मिलावट बुरी बात है। ज्ञान की खूबी है कि वह हर मिलावट का पर्दाफाश कर देता है। इसलिए इस देश में ज्ञानी को हमेशा सिर-माथे लिया गया है। सैंकड़ों ग्रंथ उनके अवदान और प्रशस्तियों से भरे पड़े हैं। बावजूद इसके ज्ञान ही है, जिसमें सर्वाधिक मिलावट पाई जाती है। धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, क्षेत्रीयता और राष्ट्रवाद के नाम पर कुछ ज्ञानियों ने इस क्षेत्र में इतना घोटाला किया है कि झूठ और सच का पता लगाना चुनौती बन जाता है। खासकर उसके लिए जो ज्ञान पर मानव-मात्र के अधिकार का समर्थक है; तथा उसे मनुष्यता के हक में इस्तेमाल करना चाहता है।
लेख का शीर्षक सैकड़ों सवाल उठाने वाला है। प्रतिक्रियावादियों के लिए एक और मौकाᅳ‘अरे! दलित साहित्य तो था ही, अब ओबीसी साहित्य भी! आखिर क्यों? कौन हैं ये लोग जो देश और समाज को बांटने पर तुले हैं! उन्हें पता होना चाहिए कि साहित्य और साहित्यकार की कोई जाति नहीं होती! संपूर्ण मनुष्यता उनकी जद में होती है! उसपर ये सिरफिरे हैं कि साहित्य को बांटने की जिद ठाने हैं। जातिवाद फैला रहे हैं! छिः!! ये प्रतिक्रियाएं उनकी होंगी जो वर्षों से जाति की मलाई मारते आए हैं। जिन्हें सुधार के नाम से ही चिढ़ है। जातिवाद जिनकी रग-रग में भरा है। उसपर पर्दा डालने के लिए कभी धर्म का सहारा लेते हैं, कभी राष्ट्रवाद का। जो खुद को दूसरों से बहुत-बहुत ऊपर मानते हैं। जिनके मन में समाज को हजार-दो हजार वर्ष पीछे ले जाने का षड्यंत्र हमेशा चलता रहता है। उसके लिए उन्हें चाहे जो करना पड़े। संयोग से इन दिनों माहौल उनके अनुकूल है। इसलिए इस बार उनके तेवर कुछ अलग हो सकते हैं।
आलोचना पूरी तरह हवा में हो यह बात भी नहीं है। ठीक है, ओबीसी में समाजार्थिक रूप से पिछड़ी जातियां आती हैं। यह भी कि देश में उनका कोई एक स्वरूप नहीं है। उनकी सूची प्रदेशानुसार बदलती रहती है। सरकारी योजनाओं की बात अलग है, परंतु साहित्य में जिसका रूप ही समावेशी होता है ᅳयह कैसे माना जा सकता है कि किसी एक प्रदेश में जाति-विशेष के साहित्यकार को ओबीसी की श्रेणी में लिया जाए और दूसरे प्रदेश में उसी जाति के साहित्यकार को छोड़ दिया जाए? अगर ऐसा हुआ तो जाति का प्रश्न और गहराएगा। उस समय साहित्य के नाम पर जातिवाद फैलाने के आरोप से कैसे बच पाएंगे? विशेषकर तब जब जातिवाद के विरुद्ध जंग, साहित्य और साहित्यकार दोनों का पहला संकल्प हो। लेकिन प्रदेशवार जातियों के बदलने की समस्या तो दलित साहित्य के साथ भी है। वहां इस तरह के सवाल नहीं उठते। क्यों? इसलिए कि ‘दलित साहित्य’ जाति के बजाय उपेक्षा और उत्पीड़न का शिकार रहे वर्गों की बात करता है। वर्ग के रूप में ही वह करोड़ों लोगों की अस्मिता और अधिकारों के संघर्ष को विमर्श के केंद्र में ले लाता है। ‘ओबीसी’ स्वयं एक वर्ग है। लेकिन इस वर्ग में आने वाले लोगों के जातीय पूर्वग्रह इतने प्रबल रहे हैं कि खुद को वर्ग के रूप में देखने की प्रवृत्ति बन ही नहीं पाई। जबकि वर्ग-भेद का दंश पिछड़ों ने उतना ही झेला है, जितना दलितों ने। ब्राह्मण ग्रंथों में जो प्रतिबंध अन्त्यजों पर लगाए गए हैं, लगभग वही शूद्र के लिए भी हैं। केवल पेशे के कारण दोनों में वर्ग-भेद पैदा किया गया है।
