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अब आदिवासी अपने शत्रुओं की पहचान कर सकते हैं : शिबू सोरेन

दिशोम गुरू शिबू सोरेन से नवल किशोर कुमार ने झारखंड की राजनीति, झारखंड आंदोलन, आदिवासियों के संघर्ष, लालू प्रसाद से अपने रिश्ते और परिवारवाद आदि विषयों पर बात की है

देश में आदिवासी आंदोलन के पुरोधा शिबू सोरेन का राजनीति में आना और छा जाना एक महत्वपूर्ण परिघटना कही जा सकती है। वजह यह है कि बिरसा मुंडा जैसे महानायकों ने जल, जंगल और जमीन पर कब्जे के खिलाफ़ जो आंदोलन शुरु किया था, उसे राजनीतिक रुप से जीतने का श्रेय शिबू सोरेन को जाता है। हालांकि उम्र के चौथे चरण में पहुंच चुके दिशोम गुरु स्वास्थ्य के कारणों से अब राजनीति में पहले जितने सक्रिय नहीं रहे, लेकिन जमीनी संघर्ष अब भी जारी है। आज भी समाज के लोगों से उनका जुड़ाव वैसा ही है जैसा कि शुरु से रहा है। 10 दिसंबर 2016 को शिबू सोरेन ने बोकारो के चीराचास स्थित अपने फार्म हाउस पर बातचीत के दौरान अपनी स्पष्ट और सपाट शैली में हर सवाल का जवाब दिया :

नवल किशोर कुमार दिशोम गुरू शिबू सोरेन के साथ

लोग आपको दिशोम गुरु क्यों कहते हैं? क्या इसकी कोई खास वजह है?

दिशोम गुरु लोगों ने मुझे क्यों कहा, यह तो मैं नहीं जानता। मैं तो यह भी नहीं जानता कि मुझे यह उपाधि किसने दी। रही बात दिशोम शब्द की तो मेरे हिसाब से यह देश और दुनिया से संबंधित है।

आपका बचपन मुश्किलों में बीता। आपके पिता सोबरन सोरेन की हत्या उस समय कर दी गयी थी जब आप छोटे थे। उन दिनों के अनुभव साझा करें।

बात बहुत पुरानी है। उन दिनों मैं और मेरे बड़े भाई राजा राम सोरेन दोनों गोला में एक हास्टल में रहकर पढते थे। बाकी के तीन भाई और दो बहनों के साथ पिताजी रहते थे। पिताजी तब बरलंगा में ही एक स्कूल में शिक्षक थे। बरलंगा हमारे गांव नेमरा से करीब चार किलोमीटर दूर है। तब उन दिनों सड़क नहीं थी। 27 नवंबर 1957 की सुबह पिताजी हम दोनों भाइयों के पास गोला आने के लिए निकले तो रास्ते में हत्यारों ने उनके उपर फ़रसा से हमला किया। उनकी मौत वहीं हो गयी और बहुत देर के बाद घर के लोगों को इसकी जानकारी मिली। देर शाम हम दोनों भाईयों की जानकारी मिली तब हमलोग भी पहुंचे। पिताजी के जाने के बाद घर में आर्थिक संकट आ गया। हालांकि पिताजी थे तब भी हमलोग काफ़ी गरीब ही थे। उन दिनों पिताजी को तीस रुपए वेतन के नाम पर मिलता है। आजकल तो कई-कई हजार मिलते हैं, लेकिन पहले की पढाई और अब की पढाई में कितना अंतर है। मेरे पिताजी शिक्षक तो थे ही, साथ ही वे गरीब आदिवासियों को जागरुक भी करते थे। खासकर महाजनों की सूदखोरी से बचाने के लिए उन्होंने जमीनी स्तर पर आंदोलन किया था।

महाजन पहले तो गरीब आदिवासियों को बहला-फ़ुसलाकर धान आदि दे दिया करते थे। इसके बाद जैसे ही लोगों के खेत में धान तैयार हो जाता वे धान लेने पहुंच जाते थे। हालत यह हो जाती कि किसानों के पास अपनी उपजायी धान महाजन लेकर चले जाते थे और गरीब आदिवासी फ़िर उनके पास से ही अपना ही धान कर्ज के रुप में लेने को मजबूर हो जाते थे। उनका कर्ज का सिस्टम भी ऐसा था कि पीढी दर पीढी चलता था। मुझे याद है कि मेरे घर से भी महाजन हर साल 15 से 20 मन धान ले जाते थे। पिताजी ने तभी इसका विरोध किया। आसपास के गांव के लोगों को बुलाकर मीटिंग हुई और तय किया गया कि महाजनों के गांव(बड़का गांव) के बाहर विरोध किया जाय।

