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क्या आप स्त्रीवादी लोहिया को जानते हैं?

लोहिया का सपना था पिछड़ी जातियों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, श्रमजीवी वर्ग और महिलाओं का एक गठबंधन तैयार करना, जो एक होकर सत्ता के विभिन्न केन्द्रों का विरोध करेगा- चाहे वे जातिगत हों, वर्गीय, नस्लीय या लैंगिक - और एक नई दुनिया का आगाज़ करेगा। ललिता धारा का आलेख

23 मार्च : लोहिया जयंती 

सर्वव्यापी समानता के हिमायती थे लोहिया

डा. राममनोहर लोहिया (23 मार्च, 1910-12 अक्टूबर, 1967) बीसवीं सदी के भारत के सबसे तेजस्वी और मेधावी व्यक्तित्वों में से एक थे। वे एक संवेदनशील और तार्किकतावादी मनुष्य थे और लीक पर चलना उनके स्वभाव में ही नहीं था। वे अत्यंत प्रतिभाशाली, गहन और अभिनव विचारक थे। उनका स्वप्न था प्रजातंत्र, समाजवाद, न्याय और शांति पर आधारित समाज का निर्माण। वे एक ऐसी दुनिया को देखना चाहते थे, जिसमें न कोई सीमाएं हों और ना ही कोई अवरोध। वे उग्र राष्ट्रवादी भी थे और वैश्विक नागरिक भी।

राममनोहर लोहिया

लोहिया के पिता हीरालाल महात्मा गांधी के पक्के अनुयायी थे। जब लोहिया किशोरावस्था में थे, तभी उनके पिता के ज़रिए उन्हें भारत के स्वाधीनता संग्राम के संबंध में जानकारी मिली। इसने उन पर गहरा प्रभाव डाला। सन 1930 के दशक की शुरूआत में वे जर्मनी से डाक्टरेट की डिग्री हासिल कर भारत लौटे। उन्होंने अपना राजनीतिक जीवन कांग्रेस से शुरू किया परंतु 1940 और 1950 के दशक में उन्होंने अपनी राजनीतिक राह खुद बनाई। उन्होंने कई राजनीतिक प्रयोग किए और उनके प्रशंसकों और अनुयायियों की संख्या बढ़ती गई। सन 1950 के दशक के मध्य तक उन्होंने आदर्श समाज का अपना खाका तैयार कर लिया था और उस तक पहुंचने का रास्ता भी उनके सामने साफ था।

लोहिया, चुनावों के माध्यम से एक विकेन्द्रीकृत समाजवादी राज्य का निर्माण करना चाहते थे। वे मार्क्सवाद और गांधीवाद के मिश्रण से समाजवाद का एक अनूठा भारतीय मॉडल तैयार करना चाहते थे, जिसकी जड़ें भारतीय सामाजिक यथार्थ में हों और जो भारतीय मूल्यों को प्रतिबिंबित करे। परंतु उनका मॉडल, नेहरू के राज्य-समर्थित समाजवाद और भारतीय कम्युनिस्टों के केंद्रीकृत समाजवाद के मॉडल से भिन्न था। इन दोनों के विपरीत वे विकेन्द्रीकृत आर्थिक और राजनीतिक ढांचे के हामी थे परंतु परिवर्तन की उनकी चाहत केवल आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों तक सीमित नहीं थी। आर्थिक और राजनीतिक ढांचों के अतिरिक्त वे सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे को भी बदल देना चाहते थे। वे नस्लवाद और किसी एक भाषा के वर्चस्व के भी खिलाफ थे। जहां तक जातिगत व लैंगिक पदक्रम का सवाल है, वे यह मानते थे कि उसका उदय उसी विचारधारा से हुआ है, जिसे हम आज ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मकता कहते हैं। अपने ऐतिहासिक और मौलिक लेख ‘‘द टू सेग्रीकेशन्स ऑफ़ कास्ट एंड सेक्स’’ में उन्होंने जातिगत और लैंगिक पदक्रमों की समालोचना की और उनके बीच के अंतर्संबंधों पर प्रकाश डाला। इस लिहाज़ से वे फुले, आंबेडकर, पेरियार व शाहूजी जैसे महान सामाजिक क्रांतिकारियों की श्रेणी में थे।