ओबीसी सरकार द्वारा घोषित श्रेणी है। इस शब्द में वैसी कशिश नहीं है, जैसी इसके समानधर्मा ‘दलित’ में है। ‘दलित’ संबोधन के साथ-साथ दमित तथा दमनकारी जातियों, वर्गों की याद बरबस आ जाती है। तब क्या ओबीसी साहित्य का विचार छोड़ देना चाहिए? परंतु यह तो देश की आधी से अधिक जनता के हितों को लेकर विमर्श की जो संभावना बन रही है, उसपर पानी फेर देने जैसा काम होगा। अतः ‘ओबीसी साहित्य’ के विचार को यदि सफल बनाना है, तो उसके अंदर सम्मिलित जातियों में वैसी चेतना भी पैदा करनी होगी जिससे वे स्वयं को वर्ग के रूप में देख और महसूस कर सकें। यानी कुछ ऐसा हो कि ‘ओबीसी साहित्य’ का नाम आते ही वर्गीय शोषण, उत्पीड़न, दैन्य के साथ-साथ उनके कारणों तथा उन संघर्षों की तस्वीर भी आंखों में तैर जाए जो उन्होंने खुद को दैन्य और दुर्दशा से बाहर लाने हेतु किए हैं। न केवल उन लोगों की आंखों में जो जाने-अनजाने उनके पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार रहे हैं, बल्कि उन लोगों की आंखों में भी जो ‘पिछड़ेपन’ को अपना भूत-भविष्य-वर्तमान मानकर हिम्मत हार चुके हैं। अपनी तरह से साहित्य भी यह काम कर सकता है। करेगा ही। यही इस विमर्श का उद्देश्य है। परंतु इसके लिए उसे आंतरिक और बाह्य चुनौतियों से साथ-साथ गुजरना पड़ेगा। भारत में दलित आंदोलन की लंबी परंपरा है। पूरी संत-परंपरा एक तरह से उनका समर्थन करती है। उन आंदोलनों का संबंध सामाजिक आधार पर पिछड़े वर्गों में से भी था। लेकिन अशिक्षा और वर्गीय चेतना के अभाव में पिछड़े उनसे कम ही प्रभावित हुए। दोष पिछड़ी जातियों का भी है। उन्होंने स्वयं यह भुला दिया कि जिन्हें आज पिछड़ा माना जाता है, उन्होंने प्राचीनकाल में अनेकानेक अगड़े चिंतक इस देश और समाज को दिए हैं। रैक्व, पूर्ण कस्सप, मक्खलि गोशाल, सति, कौत्स, अजित केशकंबलि, महीदास, उपालि, महामोग्गलायन जैसे पिछड़े वर्ग के चिंतकों की लंबी शृंखला है। कमी ज्ञान को सहेजने तथा उनकी परंपरा को आगे बढ़ाने वालों की रही। नतीजा यह हुआ है कि हम पुरावैदिक काल से बुद्धकाल तक के अनेक विचारकों के अवदान, यहां तक कि उनके नाम से भी अपरिचित हैं। सत्ता और धर्म के गठजोड़ ने उस ज्ञान को जो उनकी परंपरा का विरोध करता था, हर तरह से मिटाने की कोशिश की है। उनका छिटपुट उल्लेख बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में है; जो स्वयं ब्राह्मण धर्म के विरोध में जन्मे थे। चूंकि उनके प्रवर्त्तक क्षत्रिय कुलोद्भव थे, इसलिए स्वयं ब्राह्मणों ने उनके दर्शन को सहेजने के लिए समर्पित कर दिया। इसके पीछे उनके वर्गीय स्वार्थ भी थे। ब्राह्मणों, लेखकों ने बौद्ध धर्म के तेज को कम करने, उसका ब्राह्मणीकरण करने का षड्यंत्र किया। ‘दीघनिकाय’ में बुद्ध जादू-टोने, सम्मोहन आदि का विरोध करते हैं। परंतु उत्तरवर्ती बौद्ध-ग्रंथों में वे स्वयं जादू-टोना करते दिखाई पड़ते हैं। षड्यंत्र के चलते ही बुद्ध को विष्णु के अवतारों में जगह दी गई।
वर्गीय चेतना के अभाव में पिछड़ों ने दलितों के साथ ठीक वही व्यवहार किया जैसा सवर्ण उनके साथ करते आए थे। इसका नुकसान दलितों को कम, पिछड़ों को अधिक हुआ। परिवर्तन के दौर में दलित बहुत जल्दी यह समझ गए कि उनके उद्धार के लिए कोई मसीहा आसमान से उतरने वाला नहीं है। ‘अप्प दीपो भव’ᅳकी भावना के अनुरूप वे समझ गए कि जो करना है, उन्हें स्वयं करना होगा। दासता ग्रंथि से ग्रसित पिछड़े देर तक अगड़ों से उम्मीद पाले रहे। बहुसंख्यक होने के बावजूद उन्होंने अपनी शक्तियां जातीय मतभेदों में फंसकर गंवा दीं। ओबीसी साहित्य को विमर्श का विषय बनाते समय सबसे पहली चुनौती लेखकों, साहित्यकारों और पाठकों के मन में यह विश्वास जगाने की होगी कि ‘ओबीसी’ केवल जातीय समूह न होकर एक वर्ग है। उन शिल्पकारों, कर्मकारों और मेहनतकशों का वर्ग, जिसने अपने श्रम-कौशल द्वारा शुरू से आजतक मानवीय सभ्यता को संवारने का काम किया है। इसके लिए उन्हें अपने सुख और सम्मान दोनों की बलि चढ़ानी पड़ी है। ब्राह्मणवाद के जितने शिकार वे हैं, उनसे कहीं अधिक दुख-दर्द दलितों को झेलना पड़ा है, इसलिए जाति और वर्चस्ववाद के विरुद्ध संघर्ष में दलित उनके वास्तविक सहयोगी हैं।