पिताजी इस जमीनी संघर्ष के अगुआ थे। वे सब समझते थे। यहां तक कि सरकारी अधिकारी भी कई मामलों में पिताजी के पास आकर सलाह आदि लिया करते थे। पिताजी ने पहले ही लोगों को समझा रखा था कि कोई भी महाजनों के गांव में प्रवेश नहीं करेगा। न तो किसी औरत को परेशान करेगा और न कोई तीर-धनुष चलायेगा। थाना वगैरह को भी पहले ही सूचित कर दिया गया था। मीटिंग हुई और सबने मिलकर यह तय किया कि अब महाजनों को कोई धान नहीं देगा और न ही उनसे धान लेगा। लेकिन महाजन भी बड़े चालाक थे। उनलोगों ने गांवों में अपने दलाल रखा था। लेकिन पिताजी के आंदोलन के कारण उनकी एक न चली और पूरे इलाके में महाजनों के खिलाफ़ आंदोलन निर्णायक दौर में पहुंच चुका था।

उन दिनों आदिवासी समुदाय की लड़ाई क्या केवल महाजनों अथवा दिकुओं तक सीमित थी या इसका कोई और विस्तार भी था?

महाजन कमजोर नहीं थे। वे पढ़े लिखे तो थे ही। पुलिस और सरकारी अधिकारियों तक उनकी सीधी पहुंच थी। लेकिन आपने सही कहा कि उन दिनों की लड़ाई केवल महाजनों तक सीमित नहीं थी। असल लड़ाई तो जल, जंगल और जमीन की थी, जिसपर बड़ी तेजी से गैर आदिवासी अपना कब्जा करते जा रहे थे। आजादी के बाद समान किराया अधिनियम ने इस लूट का विस्तार किया। झारखंड तब बिहार का हिस्सा था और यहां का खनिज पूरे देश में ले जाया गया। यह बिल्कुल वैसा ही था जैसा कि अंग्रेजों के समय में हिन्दुस्तान की हालत थी। मेरे हिसाब से यदि हिन्दुस्तान सोने की चिड़िया थी तो इसकी मूल वजह झारखंड और अन्य आदिवासी बहुल राज्य ही थे। दुर्भाग्य यह रहा कि आजादी के बाद भी लूट में कोई कमी नहीं आयी। हमारी नजरों के सामने हमारी धरती के कलेजे को चीरकर खनिज निकाला जा रहा था और हम बेबस थे। हमारे अधिकार जबरन छीने जा रहे थे।

एन. ई. होरो के साथ मिलकर अलग झारखंड बनाने को राजनीतिक संघर्ष की वास्तविक रूप रेखा क्या थी?

देखिए पहले तो मैं आपको बता दूं कि पहले मैं राजनीति से बहुत दूर था। पिताजी की हत्या के बाद मां ने गहने आदि बेचकर किसी तरह हम सभी भाई बहनों को पढ़ाया। होरो साहब की सभाओं में मैं भी कई बार केवल देखने के लिहाज से गया था। मैंने उनकी पार्टी की सदस्यता कभी नहीं ली। वे झारखंड की लड़ाई लड़ रहे थे। उनकी लड़ाई में हम सभी साथ थे। सभी चाहते थे कि जिस तरीके से 1935 में उड़ीसा को बिहार से अलग किया गया, झारखंड को भी अलग किया जाय। इसकी ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनीतिक कारण थे। बिहार के नेतागण तब झारखंड के हितों को नजरअंदाज करते थे।

चिरूडीह कांड को झारखंड की राजनीति में मील का पत्थर माना जाता है। इसके बारे में आप क्या कहेंगे?