महात्मा गांधी को कागजात दिखाते राम मनोहर लोहिया

उनकी सोच का फलक अत्यंत व्यापक था। वे राष्ट्रीय और भौगोलिक सीमाओं से बंधे हुए नहीं थे। वे चाहते थे कि विभिन्न राष्ट्रों के बीच की असमानता तो समाप्त हो ही, राष्ट्रों के अंदर, जातियों वर्गों, लिंगों, नस्लों और समुदायों की बीच की असमानताएं भी दूर हों। जिस तरह फुले, शूद्रों, अतिशूद्रों और महिलाओं की एकता की बात करते थे, उसी तरह लोहिया का सपना था पिछड़ी जातियों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, श्रमजीवी वर्ग और महिलाओं का एक गठबंधन तैयार करना, जो एक होकर सत्ता के विभिन्न केन्द्रों का विरोध करेगा- चाहे वे जातिगत हों, वर्गीय, नस्लीय या लैंगिक- और एक नई दुनिया का आगाज़ करेगा। अपने क्रांतिकारी विचारों और प्रेरणादायक नेतृत्व से उन्होंने अपने अनुयायियों पर गहरा प्रभाव डाला और सन 1950 और 1960 के दशक में उनके नेतृत्व में कई आंदोलन हुए। वे आक्रामक थे और अपने लक्ष्यों से कभी समझौता नहीं करते थे परंतु वे सत्याग्रह की राह से एक पल के लिए भी नहीं डिगे।

लोहिया के लिए व्यक्तिगत आचार-विचार उतने ही महत्वपूर्ण थे जितने कि सामाजिक और राजनीतिक आचार-विचार। उनकी इसी सोच ने उन्हें एक अत्यंत ईमानदार और पारदर्शी राजनीतिज्ञ बनाया। ये गुण राजनीतिक नेताओं में बहुत कम ही पाए जाते हैं। वे अपने विचारों पर दृढ़ रहते थे और उन्हें व्यक्त करने से कभी सकुचाते नहीं थे। उनकी पार्टी (प्रजा समाजवादी पार्टी), त्रावणकोर-कोचीन राज्य (जो अब केरल का हिस्सा है) में सत्ता में थी। उस दौरान वहां बागान श्रमिकों का आंदोलन हुआ और पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोली चलाई। लोहिया को अपनी ही सरकार की यह हरकत नागवार गुज़री और उन्होंने उससे इस्तीफा देने को कहा। नतीजे में उन्हें ही पार्टी से बाहर कर दिया गया। वे मनसा-वाचा-कर्मणा सिद्धांतवादी थे और जहां तक अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहने का प्रश्न था, उनके लिए व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में कोई फर्क नहीं था। वे अपने व्यक्तिगत रिश्तों को कभी किसी से छिपाते नहीं थे, चाहे उसका कुछ भी परिणाम क्यों न हो। विवाह की संस्था में उनकी आस्था नहीं थी और इसलिए वे जीवनभर अविवाहित रहे। संपत्ति अर्जित करने में उनकी कोई रूचि नहीं थी। जब उनकी मृत्यु हुई तो वे अपने पीछे न तो कोई संतान छोड़ गए, न कोई संपत्ति और ना ही बैंक बैलेन्स।