पूंजीवाद की आलोचना में प्रायः कहा जाता है कि वह श्रमिक से उसके श्रम और शिल्पकार से शिल्पकर्म के मूल्य-निर्धारण का काम छीन लेता है। अपनी ओर से उसकी न्यूनतम कीमत तय कर, मजदूरों और शिल्पकर्मियों का शोषण करता है। उस समय मान लिया जाता है कि शिल्पकारों और श्रमिकों का शोषण आधुनिक या उदार अर्थव्यवस्था की देन है। जबकि प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था में अल्प ही सही, इन वर्गों को अपने श्रम के मूल्य को लेकर मोल-भाव करने के अधिकार रहता है। देर-सवेर विकल्प भी मौजूद होते हैं। अन्याय के विरोध में न्यायालयों और अदालतों का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। भारतीय संदर्भ में श्रमिक से उसके श्रम के मूल्यांकन का अधिकार छीन लेना केवल, पूंजीवाद की करतूत नहीं है। यहां यह काम बहुत पहले श्रम-विभाजन के नाम पर जातिप्रथा के माध्यम से शुरू हो चुका था। विराट पुरुष का रूपक अपने आप में इसका गवाह है। वह शारीरिक श्रम की तुलना में बौद्धिक श्रम को वरीयता देता है। रूपक के माध्यम से बताया यह जाता है कि शिखर पर मौजूद लोग अपने ज्ञानानुभव का उपयोग लोक-कल्याण के लिए करेंगे। लगभग ऐसी ही कामना है, जैसी प्लेटो ने दार्शनिक राज्य के रूप में ‘रिपब्लिक’ में की थी। वहां अरस्तु जैसा जागरूक विद्धान था। वह नैतिकता को श्रेष्ठ शासन की अनिवार्य शर्त मानता था। इसलिए अपने गुरु के प्रति संपूर्ण मान-सम्मान के बावजूद उसने दार्शनिक राज्य के सुझाव को अव्यावहारिक मानकर नकार दिया था। भारतीय मनीषियों को अपनी दर्शन-परंपरा पर गर्व रहा है। परंतु यहां दर्शन को या तो पुस्तकों तक सीमित रखा गया, अथवा वानप्रस्थी आश्रम के लिए छोड़ दिया। बाकी सब जगह धर्म ही हावी रहा है। यहां जो बौद्धिक सत्ता थी, असल में वह धर्मसत्ता ही थी। निहित स्वार्थ के लिए यहां आस्था पर जोर दिया गया। परिणामस्वरूप धर्म की आलोचना करना, उसके ऊपर सवाल खड़े करना असंभव-सा हो गया। जिन लोगों ने ऐसा करने की कोशिश की, उन्हें शूद्र और धर्म-विरोधी कहकर नकार दिया गया। चुनौती के अभाव में शिखरस्थ ब्राह्मण अपने बुद्धि-विवेक का उपयोग केवल स्वार्थ-सिद्धि हेतु करने लगे। इसके लिए उन्होंने हर कानून, हर सिद्धांत की मनमानी व्याख्याएं कीं; यहां तक कि अपने ही रचे शास्त्रों को खूब तोड़ा-मरोड़ा। पुरोहितों का जनता पर प्रभाव था। वे जनता को कभी भी राज्य के विरुद्ध उकसा सकते थे। इसलिए राजाओं की हिम्मत न थी कि उनका विरोध कर सकें।
जनता पर पकड़ के चलते पुरोहित वर्ग को प्रसन्न रखना राजा के लिए जरूरी हो गया। इसका अंदाज उसे मिलने वाले वेतन और दूसरी सुविधाओं से लगाया जा सकता है। पुरोहितों और ब्राह्मणों को गांव के गांव दान में देने की परंपरा थी। मौर्य शासन के दौरान उसे राज्य के खजाने से सेनापति और अमात्य के बराबर 48000 पण मासिक वेतन मिलता था। जबकि कुशल शिल्पकार का मासिक वेतन मात्र 120 पण था। इससे उस कालखंड में शिल्पकारों जिन्हें वर्ण-व्यवस्था के अनुसार शूद्रों में स्थान मिला हैᅳकी दुर्दशा का अनुमान लगाया जाता है। यह तब है जब राज्य की आर्थिक समृद्धि का भार पूरी तरह से श्रमिकों और शिल्पकारों के कंधों पर था। जाहिर है शारीरिक श्रम की अनदेखी करना या उसे बौद्धिक श्रम से कमतर आंकना प्राचीनकाल से ही आरंभ हो चुका था। चाणक्य के अर्थशास्त्र और मनुस्मृति में इस बात की व्यवस्था की गई थी कि वर्ण-व्यवस्था में सबसे निचले स्तर पर रखे गए लोग कभी आर्थिक रूप से स्वावलंबी न होने पाएं। यदि वे आर्थिक स्तर पर आत्मनिर्भर हो जाएंगे तो ब्राह्मणों और क्षत्रियों के लिए भोजन या नाम मात्र की वृत्तिका पर रात-दिन