं होती या भारत अंग्रेजों का उपनिवेश नहीं बनता। लेकिन क्या लोकतंत्र की यात्रा व्यक्ति ,समुदाय जाति विरोध पर ही खत्म हो जाती है? क्या लोकतंत्र सिर्फ अपनी जाति या धर्म ध्वजा फहराने में ही सार्थकता पाता है? नहीं। यह लोकतंत्र का अपमान है।
फिर सामाजिक न्याय के इन नये मसीहाओं ने मुस्लिम स्त्री की बराबरी की बात क्यों नहीं उठायी? क्या इतनी बड़ी आबादी को आप धर्म की स्वतंत्रता की आड़ में वंचित रख सकते हैं? स्वार्थी, पंडित पुरोहित तो डरे हुए लोग थे कि हमारी जाति छीनने की बात न होने लगे इसीलिए मुसलमानों को ऐसा ही बना रहने दो- एक दूसरे की मूर्खता, आडंबरों के समर्थक,पोषक। क्या मुसलमान भी उतने ही गरीब, अशिक्षित लोग नहीं हैं, बल्कि अनुसूचित जाति, जनजातियों से भी ज्यादा। भला हो मंडल कमीशन का कि कुछ मुसलमानों को भी उसमें हिस्सा मिल रहा है, लेकिन उनके पक्ष में सामाजिक न्याय के नेताओं की चुप्पी क्या बयान करती है? आरक्षण और सामाजिक न्याय के पक्षकारों को तुरंत हिन्दू कोड बिल की तर्ज पर मुस्लिम एक्ट के पक्ष में और पूरे मुस्लिम समाज की आरक्षण में भागीदारी के लिए आवाज उठानी चाहिए। ये दोनों पक्ष जुड़े हुए हैं बराबरी के हक के लिए।
क्या समाज के किसी व्यक्ति की एक टांग छोटी बनी रहे तो वह बराबर दौड़ सकता है? दलित सिर्फ अपने को ही शोषित, वंचित क्यों सिद्ध करने पर तुले रहते हैं। कभी उनकी फिक्र भी करें जो उनसे भी नीचे हैं। सच्चा मानवीय लोकतंत्र तो तभी संभव है। मुस्लमानों को स्वयं भी आगे आकर आवाज़ उठाने की जरूरत है। वे आरक्षण में हिस्सेदारी, दुनियाभर के दर्शन, पैमाने और भारतीय संविधान की बराबरी से चाहते है लेकिन ‘शरीयत’ के सुधार के नाम पर उनमें जलजला आ जाता है। यहां बाबा साहेब आंबेडकर की मुस्लमानों को लेकर कही बात याद आती है। ‘ हिन्दु धर्म में अपनी बुराइयों को कहने की आजादी तो है, मुस्लिम धर्म में तो वह भी नहीं।’ भारतीय अनुभव भी इससे अलग नहीं है। इसीलिए ऐसी सामाजिक विषमताएं।
बहुजनवाद में यदि मुस्लिम, इसाई पारसी शामिल नहीं है तो इसकी सीमाऐं कई प्रश्न पैदा करती हैं। जातिवाद को कायम रखने में सवर्ण हिन्दू, पुरोहितों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर नये अमीर, दलित राजनेता और नौकरशाह भी खड़े हैं। आरक्षित वर्ग जैसे खुलकर मुसलमानों के पक्ष में नहीं है वैसे ही अपनी वंचित विरादरी के साथ भी नहीं ऐसी किसी भी समीक्षा विमर्श को आरक्षण विरोध का नाम देकर उन्हीं पंडितो, मुल्लाओं की तरह भड़क उठता है, जैसे वे वर्ण व्यवस्था या शरीयत में परिवर्तन के नाम पर विरोध करते आये हैं। गांव, देहात कन्याकुमारी से लेकर गाजियाबाद, गाजीपुर, सहरसा तक जातिवाद में वैसे ही फंसे हैं। लेकिन शहरी जीवन में कुछ सुधार आया है। निश्चित रूप से जैसे जैसे शहरीकरण और आधुनिक शिक्षा, शिक्षा, सोच तर्क वैज्ञानिक चिंतन का प्रसार होगा, जातिवाद शब्द अप्रासंगिक होता जाएगा। लेकिन इतने बड़े देश में जब सत्तर साल में इतनी कम तब्दीली आयी है तो अभी न जाने कितने दशक लगेंगे इस रफ्तार से। अत: इस रफ्तार को बदलने की जरूरत है और तुरंत।