प्रभावती और जयप्रकाश नारायण के साथ राम मनोहर लोहिया

डा. लोहिया 20वीं सदी के भारत के उन चंद नेताओं में से थे जिन्होंने लैंगिक प्रश्नों पर गहराई से विचार किया। उनकी मान्यता थी कि सामाजिक क्रांति के पहले लैंगिक क्रांति होनी चाहिए। नैतिकता, कौमार्य और यौन जीवन के संबंध में उनके विचार हवा के एक ताजा झोंके के समान थे और वे इन मुद्दों पर दोगलेपन के सख्त विरोधी थे। उनके लिए केन्द्रीय मुद्दा था महिलाओं की गरिमा, न कि उनका कथित सतित्व या नैतिकता। उनका यह मानना था कि महिलाओं को गरिमापूर्ण जीवन बिताने के लिए काम करना आवश्यक है। वे कन्या भ्रूण हत्या और दहेज़ प्रथा की कठोर शब्दों में निंदा करते थे और यह मानते थे कि इनके लिए पितृसत्तात्मक मानसिकता ज़िम्मेदार है। उनका कहना था कि केवल पुरूष ही नहीं, वरन महिलाएं भी पितृसत्तात्मकता की पैरोकार हो सकती हैं। वे चाहते थे कि इस मानसिकता को बेरहमी से उखाड़ कर नष्ट कर दिया जाए। लैंगिक प्रश्नों पर उनके कथनों का हर शब्द एक मिसाइल की तरह होता था, जो पितृसत्तात्मक विचारधारा के मूलाधार पर प्रहार करता था। वे यह मानते थे कि पितृसत्तात्मकता एक ऐसा दानव है जिसके कई सिर हैं और उस पर हर तरफ से आक्रमण किया जाना आवश्यक है।

लोहिया के भाषणों और उनके लेखन से महिलाओं के प्रति उनके अथाह प्रेम, सम्मान और चिंता जाहिर होती है। वे महिलाओं के सौंदर्य के संबंध में खुलकर बोलते थे, चाहे महिला सांवली हो या गोरी, नीची जाति की हो या ऊँची जाति की, मजदूर हो या मालिक। परंतु वे महिलाओं को केवल सौंदर्य की प्रतिमूर्ति नहीं मानते थे। वे उन्हें उत्पादक मनुष्य मानते थे-घर के बाहर भी और घर के अंदर भी। पुराणों की एक कथा का संदर्भ लेते हुए लोहिया शिव और पार्वती की एक कहानी सुनाते हैं, जिसमें वे एक साथ एक-दूसरे के कदम से कदम मिलाकर नृत्य कर रहे हैं। अचानक शिव अपना एक पैर धरती से बहुत ऊपर उठा लेते हैं। जाहिर है कि महिला होने के कारण पार्वती उनके इस कदम से कदम नहीं मिला पाती। ‘‘जब शिव ने शक्ति का यह प्रदर्शन किया तो क्या यह एक ऐसी प्रतियोगिता में विजय प्राप्त करने का प्रयास नहीं था जिसमें वे हार की ओर जा रहे थे?’’ लोहिया लिखते हैं (देखिए लोहिया का निबंध ‘‘राम एंड कृष्ण एंड शिवा’’)। उन्होंने इस उदाहरण को पितृसत्तात्मक सत्ता संबंधों की सबसे पुरानी अभिव्यक्ति बताया।

एक दूसरी कहानी में वे शिव का एक दूसरा रूप प्रस्तुत करते हैं। ‘‘…जब शिव के एक भक्त ने कहा कि वह उनके बगल में पार्वती के बैठे होने पर उनकी आराधना नहीं कर सकता तो उन्होंने अर्धनारीश्वर का रूप ग्रहण कर लिया।’’ शायद लोहिया हमें यह बताना चाहते थे कि सभी मनुष्य पुरूष और महिला का सम्मिश्रण होते हैं और इस तथ्य से यह स्पष्ट है कि महिलाओं और पुरूषों के रिश्ते में समानता हो सकती है।