मेहनत करने वाले लगभग मुफ्त के सेवक कहां से आएंगे! मनुस्मृति तो ब्राह्मणों को यहां तक अधिकार देती है कि वे शूद्र के पास धन इकट्ठा न होने दे। यदि किसी तरह से शूद्र धन अर्जित कर ले तो ब्राह्मण को यह अधिकार दिया गया था कि उसपर बलात् कब्जा कर ले। इसके लिए अर्थशास्त्र में ब्राह्मणों और क्षत्रियों को परस्पर मिलकर काम करने की सलाह दी गई। कहा गया कि दोनों के हित परस्पर जुड़े हैंᅳ‘ब्राह्मण की सहायता के बिना क्षत्रिय आगे नहीं बढ़ता और क्षत्रिय की मदद के बगैर ब्राह्मण की उन्नति नहीं होती। दोनों मिल-जुलकर रहें तभी लोक-परलोक में सुख प्राप्त कर सकते हैं’(नाऽब्रह्म क्षत्रमृध्नोति नाऽक्षत्रं ब्रह्मवर्धते। ब्रह्मक्षत्रं च संप्रक्तंमिह चामुत्र वर्धतेᅳमनुस्मृति 9/322)। शिखर पर बने रहने के लिए एक दूसरे को समर्थन देने, पारस्परिक हितों की रक्षा करने की नीति आगे चलकर मिथ का रूप ले लेती है। जिसमें तीन प्रमुख देवता इस तरह एक-दूसरे महिमा-मंडन करते रहते हैं कि व्यक्ति भ्रम से बाहर आ ही नहीं पाता।
ब्राह्मण ग्रंथों में शूद्र को विपन्न बनाने, उन्हें आर्थिक-सामाजिक रूप से पराश्रित बनाए रखने की अचूक प्रावधान किए गए हैं। लेकिन आवश्यकतानुसार इस नियम में संशोधन भी होता रहा है। कौटिल्य पूर्व भारत में ब्राह्मण ग्रंथ शूद्रों को शस्त्र उठाने की अनुमति नहीं देते। माना जाता था कि ब्राह्मण सर्वाधिक तेजवंत होता है। तेज की प्रधानता के अनुसार सेना में शूद्र के बजाय वैश्य को, वैश्य के बजाय क्षत्रिय को और क्षत्रिय के बजाय ब्राह्मण को भर्ती किया जाना चाहिए(अर्थशास्त्र, 9/2/21)। चाणक्य की यह सोच अपने पूर्ववर्ती ब्राह्मण आचार्यों जैसा ही था। परंतु परिस्थितियां उसके साथ नहीं थीं। मौर्यकाल में देश पर यवनों के आक्रमण होने लगे थे। अकेले क्षत्रियों से जिनकी अधिकांश ऊर्जा और शक्ति आपस के युद्धों में क्षीण होती रहती थी, देश की सुरक्षा असंभव थी। पुरोहिताई करते-करते ब्राह्मण सत्ता-सुख के अभ्यस्त होने लगे थे। चुनौतियों के बीच शूद्र के युद्ध में भाग लेने संबंधी नियम में संशोधन आवश्यक हो जाता है। ब्राह्मण को युद्ध क्षेत्र से दूर रखने के लिए कौटिल्य अजीब-सा तर्क देता है, जिसे पढ़कर हंसी आने लगती है। उसके अनुसार ब्राह्मण स्वाभावतः उदार होता है, इसलिए ‘शत्रु दंडवत कर युद्धभूमि में उसे पटा लेगा।’(प्राणिप्रातेन ब्राह्मणबलं पराभिहारयेत, अर्थशास्त्र 9/2/23)। परंपरा अनुमति देती तो कौटिल्य कदाचित कहता कि युद्ध करना ब्राह्मण का धर्म ही नहीं है। चूंकि वह पुरोहिताई में रम चुके ब्राह्मणों की कमजोरी से भली-भांति परिचित था, इसलिए बजाए ‘तेजवंत’ ब्राह्मणों के आपातकाल के नाम पर शूद्रों को सेना में भर्ती करने की छूट देता है। इसके लिए उसके तर्क चतुराई-भरे हैंᅳ‘विनयशील ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रियों की सेना श्रेयस्कर है। संख्याबल में अधिक होने के कारण वैश्य-शूद्रों को सेना में भर्ती किया जाना चाहिए’(प्रहरण विद्याविनीतं तु क्षत्रियबलं श्रेयः बहुलसारं वा वैश्यशूद्रबलंमिति, अर्थशास्त्र 9/2/24)। वेदादि ग्रंथ ब्राह्मणों के युद्ध-प्रेम तथा युद्ध के दौरान उनके द्वारा बरती गई क्रूरता के उदाहरणों से भरे पड़े हैं। परशुराम जैसे ब्राह्मण का भी महिमामंडन है, जिसके बारे में बताया गया है कि वह पृथ्वी को कही बार क्षत्रीय-विहीन कर चुका था। इन सब शौर्यगाथाओं(!) के बावजूद वह ब्राह्मणों को युद्ध क्षेत्र से दूर रखना चाहता है तो इसकी दो संभावनाएं हो सकती हैं। पहली, सत्ता-सुख में लिप्त, पुरोहिताई में रमे ब्राह्मण अपना युद्ध-कौशल गंवा चुके थे। दूसरी, उसे लगता था कि प्रशीक्षित यवन-सेना के मुकाबले