चिरुडीह कांड और एक गिरिडीह में हुआ कुकडो कांड बहुत महत्वपूर्ण साबित हुआ। हालांकि ये दोनो लड़ाईयां भी महाजनों के खिलाफ़।आदिवासी लोगों को उनके हक से वंचित किया जा रहा था। विरोध करने पर उन्हें ही शिकार बनाया जा रहा था। तब पटना में बैठे हुक्मरान भी हम आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा को लेकर संवेदनहीन थे। दोनों लड़ाईयों से एक बात तो साबित जरुर हुआ था कि अब आदिवासी अपने हकों के लिए खामोश नहीं रहेंगे।

उन दिनों आपके आंदोलन और अलग झारखंड को लेकर चल रहे आंदोलन पर नक्सल आंदोलन का कितना असर था?

देखिए, हमारा संघर्ष भी भूमि को लेकर था। लेकिन मैदानी इलाकों में भूमि संघर्ष से बिल्कुल अलग था। हमारे यहां तो खेतों पर हमारा कब्जा था। लेकिन उनपर दूसरे तरीके से कब्जा की कोशिशें की जा रही थीं। लाल झंडा के लोग भी हमारे आंदोलन में हमारे साथ थे और अन्य पार्टी के लोग भी। सभी चाहते थे कि झारखंडवासियों को उनका अधिकार मिले। नक्सल आंदोलनों का झारखंड में वह असर नहीं हुआ जो मध्य बिहार के इलाके में हुआ था। हमारे यहां बड़े नरसंहार नहीं हुए। जातिवादी संघर्ष भी बहुत सीमित थे। लेकिन हमारी परेशानियां और चुनौतियां कम नहीं थीं। हमारे यहां भी हिंसक लड़ाई का दौर चला लेकिन वह आदिवासियों ने अपने हिसाब से लड़ी।

जिन दिनों आप पटना और दिल्ली में झारखंड के लिए लड़ रहे थे, उन दिनों ही आपके कई साथी आपसे नाराज भी हो गये थे। कहा जाता है कि लालू प्रसाद ने आपकी पार्टी को दो हिस्सों में बांट दिया था। उसकी क्या वजहें थीं?

देखिए, आंदोलन को लेकर कहीं कोई मतभेद नहीं था। हम सब अलग झारखंड की लड़ाई लड़ रहे थे। राजनीति में कभी-कभी ऐसा होता है कि साथ चलने वाले किसी कारण से अलग हो जाते हैं, लेकिन आंदोलन पर इसका असर नहीं पड़ता। इसकी वजह यह भी रही कि यह आंदोलन केवल किसी नेता का नहीं था बल्कि इस आंदोलन में हर झारखंडवासी शामिल था। फ़िर चाहे वह आदिवासी था या फ़िर गैर आदिवासी। सबने इस आंदोलन को आगे बढाया था।

लालू जी से आपके रिश्ते कैसे रहे हैं आजतक?

लालू जी को हमलोगों ने बिहार का मुख्यमंत्री बनाया था। हमने उन्हें अपना समर्थन दिया था। हम वैचारिक स्तर पर इस बात को लेकर सहमत थे कि समाज में वंचितों की स्थिति में बदलाव आये। लालू जी भी इसी सोच के थे। आज भी लालू जी से हमारे अच्छे रिश्ते हैं।

लेकिन लालू जी ने ही एक बार कहा था कि अलग झारखंड उनकी लाश पर बनेगा?

देखिए जिन दिनों यह लड़ाई अंतिम दौर में थी, सभी अपनी-अपनी राजनीति कर रहे थे। किसने क्या कहा और क्या सुना, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि अलग झारखंड बना और सर्वसम्मति से बना।

क्या आपको लगता है कि अलग झारखंड बनने के बाद झारखंड का अपेक्षित विकास हो सका है?

इतनी आसानी से कैसे संभव है। बदलाव तो हो ही रहे हैं। रही बात झारखंड के हितों की तो आज भी झारखंड में बड़ी कंपनियां खनिज लूट रही हैं और सत्तर फ़ीसदी संसाधनों पर भारत सरकार का कब्जा है। कितनी अजीब बात है कि भारत सरकार कहती है कि कोयला उसका है, लेकिन जिसकी जमीन के नीचे से कोयला निकाला जाता है, वह भारत सरकार का नहीं है। यह तो सरासर लूट है। असल में झारखंड का वर्तमान स्वरुप भी अधूरा है। पश्चिम बंगाल के तीन जिले मेदिनीपुर, बाकुड़ा और पुरुलिया झारखंड क्षेत्र में शामिल किये जाने चाहिए। इन जिलों में आदिवासी सबसे अधिक हैं। कहना गलत नहीं होगा कि लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है।

आपके हिसाब से आजादी के पहले, आजादी के बाद और अब इक्कीसवीं सदी में आदिवासियों के समक्ष चुनौतियों में कितना परिवर्तन आया है और उनके संघर्ष की रूपरेखा क्या है?