वे उग्र, वाकपटु और सांवली द्रौपदी को आज्ञाकारी सावित्री और शर्मिली व संयमी सीता से बेहतर मानते थे। उन्होंने लिखा ‘‘अगर सावित्री का मिथक सही है तो मुझे एक भी ऐसा उदाहरण बताइए जब किसी पति ने अपनी मृत पत्नी का जीवन, यमराज से छीनकर उसे पुनर्जीवित किया हो’’ (देखें लोहिया का निबंध ‘‘द्रौपदी एण्ड सावित्री’’)।

सादगी की मिसाल : खेत में खाना खाते लोहिया

राम, कृष्ण और शिव के मिथकों पर केन्द्रित अपने चमत्कृत कर देने वाले एक निबंध में वे लिखते हैं कि राम सीमाओं से बंधे जीवन का प्रतिनिधित्व करते हैं, कृष्ण ऊर्जा और रोमांच से भरे व्यक्ति का और शिव एक ऐसे व्यक्तित्व का, जिसकी कोई सीमा ही नहीं है। उन्होंने यह चिंता प्रकट की कि पितृसत्तात्मक ढांचे में राम के अनुयायी पत्नियों को त्याग देने वाले लोग बन सकते हैं और कृष्ण के अनुयायी, दिलफेक मजनू। वे राम राज्य के आदर्श को सीता-राम राज्य के रूप में विस्तारित करना चाहते थे।

लोहिया में इन तीनो मिथकीय नायकों के सर्वश्रेष्ठ गुणों का मिश्रण था। राम की तरह उन्होंने अपने आंदोलनों और अपने कार्यों को संविधान के अंतर्गत बांधी गई प्रजातांत्रिक और कानूनी सीमाओं के अंदर रखा। परंतु जहां तक विचारों का प्रश्न है, वे शिव की तरह निर्बाध थे (उदाहरण के लिए वे एक ऐसी दुनिया की कल्पना करते हैं, जिसमें न पासपोर्ट होंगे और ना ही वीज़ा)। जब भी वे किसी प्रश्न पर विचार करते थे या कोई कार्य करते थे, तो कृष्ण की तरह वे उत्साह से परिपूर्ण रहते थे। मैं इसमें यह जोड़ना चाहूंगी कि वे सच्चे अर्थों में अर्धनारीश्वर थे और उनके व्यक्तित्व के स्त्रीयोचित व पुरूषोचित पक्ष पूरी तरह संतुलित थे। यही कारण है कि वे वैश्विक मुद्दों के साथ-साथ महिलाओं के रोज़ाना के जीवन में आने वाली छोटी से छोटी समस्या को भी अच्छी तरह से समझ सकते थे चाहे वह शौचालयों का अभाव हो, चूल्हे से निकलने वाले धुएं से होने वाली परेशानी हो या दूर से पानी भरकर लाने का कष्ट।

लोहिया, भारत से अत्यंत प्रेम करते थे। वे उसकी विविधता के पुजारी थे और उसकी कलाओं, वास्तुकला और मूर्तिकला में एक आधारभूत एकता पाते थे। उनका एक लेख ‘‘मीनिंग इन स्टोन’’ विचारोत्तेजक और सुंदर लेखन का नायाब नमूना है और उनके अंदर के कला के पारखी से हमारा परिचय करवाता है। ‘‘भारतीयों ने अपने इतिहास और अपनी कला को पत्थर में गढ़ा’’, वे लिखते हैं। ‘‘भारत में इतिहास और कला के बीच गहरा संबंध है। इतिहास जहां जाता है, वहां या तो कला पहले से ही मौजूद रहती है या उसके पीछे चली आती है’’। वे अपने लेख का अंत इन शब्दों से करते हैं ‘‘सृजन करना ही स्वतंत्रतापूर्वक और उत्साह के साथ जीना है‘‘। वे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में हमारे सामने आते हैं, जिसे इतिहास की गहरी समझ है और जो अपनी विरासत पर गर्वित है।

1966 में भारत बंद के दौरान आगरा में गिरफ्तार होनेे के बाद मजिस्‍ट्रेट के सामने बहस करते लोहिया