ब्राह्मणों को खतरे में डालने से उचित था, शूद्रों को उनके आगे झोंक दिया जाए। कौटिल्य की ब्राह्मणों को युद्धक्षेत्र से दूर रखने की सलाह को ‘अर्थशास्त्र’ के पांचवे अध्याय की एक व्यवस्था से जोड़कर देखा जाए तो उसकी नीयत साफ नजर आने लगती है। उसमें वह राजा को सलाह देता हैᅳ‘कोष की कमी होने पर पाषंडसंघों (संभवतः बौद्ध संघों) के द्रव्य को, श्रोत्रिय के उपयोग में न आने वाले देवमंदिर के धन को एक जगह बटोरकर राजकोष में हथिया लेना चाहिए’ (अर्थशास्त्र 5/2/38, मार्क्स और पिछड़े हुए समाज, डॉ. रामविलास शर्मा, पृष्ठ-195)। आगे वह कहता है, ‘देवताध्यक्ष दुर्ग और राष्ट्र के धन के देवमंदिरों का धन एकत्रित करेगा फिर उनका अपहरण करेगा’ (वही)। वह जानता था कि ब्राह्मण देवमंदिरों और बौद्ध संघों में जमा धन के अपहरण हेतु एकाएक तैयार न होंगे। अतः ऐसे अलोकप्रिय कार्य के लिए वह शूद्रों और वैश्यों की सेना बनाने की सलाह देता है। ताकि ब्राह्मणों को क्षमा, धृतिशील और विनम्रता की प्रतिमूर्ति सिद्ध किया जा सके। कहने की आवश्यकता नहीं कि कौटिल्य द्वारा गढ़ी गई ब्राह्मणों की यह छवि आगे चलकर सत्ता से निकटता बनाए रखने में बहुत सहायक सिद्ध हुई।
कौटिल्य मजबूत केंद्र का समर्थक था। राज्य की मजबूती के लिए वह शूद्रों को सेना में भर्ती करने की छूट तक देता है। राजकोष में किसी प्रकार की कमी न हो, इसलिए धर्मालयों में आए चढ़ावे को राज-कल्याण के नाम पर उपयोग करने का नियम बनाता है। मनु वर्णाश्रम धर्म को लेकर इतना उदार नहीं था। शूद्रों और वैश्यों को लेकर जो डर कौटिल्य को था, मनु का डर उससे कहीं ज्यादा बड़ा था। डर यह कि यदि शूद्रों को युद्ध में जाने का अवसर मिला, तो युद्ध-कौशल में प्रवीण शूद्र अपने संख्याबल के आधार पर, क्षत्रियों और ब्राह्मणों के मुकाबले बड़ी आसानी से युद्ध जीत सकते हैं। इसलिए वह वर्णाश्रम व्यवस्था के कड़े नियम बनाकर समस्त संभावनाओं का पटाक्षेप कर देता है। इसका असर शताब्दियों तक रहता है।
उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि शूद्रों ने मनु की व्यवस्था को ज्यों का त्यों मान लिया था और वर्णाश्रम व्यवस्था का कोई विरोध था ही नहीं। ब्राह्मण ग्रंथों में विरोध का कोई उल्लेख नहीं है। उन्हें पढ़कर लगता है कि शूद्रों उस व्यवस्था के प्रति पूर्णतः समर्पित थे और उनकी ओर से विरोध जैसी कोई बात न थी। वास्तविकता यह है कि उस समय भी समाज का बड़ा वर्ग ब्राह्मणवाद के प्रतिकार में खड़ा था। बल्कि यह कहना अथिक सार्थक होगा कि ब्राह्मण धर्म का प्रभाव सीमित लोगों तक था। ‘ब्रह्मजालसुत्त’ में बुद्ध ने अपने समकालीन 62 दार्शनिक सिद्धांतों के बारे में बताया है।उनमें कम से कम चार नास्तिक परंपरा के दर्शन हैं। दूसरी ओर जैन प्राकृत ग्रंथ ‘सूत्रकृतांगसुत्त’ के आधार पर बनाई गई सूची में 363 विभिन्न प्रकार के दार्शनिक संप्रदायों का उल्लेख है। उनमें नास्तिक परंपरा के 183-84 अक्रियावादी, 67 संशयवादी तथा 32 वैनायिकः(आजीवक), अर्ली बुद्धिस्ट थ्योरी ऑफ नॉलिज, कुलित्स नंद जयतिलके, पृष्ठ 116, मत गिनाए गए हैं। बाकी 180 को क्रियावादी कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि लोगों में श्रमण-परंपरा के दर्शनों पर ज्यादा विश्वास था। समाज का बड़ा वर्ग ब्राह्मणवादी विचारधारा की पकड़ से बाहर था। आगे चलकर लोकायत, चार्वाक, आजीवक, श्रमण, बौद्ध और जैन दर्शनों को मिली ख्याति इसी का परिणाम थी। ‘शांतिपर्व’(59/97) में पर्वतों और वनों में रहनेवाले निषादों और मलेच्छों का वर्णन है, जो तत्कालीन वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थकों के लिए चुनौती बने हुए थे। बेशम के अनुसार गंगातट के सभी प्रमुख नगरों में आजीवकों की बस्तियां थीं। आजीवक धर्म का प्रभाव समाज के सभी वर्गों, विशेषरूप से उन्नतिशील व्यापारी समुदाय के बीच था।’