जल, जंगल और जमीन तीनों का सवाल है। ये सवाल शुरु से लेकर आजतक बने हुए हैं। जिस सीएनटी एक्ट के कारण आदिवासियों की जमीन सुरक्षित थी, उसे अब खत्म किया जा रहा है। यह एक बड़ी लड़ाई है। इसे हम हर हाल में आगे बढायेंगे और आदिवासियों की जमीन छीनने की रघुवरदास सरकार की कोशिशों को नाकाम करेंगे।

आपके हिसाब से ही जल, जंगल और जमीन को लेकर आज भी झारखंड के आदिवासी संघर्षरत हैं। यह स्थिति तब है जब आप भी झारखंड में सीएम रहे। आपके पुत्र हेमंत सोरेन भी। वहीं जेवीएम के बाबू लाल मरांडी भी। आजसू तो वर्तमान रघुवर दास सरकार में साझेदार भी है। आपको नहीं लगता है कि जेएमएम, जेवीएम या फिर आजसू जैसी प्रमुख पार्टियों की प्राथमिकता में आदिवासियों के मूल मुद्दे शामिल नहीं हैं?

आप पूरी बात को समझें। आदिवासी समाज आज भी शैक्षणिक और आर्थिक तौर पर पिछड़ा हुआ है। वे उनलोगों (भाजपा वालों) जैसे धूर्त नहीं हैं। जबकि वे (भाजपा वाले) पढे लिखे हैं और आदिवासी समाज के लोगों को बरगलाने में सफ़ल हो गये हैं। लेकिन अब आदिवासी समाज भी जागरुक हो गया है। लोगों ने रक्षक और भक्षक का अंतर समझ लिया है।

आदिवासियों के सांस्कृतिक अस्तित्व की रक्षा के लिए भी आपने कई पहल किये हैं। लेकिन अब स्थिति बदल रही है। आदिवासी अब या तो इसाई धर्म के प्रति आकर्षित हो रहे हैं या फिर वे हिन्दू धर्म को अपना रहे हैं। आदिवासी संस्कृति दम तोड़ रही है। आप क्या कहेंगे?

देखिए, मैं तो मानता हूं कि आदिवासियों का अपना धर्म सबसे श्रेष्ठ है। फ़िर आदिवासियों को किसी भी अन्य धर्म से जोड़ना गलत है। आदिवासी संस्कृति प्रकृति को संरक्षित रखने की संस्कृति है। हम जल, जंगल और जमीन के संसाधनों की पूजा करते हैं। यही हमारी संस्कृति और हमारा धर्म है। मैंने तो पहले भी, जब मैं मुख्यमंत्री था, तब मैंने रावण वध समारोह में शामिल होने से इन्कार किया था। यह तो आप भी जानते हैं। मैं आज भी यह मानता हूं कि आदिवासी तभी सुरक्षित हैं जबतक उनका अपना धर्म सुरक्षित है।

देश की राजनीति के हिसाब से आपके उपर भी परिवारवाद को बढावा देने का आरोप लगता है। आप क्या कहेंगे?

(हंसते हुए) कौन करेगा राजनीति। कोई कुकुर करने आयेगा। जब किसान का बेटा किसानी कर सकता है, जज का बेटा जज बनता है तब यह सवाल क्यों नहीं उठाया जाता है। आप ही बताइये किस पार्टी में परिवारवाद नहीं। मेरा तो मानना है कि यदि किसी नेता का बेटा राजनीति करना चाहता है तो इसमें गलत क्या है। फ़ैसला तो जनता को ही करना है। जनता जिसे चाहेगी, उसे चुनेगी। वह चाहे आम आदमी हो या फ़िर किसी नेता का बेटा या बेटी। लोकतंत्र में सभी को राजनीति करने का अधिकार है।


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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