विगत दो दशकों से जिस तरह दलित साहित्य चर्चा में आया है, उसे देखते हुए मेरी धारणा थी कि विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किये जा रहे लोगों में दलित साहित्यकारों की भी संख्या अच्छी-खासी होगी। किन्तु अपनी धारणा को पुष्ट करने के लिए हाल ही में जब साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित लोगों की तालिका पर नजर दौड़ाया तो हैरान हुए बिना नहीं रह सका। 1955 से अबतक अकादमी द्वारा ‘साहित्य अकादमी’ और ज्ञानपीठ द्वारा ‘ज्ञानपीठ सम्मान’ से सम्मानित हिंदी साहित्यकारों के उपनाम पर नज़र दौड़ाने पर उसमें में एक भी दलित साहित्यकार नहीं पाया, महिलाएं सिर्फ दो, वह भी सवर्ण। इस प्रतिष्ठित संस्था द्वारा सम्मानित नामों में सामाजिक और लैंगिक विविधता के पूर्णतया अभाव का कारण जानने के लिए जब मैंने इसके इतिहास में डुबकी लगायी तो स्तब्ध हुए बिना न रह सका।
साहित्य की सबसे प्रतिष्ठित संस्था ‘साहित्य अकादमी’ के स्वतंत्र भारत में वजूद में आने के पूर्व ही ब्रिटिश सरकार ने 1944 में ही ‘रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल’ के इस प्रस्ताव को सैद्धांतिक मंजूरी दे दी थी कि ‘सभी क्षेत्रों में सांस्कृतिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिए राष्ट्रीय सांस्कृतिक ट्रष्ट गठित हो।’ ट्रष्ट के अंतर्गत साहित्य अकादमी के साथ दृश्य कला और नृत्य-नाट्य व संगीत अकादमी की भी स्थापना का प्रस्ताव था, जिसे स्वाधीन भारत में मूर्त रूप दिया गया। भारत सरकार के संकल्प से आदेश क्रमांक एफ-6-4/51 जी 2 (ए) दिसंबर 1952 को साहित्य अकादेमी नामक राष्ट्रीय संस्था की स्थापना का निर्णय लिया गया तथा इसका उद्घाटन 12 मार्च 1954 को हुआ। भारत सरकार के जिस प्रस्ताव में अकादेमी का यह विधान निरुपित किया गया था, उसमें अकादमी की यह परिभाषा दी गई है- ‘भारतीय साहित्य के सक्रिय विकास के लिए कार्य करनेवाली एक राष्ट्रीय संस्था, जिसका उद्देश्य उच्च साहित्यिक मानदंड स्थापित करना; भारतीय भाषाओँ में साहित्यिक गतिविधियों को समन्वित करना एवं उनका पोषण करना तथा उनके माध्यम से देश की सांस्कृतिक एकता का उन्नयन करना होगा।’
भारत सरकार द्वारा स्थापित यह संस्था एक स्वायतशासी संस्था के रूप में कार्य करती है, जिसका पंजीकरण अधिनियम 1860 के अंतर्गत, 7 जनवरी 1956 को हुआ। साहित्यिक संवाद, प्रकाशन और उसका देश भर में प्रसार करनेवाली यह ऐसी एकमात्र संस्था है, जो चौबीस भाषाओँ, जिनमें अंग्रेजी भी शामिल है, में साहित्यिक क्रियाकलापों का पोषण एवं 24 भाषाओँ की साहित्यिक कृतियों के लिए पुरस्कार प्रदान करती है। हर 30 घंटे में एक पुस्तक का प्रकाशन करनेवाली वाली यह संस्था अबतक 4200 पुस्तकें प्रकाशित कर चुकी है। प्रत्येक वर्ष क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर की कमसे कम 30 संगोष्ठियों का आयोजन करने के अलावा इसके द्वारा आयोजित किये जानेवाले कार्यशालाओं व अन्य कार्यक्रमों की संख्या लगभग 200 होती है। ये कार्यक्रम लेखक से मुलाक़ात, संवाद, लोक विविध स्वर, व्यक्ति और कृतित्व, मेरे झरोखे से ,साहित्यिक मंच इत्यादि श्रृंखलाओं के अंतर्गत आयोजित होते हैं। अकादमी के कार्यकलापों में प्रतिष्ठित लेखकों को महत्तर सदस्य और मानद महत्तर सदस्य चुनकर सम्मानित करना भी शामिल है।