(बेशम, हिस्ट्री एंड डॉक्ट्रीन ऑफ आजीवक्स, पृष्ठ 133-134)।पोलसपुरवासी सदलपुत्त नाम के एक कुम्हार का उल्लेख जैन ग्रंथों में मिलता है। वह 500 कुम्हार परिवारों का मुखिया था। उसके अधीन नावों का बेड़ा था, जो पूरी गंगा तट पर फैला हुआ था। जैन और बौद्ध ग्रंथों में कांपिल्यपुरवासी करोड़पति महाश्रेष्ठि कुंदकोल्यि का भी उल्लेख है। उसके पास अकूत स्वर्ण-संपदा और पशुधन था। वह आजीवकों का समर्थक था। इस तरह के और भी कई प्रमाण हैं, जो दिखाते हैं कि ब्राह्मणधर्म के विकास के आरंभिक चरण में अधिकांश शूद्र अनीश्वरवाद में भरोसा रखते थे। कालांतर में उन्हीं का एक हिस्सा बौद्ध और जैन धर्मों की ओर आकृष्ट हुआ।
‘पंचविश ब्राह्मण’ पूर्ववर्ती ब्राह्मण ग्रंथों में से है। उसके अनुसार शूद्र का जन्म उस समाज में हुआ जहां ईश्वर का अस्तित्व नहीं माना जाता था। वहां यज्ञ का आयोजन भी नहीं होता था। परंतु उनके पास बहुत-से मवेशी रहते थे।’(पंचविश ब्राह्मण 6,1,2)। बेशम ने ऐसे कुंभकार परिवार का उल्लेख किया, जो मालिक की ज्यादतियों के विरोध में उठ खड़ा होता है। उन दिनों शूद्र कामगारों के विरोध का सबसे प्रचलित तरीका था, काम छोड़कर चले जाना। एक जातक के अनुसार लकड़हारों की एक बस्ती को काम करने के लिए पहले ही भुगतान कर दिया गया था। किसी कारणवश वह समय पर काम पूरा नहीं कर सका। जब उसपर बहुत ज्यादा दबाव डाला गया तो लकड़हारे ने अपने परिवार के साथ मिलकर चुपचाप एक नाव बनाई और पूरा परिवार रातों-रात बस्ती खाली कर वहां से कूंच कर गया। वे लोग गंगा नदी के साथ-साथ चलते हुए समुद्र तक पहुंचे। समुद्र के भीतर भी उस समय तक चलते रहे जब तक उन्हें उपजाऊ द्वीप नहीं मिल गया। (शूद्रों का प्राचीन इतिहास, रामशरण शर्मा, पृष्ठ 130)। मनु ने बौद्धों तथा वर्णाश्रम व्यवस्था का विरोध करने वाले आजीवकों को वृषल (शूद्र) की संज्ञा दी है। बेशम के अनुसार वायुपुराण जो गुप्तकाल का ग्रंथ है, के आसपास आजीवकों को शूद्र मान लिया गया था। ग्रंथ इस बात की भी गवाही देते हैं कि ब्राह्मणों ने हर उस व्यक्ति या समुदाय के सदस्य को शूद्र मान लिया था, जो उनके धर्म तथा श्रेष्ठत्व को चुनौती देता था।
मनुष्य की स्वाभाविक कमजोरी कि वह केवल उन्हीं बातों को गंभीरता से लेता है, जिनका सत्ता से निकट-संबंध हो। ब्राह्मणों को इसी का लाभ मिला। बुद्ध और महावीर भी भली-भांति समझते थे कि प्रजा अपने राजा का अनुसरण करती है। इसलिए अपने धर्म-दर्शन को लोकप्रिय बनाने के लिए उन्होंने सत्ता का भली-भांति इस्तेमाल किया। बुद्ध ने जाति-आधारित असमानता का विरोध किया था। लेकिन जाति और वर्ग संबंधी ऊंच-नीच, दासप्रथा से उन्हें बहुत अधिक शिकायत न थी। उनके सारे प्रवचन या तो किसी सम्राट की पहल पर होते थे अथवा श्रेष्ठि के उपवन में। अपने विशेषाधिकारों के साथ ब्राह्मण भी सदैव सत्ता के निकट बने रहे। जितना उनसे बन पड़ा, उन्होंने ब्राह्मणेत्तर वर्गों को सत्ता से दूर रखने की भरपूर कोशिश की। सीता की ‘अग्निपरीक्षा’ का उल्लेख रामायण में है। वर्षों पूर्व मध्यभारत के किसी ऐसे तालाब के बारे में कहीं पढ़ा था, जिसे नए ग्रंथों की परख के लिए इस्तेमाल किया जाता था। उसके लिए पांडुलिपि के बजाय उसके अध्ययन के ‘पवित्र तालाब’ के सुपुर्द कर दिया जाता था। जो पोथी डूब जाती, उसे व्यर्थ मान लिया जाता था। लेख में बताया गया था तैर न पाने के कारण लगभग पांच हजार पांडुलिपियां उस तालाब में समाई हुई थीं। बाद में तालाब को मिट्टी से पाटकर उन्हें हमेशा के लिए दफना दिया गया। यह पुरोहित वर्ग की मौलिक ज्ञान के प्रति असहिष्णुता का उदाहरण है। पुराणों और महाकाव्यों में उसने बातों का जो बबंडर खड़ा किया है, उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए हीगेल ने कहा थाᅳ