वे लेखकों, चित्रकारों इत्यादि के निकट संपर्क में रहते थे और उन पर प्रभाव डालते थे और उनसे प्रभावित भी होते थे। लोहिया के निकट मित्र एमएफ हुसैन ने यह स्वीकार किया है कि उनके कई चित्रों की प्रेरणा उन्हें लोहिया से मिली। कई आधुनिक और प्रगतिशील लेखक जैसे पी. लंकेश, यू.आर. अनन्तमूर्ति और तेजस्वी, जिन्होंने कन्नड़ में विपुल लेखन किया है, लोहिया के विचारों और उनके सपनों से गहरे तक प्रभावित थे।

व्यक्तिगत रिश्तों के संबंध में वे अत्यंत संवेदनशील थे। उनका मानना था कि महिलाओं और पुरूषों के बीच के संबंध अत्यंत नाजुक होते हैं और उन्हें ईमानदारी और निष्ठा से निभाया जाना चाहिए। वे मानवीय रिश्तों में पाखण्ड के घोर विरोधी थे और दोनों ही पक्षों से उनकी यह अपेक्षा रहती थी कि उनका व्यवहार पूर्णतः पारदर्शी हों। वे रिश्तों में परस्परता पर ज़ोर देते थे। वे द्रौपदी और कृष्ण के बीच के रिश्ते को आदर्श मानते थे और कहते थे कि द्रौपदी और कृष्ण, साहचर्य का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं।

लोहिया का सपना केवल दमन और शोषण का अंत करना ही नहीं था। वे प्रत्येक व्यक्ति की भलाई और सामूहिक प्रसन्नता को बढावा देने के हामी थे। वे एक ऐसे समाज की कल्पना करते थे जिसमें हर व्यक्ति को अपनी क्षमताओं के अनुरूप उन्नति करने का अवसर मिलेगा और इस तरह एक प्रसन्न और संतुष्ट समाज का निर्माण होगा। उनके व्यक्तित्व का एक अनूठा पक्ष था, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संघर्षों को एकीकृत कर इस आदर्श को पाने का उनका प्रयास। उनकी दृष्टि में एक प्रसन्न दुनिया वह थी जिसमें लैंगिक न्याय और लैंगिक समानता हो और जो अंततः लैंगिकता-मुक्त हो जाए।

यह सही है कि महिलाओं के प्रश्न पर लोहिया का योगदान केवल विचारों तक सीमित था। उनके नेतृत्व वाली पार्टियों के सम्मेलनों में महिलाओं के सशक्तिकरण की मांग करने वाले कुछ प्रस्तावों को छोड़कर, उन्होंने इस दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं किया। परंतु एक ऐसे समाज, जिसमें महिलाओं को प्रतिदिन अत्याचार झेलंने पड़ते हैं और जिसमें विचारों, शब्दों और कार्यों से महिलाओं को अपमानित किया जाना आम है, वहां लैंगिक समानता के मुद्दे पर उनके दृढ विचार और लैंगिक समानता के आदर्श के प्रति उनकी पूर्ण प्रतिबद्धता बहुत महत्वपूर्ण और दिल को छूने वाली है।


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लेखक के बारे में

ललिता धारा

ललिता धारा मुंबई के डॉ आंबेडकर कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स के सांख्यिकी विभाग की अध्यक्ष रही हैं। उन्होंने कई शोधपूर्ण पुस्तकों का लेखन किया है, जिनमें 'फुलेज एंड विमेंस क्वेश्चन', 'भारत रत्न डॉ बाबासाहेब आंबेडकर एंड विमेंस क्वेश्चन', 'छत्रपति शाहू एंड विमेंस क्वेश्चन', 'पेरियार एंड विमेंस क्वेश्चन' व 'लोहिया एंड वीमेनस क्वेश्चन' शामिल हैं। इसके अतिरिक्‍त सावित्रीबाई फुले के पहले काव्य संग्रह का उनका अनुवाद भी "काव्य फुले" शीर्षक से प्रकाशित है।

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