जनता की गाढ़ी कमाई से चलनेवाली इस संस्था के संचालन का भार राजनीति में घुस आये गुंडों और माफियाओं पर नहीं,बल्कि छोटे-बड़े उन नामवरों पर रहता है, जिन्हें हम सर्वोच्च स्तर का संवेदनशील बुद्धिजीवी समझते हैं और जिनसे हम प्रत्याशा करते हैं कि वे अपनी-अपनी उपस्थिति और कार्यों से किसी भी संस्था के लिए उच्च दृष्टान्त स्थापित करेंगे तथा उसका प्रजातान्त्रिकीकरण करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे। किन्तु विगत सात दशकों से लोकतांत्रिक देश भारत के 24 भाषाओं के लगभग 250 संवेदनशील साहित्यकारों द्वारा निरंतर परिचालित साहित्य अकादमी प्रजतान्त्रीकरण से कोसों दूर है। यदि इसमें लोकतंत्र का नाम-गंध होता तो अबतक इसके द्वारा प्रकाशित कुल 4200 में से 900 से अधिक दलित-आदिवासी विषयक किताबें होतीं। इसी तरह उसके द्वारा हर वर्ष आयोजित की जाने वाली 30 बड़ी संगोष्ठियों में से 25 नहीं तो कमसे कम 15 तो अवश्य ही एससी/एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक मुद्दों से जुडी होतीं। लेखक से भेंट, संवाद इत्यादि श्रृंखला के 200 में 100 कार्यक्रम भी इन्हीं समुदायों से जुड़े होते तथा अकादमी द्वारा चुने गए महत्तर और मानद महत्तर सदस्यों में इन समुदायों की ठीकठाक संख्या नज़र आती। पर, उसका इतिहास खंगालने पर वैसा कुछ नज़र नहीं आता। नज़र यह आता है कि अकादमी भारतीय साहित्य के विपरीत ‘सवर्ण साहित्य के सक्रिय विकास की एक राष्ट्रीय संस्था’ बनकर रह गई है, जिसके अलोकतांत्रिक चरित्र के कारण ‘सांस्कृतिक एकता के बजाय कटुता को ही बढ़ावा मिल रहा है। ’आखिर गुंडे-माफिया नहीं, संवेदनशील साहित्यकारों से भरी अकादेमी में लोकतंत्र क्यों दूरवीक्षण यंत्र से देखने के चीज बन गया है? इसे जानने के लिए जब वेबसाइट पर अकादमी के प्रशासनिक,प्रकाशन और सम्मान-वितरण चयन समिति के सदस्यों का नाम सर्च किया, मेरे सवालों का जवाब मिल गया।
यदि कोई भी व्यक्ति वेबसाइट पर अकादेमी के ‘कार्यकारी मंडल’ और ‘परामर्श मंडल’ के नामों की खोज करते हुए,उनके ‘उपनामों’ पर थोड़ा भी ध्यान दे तो उसे यह समझते देर नहीं लगेगी कि वहां सवर्ण पुरुषों की उपस्थिति कम से कम 80-85 प्रतिशत है, जिनमें ब्राह्मणों की संख्या 60 प्रतिशत से ऊपर है, शेष 15 में एससी/एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यक और महिलाएं हैं। यही 80-85 प्रतिशत लोग अकादेमी द्वारा प्रदान किये जानेवाले पुरस्कारों, महत्तर और मानद महत्तर सदस्यों तथा प्रकाशित की जानेवाली किताबों के चयन में निर्णायक रोल अदा करते हैं। परिणामस्वरूप अकादमी सवर्ण साहित्य के सक्रिय विकास की एक विराट राष्ट्रीय संस्था बनने के लिए अभिशप्त हुई है। आखिर संवेदनशील साहित्यकार कहे जाने वाले 80-85 प्रतिशत लोग अकादेमी को सर्वसमाज के बजाय हिन्दू अल्पजनों, जिनका साहित्य वैदिक काल से ही विकसित है, के साहित्य के पोषक के रूप में क्यों तब्दील कर दिए हैं? इसका समाजशास्त्रीय कारण यह है कि भारत में व्यक्ति की सोच स्व-जाति/ वर्ण की स्वार्थ की सरिता में मध्य घूर्णित होती रहती है ,जिसका अपवाद आज तक कोई भी बड़ा से बड़ा राजा या नेता, साधु-संत, लेखक-कलाकार नहीं हो पाया। ऐसे में अगर अकादमी को सवर्ण नहीं, भारतीय साहित्य के सक्रिय विकास की आदर्श संस्था का रूप देना है तो हिंदी के अमिताभों के आंसूओं की निर्ममता से उपेक्षा करते हुए, उसकी ‘कार्यकारिणी और परामर्श’ मंडली में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करवाने की दिशा में बलिष्ठ अभियान चलाने से भिन्न कोई अन्य विकल्प नहीं है।
क्या सिर्फ साहित्य अकादेमी ! भारत रत्न, पद्म व यश भारती सहित अन्यान्य पुरस्कारों में भी सवर्णों का बोलबाला है। और ऐसा इसलिए है कि इनके चयन समितियों में सवर्णों का वर्चस्व है। जबतक चयन समितियों में विविध सामाजिक समूहों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित नहीं हो जाता, तमाम पुरस्कार सवर्णों के यश और धनार्जन का माध्यम बनने के लिए अभिशप्त रहेंगे।
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