‘भारतीयों के पास राजाओं की कतार है, असंख्य देवी-देवता हैं, लेकिन उनमें से कोई भी संदेह से परे नहीं है।’
ब्राह्मणों ने अपने धर्म को सदैव ही राष्ट्र से बढ़कर माना है। कोई भी सम्राट जो प्रजा की दृष्टि में भले ही अनर्थकारी हो, यदि वह ब्राह्मणों के अधिकारों और हिंदुओं के बीच उनके शिखरत्व का समर्थन करता था, तो उन्हें उसकी सत्ता से कोई आपत्ति न थी। हिंदू समाज का मस्तिष्क कहे जाने वाले ब्राह्मणों की इस दुर्बलता का लाभ प्रायः सभी विदेशी आक्रांताओं ने उठाया। मुस्लिम आक्रामक केवल इस्लाम का परचम लहराने भारत आए थे। परंतु यह देश उन्हें इतना अधिक पसंद आया कि उन्होंने यहीं बसने का मन बना लिया। उस समय समाज का मस्तिष्क होने का दावा करने वाले ब्राह्मणों ने आक्रमणकारियों का मुकाबला करने के लिए देश को तैयार करने के बजाय अपने शीर्ष स्थान की सुरक्षा करना उचित समझा। औरंगजेब ने जब सख्ती बरती तो वे भड़क गए और पुनः देश की आत्मा को जगाने के बजाय ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों द्वारा बंगाल के राजा पर विजय का स्वागत किया। इसी अवसरवादी दृष्टिकोण के चलते वे लंबे समय तक भारतीय समाज के शिखर पर बने रहे। उनकी सत्ता को पहली चुनौती मैकाले की ओर से मिली। 1861 में सभी भारतीयों के लिए एक समान दंड संहिता बनाकर उसने ब्राह्मणों के शताब्दियों से चले आए रहे वर्चस्व का अंत कर दिया।इसीलिए मैकाले उनकी निगाहों में सबसे बड़ा खलनायक है।
अप्रासंगिक से लगने वाले इस विवेचन का उद्देश्य मात्र यह दर्शाना है कि ओबीसी साहित्य का मुख्य संघर्ष सांस्कृतिक वर्चस्ववाद से बाहर आने का है। संस्कृति की लड़ाई राजनीतिक लड़ाई से बड़ी और महत्त्वपूर्ण है। आज देश में लोकतंत्र है। संख्याबल के आधार पर पिछड़े राजनीति में अगड़ों के लिए चुनौती बने हुए हैं। इसलिए वे तरह-तरह के प्रपंच रचकर लोगों को भरमाने में लगे रहते हैं। इसलिए यह समझना और समझाना बेहद जरूरी है कि बगैर सांस्कृतिक वर्चस्व से बाहर निकले सामाजिक परिवर्तन का लक्ष्य असंभव है। इन दिनों समाज में जातिबंधन शिथिल पड़े हैं। बावजूद इसके समाज में ऐसे लोगों की अच्छी-खासी संख्या है जो आज भी दो हजार वर्ष पुरानी मानसिकता में जीते हैं। जिन्हें मनु का वर्ण-विधान आदर्श लगता है। कुछ दबावों के चलते वे प्रकट में भले ही कुछ न कह पाएं, परंतु उनका सोच और हर प्रयास इस देश और समाज को हजार-दो-हजार वर्ष पीछे ले जाने के लिए होता है। चूंकि ऐसे लोग अपने मनसूबों को छिपाए रखने में माहिर हैं, इसलिए उनकी पहचान करना और निपटना आसान नहीं हैं। इसलिए ओबीसी साहित्यकारों की चुनौतियां बड़ी और लंबे समय तक चलने वाली होंगी। उन्हें एक ओर तो अपने ही साथियों को साहित्य की इस नई धारा से जुड़ने के लिए तैयार करना होगा। साथ ही साहित्य के मानवतावादी स्वरूप को बनाए रखने के लिए उन्हें उन स्थितियों से भी जूझना पड़ेगा जो उनके पिछड़ेपन का कारण बनती आई हैं। इनमें जाति के अलावा धर्म भी सम्मिलित है।