क्यों नए उच्च पदों पर आसीन दलित नौकरशाह वैसे ही यथास्थिति की जकड़ में हैं जैसे ब्राह्मण, पोंगा पुरोहित। जाति के अनुपात में आरक्षण जायज है, लेकिन वह उनको क्यों नहीं जाना चाहिए, जिन्हें व्यवस्था ने अभी तक नहीं लेने दिया? अपनी ही जाति में उसे विस्तार देने में क्या हर्ज है? धीरू भाई सेठ, जाने माने समाज शास्त्री और पिछड़ा आयोग के सदस्य, दशकों से इस बात को कह रहे हैं कि आरक्षण खत्म नहीं हो, लेकिन जो व्यक्ति समुदाय उसका जाम उठा चुके हैं उसे बाहर करें जिससे नए वंचितों को जगह मिले। सुप्रीम कोर्ट के भी ज्यादातर निर्णयों में बार-बार यही प्रतिध्वनि आती है। लेकिन जाति संरक्षक राजनीति के चलते सब कुछ ठहर गया है। बल्कि कहें कि उसी दौर में पहुंच रहे हैं जो अंग्रेजों के यहां आने के वक्त अठारहवी सदी में कायम था।
जातिवाद को हटाने में सबसे बड़ी भूमिका शिक्षा की है। आधुनिक तर्कशील, वैज्ञानिक सोच पैदा करने वाली। ‘शिक्षा’ को अलग न समझा जाए। इससे हर नागरिक, वर्ग समुदाय जुडा़ है। वह चाहे राजनीतिज्ञ, मंत्री कार्यपालिका की भूमिका में है या माँ बाप शिक्षक, प्राचार्य, लेखक, वैज्ञानिक पत्रकार, पुरोहित मुल्ला की। धर्म की भूमिका को बदलना होगा और यह सिर्फ दीवारों पर टांगने से संभव नहीं होगा। माना प्रथम प्रधानमंत्री को एक वैज्ञानिक दृष्टि पाने का श्रेय जाता है लेकिन समाज में उसे नहीं उतार पाये तो कुछ जिम्मेदारी तो बनती ही है। लेकिन अपराध हमारा भी कम नहीं है, कब तक आप मनुस्मृति, शताब्दियों तक हुए शोषण अंग्रेजी या मुस्लिम राज को कोसते रहोगे? कांग्रेस या पुरानी सत्ताओं से बदला लेने की भावना भी उदे्दश्य से भटकना है। जातिवाद को सिर्फ आरक्षण के आइने में देखना या दिखाना और सिर्फ सत्ता की खातिर सतत विमर्श भी घोर अपराध की श्रेणी में आता है। नये भारत को नयी पीढ़ी के सपनों आकांक्षाओं से समझने की जरूरत है।
पूरा यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया इसका उदाहरण है। गैलीलियो, डार्विन का विकासवाद, ग्रिगोर मेंडल, मार्क्स, फ्रायड जार्ज ऑरवेल, फ्राएड, डीएच लारेंसे , क्रिपलिंग, टालस्टॉय, जेन आस्टिन से लेकर आइन्सटाइन, वाटसन एंड क्रुक, मिलर जैसे वैज्ञानिको, दार्शनिक चिंतकों, लेखकों के सामूहिक श्रम का परिणाम हैयह सामाजिक परिवर्तन। हमारे सामने तो सिर्फ अपनाने की चुनौती है।
क्या जातियुक्त समाज वाला भारत आधुनिक कहलाने का अधिकारी है? वर्ष 2016 में घोषित सिविल सेवा परीक्षा में एक बेटी टीना डाबी ने टॉप करके पूरे भारतीय समाज को कई संदेश एक साथ दिए हैं कि बेटी वह सब कुछ कर सकती है, जो एक बेटा। उसे बराबरी ,आजादी चाहिए पढ़ने की, आगे बढ़ने की। जब उसकी दलित जाति का प्रश्न भी कुछ स्वार्थी धर्मांध जातिवादियों ने उठाया तो उसको जबाव भी ऐेसे सभी जातिवादियों के लिए तमाचा था। उसका कहना था कि ‘मैं जाति के लिए नहीं, देश और समाज के लिए काम करूंगी।‘
टीना की आवाज़ आधुनिक नए भारत की आवाज, पहचान बन सकती है। बशर्ते कि हम सब जाति की मानसिकता से पहले स्वयं मुक्त हो, फिर समाज, व्यवस्था और सत्ता को भी मुक्ति दिलाने में मदद करें। प्रेमचंद, जगदीश चंद, स्वदेश दीपक ओम प्रकाश बाल्मीकि, संजीव की तरह कथा उपन्यास लिखें, फंड्री, चोरंगा जैसी फिल्में बनाये और नरेन्द्र दाभोलकर की तरह सभी कूप मंडूकताओं के खिलाफ लड़ें। आधुनिक ज्ञान, तकनीक, चेतना, वैश्वीकरण सब मौजूदा वक्त में हमारे साथ हैं। जातिवाद का राक्षस बचकर कहां जाएगा ?