उन्हें समझना होगा कि हिंदू धर्म और जाति का नाभि-नाल का संबंध है। दोनों एक दूसरे का पोषण करते हैं। जानना होगा कि धर्म ब्राह्मण के लिए ठीक ऐसे ही धंधा है जैसे मोची के लिए जूते गांठना, ग्वाला के लिए दूध दुहना, गड़हरिया के लिए पशु चराना। उन सबका ज्ञान अनुभव के साथ निखरता जाता है। पुरोहिताई के साथ ऐसा नहीं है। यह कहते हुए कि जो पुराना है, वही सत्य-सनातन है, उसमें फेरबदल की सोचना भी पाप हैᅳब्राह्मण बार-बार अतीत की ओर लौटता रहा है। धर्म में सिवाय डर के कुछ भी मौलिक नहीं है। इस डर को स्थायी बनाने, पुरातन को सनातन सिद्ध करने के लिए ब्राह्मण अपने धंधे के साथ चतुराईपूर्वक पवित्रता का मिथ जोड़ देता है। अतः इस धारणा ने कि ज्ञान पर केवल ब्राह्मणों का एकाधिकार है। एकमात्र वही वास्तविक चिंतक और पथ-प्रदर्शक हैᅳइंसानियत का काफी नुकसान किया है। इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ, जब केवल और केवल ब्राह्मण ज्ञान-संपदा के इकलौते स्वामी और संवर्धक रहे हों। हालांकि ब्राह्मणों की ओर से यह दावा हमेशा बना रहा।
आज जिसे हिंदी साहित्य के नाम से जाना जाता है, वह मुख्यतः ब्राह्मणों द्वारा, ब्राह्मणों के हितों की सुरक्षा के लिए रचा गया साहित्य है। अपवाद रूप में कुछ भले लोगों को छोड़ दिया जाए तो वे पक्के जातिवादी हैं। कदम-कदम पर जातिवाद परोसते आए हैं। अगर ओबीसी साहित्यकार ऐसे लोगों से अपनी जातीय पहचान के साथ संवाद करेगा तो वे कभी उसे गंभीरता से नहीं लेंगे, क्योंकि ब्राह्मणवादी नजरिया उसके बारे में शूद्र से बढ़कर सोचने को तैयार न होगा। लेकिन यदि वह देश की आधी से अधिक जनता के प्रतिनिधि के रूप में संवाद करेगा तथा उसके सपनों और संघर्षों को साहित्य में लेकर आएगा तो देर-सवेर उन्हें साहित्य की इस नई धारा को गंभीरता से लेना ही पड़ेगा। परंतु यह कह देना जितना आसान है, करना उतना ही कठिन है। समस्या यह नहीं है कि शताब्दियों से हिंदी साहित्य पर कुछ खास जातियों का कब्जा रहा है; और तीन-चौथाई लोग उसी को वास्तविक साहित्य मानते आए हैं। समस्या यह है कि शोषण सहते-सहते तीन-चौथाई लोगों मे से अधिकांश को शोषक की भूमिका में आने में ही अपनी मुक्ति नजर आती है। इससे बचाव का एकमात्र रास्ता यही है कि ओबीसी साहित्यकार अपने लेखन में, व्यवहार में लोकतांत्रिक हो।
‘ओबीसी साहित्य’ की मांग फिलहाल भले ही अवधारणा तक सीमित हो, इसकी संकल्पना नई नहीं है। न ही वह शून्य से उपजेगा। सभ्यता और संस्कृति के विकासकाल से ही उसका अस्तित्व रहा है। इसलिए ओबीसी साहित्य को रचने से बड़ी चुनौती परंपरा से अर्जित साहित्य को सहेजने तथा ओबीसी हितों के अनुरूप उसकी पुनर्व्याख्या की होगी। कुछ सवाल इस बीच उठेंगे ही। मसलन ओबीसी साहित्य का आधार क्या है? उसके सौंदर्यबोध की परख की कसौटी क्या होगी? क्या दलित साहित्य की तरह ओबीसी साहित्य का दायरा भी गैर ओबीसी के लिए बंद होगा? भारतीय संस्कृति की सुदीर्घ परंपरा में से अनुकूल को चुनने तथा तथा अप्रासंगिक को छांट देने की उसकी कसौटी क्या होगी? ओबीसी साहित्यकार को इन सब सवालों का हल खोजना होगा। जिन कुरीतियों से साहित्य संघर्ष करता आया है उनमें से एक जातिवाद भी है। इसलिए अच्छा तो यही है कि साहित्य का जातिवाद के नाम पर विभाजन न हो? इन सबसे ज्यादा यह महत्त्वपूर्ण है कि समाज का जाति के आधार पर विभाजन न हो? यह नहीं हो सकता कि समाज में जाति रहे और साहित्य से जाति का जनाजा पूरी तरह उठ जाए। ओबीसी साहित्य पर जातिवादी होने का आरोप लगाने वालों के लिए एक उत्तर यह भी हो सकता है कि जातियों का विधान ओबीसी(शूद्र) ने नहीं रचा। उसकी कोशिश तो इस जंजाल से हमेशा पीछा छुड़ाने की रही है।
वे चाहें तो इसे सांस्कृतिक वर्चस्ववाद के विरुद्ध संघर्ष का नाम दे सकते हैं।
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Well written article, thanks to Sh .Omprakash Kashyap to give us such a well analyzed article. Hope so in future the Forward press will give more space to the article of such standard.
Rao
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